सोमवार 10 फ़रवरी 2025 - 13:58
22 बहमन अर्थात 10 फ़रवरी और ईरानी इतिहास

हौज़ा / ईरान में बहमन माह की 22 तारीख अर्थात फ़रवरी की 10 को एक बहुत ही अनोखी रस्म निभाई जाती है; 22 बहमन के अनुरूप 10 फरवरी की रात को, पूरा देश ईरान में इस्लामी क्रांति की वर्षगांठ पर "अल्लाहो अकबर" के नारों से गूंज उठता है, जो 11 फरवरी, 1979 को राजशाही के अंत और इस्लामी गणराज्य की स्थापना का प्रतीक है। ये नारे लोगों की एकजुटता, इस्लामी व्यवस्था के प्रति वफादारी और दुश्मनों के प्रति प्रतिरोध की अभिव्यक्ति हैं, जो हर साल देर रात को छतों और सड़कों से लगाए जाते हैं।

लेखक एवं संयोजक: सैयद फसीह काज़मी

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी|

ईरान में 22 बहमन को एक बहुत ही अनोखी रस्म निभाई जाती है; 22 बहमन के अनुरूप 10 फरवरी की रात को, पूरा देश ईरान में इस्लामी क्रांति की वर्षगांठ पर "अल्लाहो अकबर" के नारों से गूंज उठता है, जो 11 फरवरी, 1979 को राजशाही के अंत और इस्लामी गणराज्य की स्थापना का प्रतीक है। ये नारे लोगों की एकजुटता, इस्लामी व्यवस्था के प्रति वफादारी और दुश्मनों के प्रति प्रतिरोध की अभिव्यक्ति हैं, जो हर साल देर रात को छतों और सड़कों से लगाए जाते हैं।

22 बहमन की रात को ईरान में "अल्लाहु अकबर" के नारों की गूंज महज एक रस्म नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरे ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक मायने हैं; नीचे हम इन पहलुओं पर संक्षेप में विचार करेंगे।

1. ऐतिहासिक आधार: क्रांति की आवाज़ बनने का सफ़र

-शाही तानाशाही के खिलाफ पहला कदम: 1970 के दशक के अंत में जब शाह पहलवी की सरकार लोगों पर अत्याचार कर रही थी, तब लोगों ने विरोध का अनोखा तरीका अपनाया। रात के अंधेरे में छतों पर खड़े होकर "अल्लाहु अकबर" चिल्लाना न केवल धार्मिक भक्ति की अभिव्यक्ति थी, बल्कि यह दमनकारी सरकार को यह बताने का एक निडर तरीका था कि लोग चुप नहीं बैठेंगे।

- इमाम खुमैनी की रणनीति: इमाम खुमैनी ने इस नारे को लोकप्रिय आंदोलन का केंद्र बनाया। उन्होंने कहा, "ये ध्वनियाँ तोपों और टैंकों से भी अधिक शक्तिशाली हैं।" दरअसल, जब शाह की सेना ने गोलियां चलाईं तो लोगों के नारे उनकी सत्ता को चुनौती देते रहे।

2. रात में नारे लगाने के विशेष कारण

- गुप्त विरोध का स्रोत: दिन के समय, जो लोग खुलेआम विरोध करते थे उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता था या उन पर अत्याचार किया जाता था। इसलिए रात का समय सुरक्षित माना गया। छतों पर खड़े होकर नारे लगाना ऐसा था जैसे पूरा शहर विद्रोह में उठ खड़ा हुआ हो।

- एकता का प्रतीक: जब एक मोहल्ले से "अल्लाहो अकबर" का नारा बुलंद होता था, तो दूसरे मोहल्ले के लोग भी इसका जवाब देते थे। यह श्रृंखला पूरे देश में फैलेगी और प्रत्येक व्यक्ति को यह विश्वास दिलाएगी कि वे अकेले नहीं हैं, बल्कि एक बड़े आंदोलन का हिस्सा हैं।

- धर्म और राजनीति का संयोजन: इस नारे से पता चला कि क्रांति केवल राजनीतिक परिवर्तन के बारे में नहीं थी, बल्कि इस्लामी मूल्यों की बहाली के बारे में थी। इसलिए यह नारा धार्मिक समर्थन हासिल करने में भी महत्वपूर्ण था।

3. 22 बहमन की रात: क्यों और कैसे?

- क्रांति की निर्णायक घड़ी: 21 बहमन की रात को शाह ने पूरे देश में मार्शल लॉ लागू कर दिया, लेकिन 22 बहमन की सुबह तक लोगों ने सैन्य चौकियों को तोड़ दिया और शाह के महलों पर कब्जा कर लिया। उस रात "अल्लाहु अकबर" के नारे सार्वजनिक साहस का प्रतीक बन गए।

-आध्यात्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति: आज भी इन नारों का जाप करना उन लोगों के प्रति श्रद्धांजलि है, जिन्होंने शाह के टैंकों के सामने अडिग रहकर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।

- युवा पीढ़ी के लिए सबक: उस रात बूढ़े लोग अपने बच्चों को बताते हैं कि कैसे आवाजों ने सत्ता की मूर्ति को गिरा दिया। ये नारे नई पीढ़ी को बताते हैं कि एकता से कोई भी ताकत अजेय नहीं है।

4. आज नारों में परिवर्तन और विवाद

- सरकारी प्रचार का हिस्सा: वर्तमान सरकार इस रात को बड़े पैमाने पर मनाती है, जिसमें स्कूली बच्चों से लेकर सैन्य कर्मियों तक सभी "अल्लाहु अकबर" का नारा लगाते हैं। इसे राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति माना जाता है।

5. सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव

- पारिवारिक परंपराएं: गांवों में बुजुर्ग बच्चों को रात में छतों पर ले जाते हैं और कहानियां सुनाते हैं कि कैसे उन्होंने शाह के विमानों के शोर में भी "अल्लाहु अकबर" चिल्लाया था।

- सांस्कृतिक पहचान: ये नारे अक्सर ईरानी नाटकों और वृत्तचित्रों में दिखाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, फिल्म 'बैटल ऑफ द सिटी' में दिखाया गया है कि किस प्रकार इन नारों से सैनिकों का मनोबल गिरता था।

- धार्मिक समारोह का हिस्सा: 22 बहमन की रात को कुछ मस्जिदों में विशेष प्रार्थनाएं आयोजित की जाती हैं, जहां नारे लगाए जाते हैं और उसके बाद सामूहिक प्रार्थना की जाती है।

सारांश:

नारे इतिहास कैसे बन गए?

"अल्लाहु अकबर" का नारा शुरू में एक धार्मिक प्रतीक था, लेकिन ईरानी लोगों ने इसे अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई का नारा बना लिया। आज यह नारा न केवल अतीत की कहानी कहता है, बल्कि वर्तमान पीढ़ी को यह भी बताता है कि विश्वास और दृढ़ संकल्प किसी भी ताकत को कैसे पराजित कर सकता है। हर साल 22वीं बहमन की रात को ये आवाजें ईरान की सड़कों पर गूंजती हैं, मानो इतिहास एक बार फिर जीवंत हो उठा हो।

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