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इस्लाम: वो क्रांति जिसने औरतों को फ़ैसले और इच्छा की ताकत दी
हौज़ा/ इस्लाम के अनुसार, औरतें और मर्द दोनों इंसानी ज़िंदगी में पार्टनर हैं, और इसलिए दोनों को बराबर हक़ और समाज के फ़ैसले लेने का हक़ दिया गया है। औरतों के नेचर में दो खास बातें बताई गई हैं: इंसानियत के ज़िंदा रहने के लिए "किसान" होना, और घर, परवरिश और परिवार में घुलने-मिलने के लिए तन और मन की नाज़ुकता। दोनों के बीच बेहतरी पर्सनल नहीं बल्कि ज़िम्मेदारियों में फ़र्क के आधार पर है। असली क्राइटेरिया इंसान का काम, नेकी और अल्लाह की मेहरबानी है।
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इस्लाम मे श्रेष्ठता का मापदंड महिला या पुरूष होना नहीं, बल्कि तक़वा है
हौज़ा / इस्लाम में पुरुष और महिला में श्रेष्ठता का एकमात्र मापदंड तक़वा और नैतिक गुण हैं। हर इंसान को उसके कर्मों का जवाब देना होगा। कुरान ने महिलाओं की उपेक्षा की तीव्र निंदा की है और इंसानों की बराबरी पर बल दिया है। अरबी जाहिलियत के समय बेटियों के जन्म को अपमान माना जाता था और उन्हें जिंदा दफन कर दिया जाता था, लेकिन इस्लाम ने महिलाओं की इज्जत, गरिमा और उनके अधिकारों की पूरी सुरक्षा की है।
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इस्लाम ने महिला के ऊपर सदियों की क्रूरता को कैसे समाप्त किया?
हौज़ा / इस्लाम ने औरत की हालत को मुलभूत रूप से बदल दिया और उसे पुरुष की तरह एक स्थायी और बराबर इंसान के रूप में माना। इस्लाम के अनुसार पुरुष और महिला सृष्टि और कर्म के हिसाब से बराबर हैं, और किसी को दूसरे पर कोई बढ़त नहीं है, सिवाय तक़वा के। इस्लाम से पहले महिलाओं को गलत सांस्कृतिक विचारों और सामाजिक भेदभाव के जरिए कमजोरी और नीचता तक सीमित कर दिया गया था।
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एकमात्र धर्म जिसने महिलाओं को उनकी सच्ची गरिमा और मूल्य दिया
हौज़ा / इस्लाम से पहले अरब समाज में महिलाओं की स्थिति सभ्य और जंगली दोनों तरह के रवैयों का मिश्रण थी। महिलाएं आमतौर पर अपने अधिकारों और सामाजिक मामलों में स्वतंत्र नहीं थीं, लेकिन कुछ ताकतवर परिवारों की लड़कियों को शादी के मामले में चुनाव का अधिकार मिल जाता था। महिलाओं पर होने वाली वंचना और अत्याचार का कारण पुरुषों की हुकूमत और दबदबा था, महिलाओं की इज्जत या असली सम्मान नहीं।
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धर्म के प्रति गहरी समझ अल्लाह की ओर से भलाई का प्रतीक है, डॉ. सय्यदा तस्नीम मूसावी
हौज़ा / जामिआ अल-मुस्तफ़ा कराची में डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने दरस-ए-अख़लाक़ में “रूहानी बीमारी की पहचान और इलाज” के विषय पर भाषण दिया। उन्होंने इस्लामी हदीस— पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम— की रोशनी में रूहानी बीमारियों के आत्मिक सुधार के अमली (व्यावहारिक) तरीके विस्तार से बताये।
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अरब समाज मे महिलाएँ सामाजिक अधिकारो से क्यो महरूम थी?
हौज़ा / इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।
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पुत्रि को अपमान और अवैध बेटे को सम्मान
हौज़ा/ इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।
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प्राचीन ग्रीस और रोम में महिलाओं की लाचारी और उत्पीड़न की कहानी
हौज़ा / रोम और ग्रीस के पुराने समाजों में औरतों को मा तहत, बे‑इख़्तियार और अमूल्य प्राणी समझा जाता था। उनकी ज़िंदगी के तमाम मामलात चाहे इरादा हो, शादी, तलाक़ या माल‑ओ‑जायदाद सब मर्दों के इख़्तियार में थे। अगर औरत कोई नेकी करती तो उसका फ़ायदा मर्दों को मिलता, लेकिन अगर कोई ग़लती करती तो सज़ा खुद उसे भुगतनी पड़ती। परिवार और नस्ल की बक़ा सिर्फ़ बेटों से वाबस्ता समझी जाती थी।
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हमारे बच्चे नसीहत नही, अमली नमूना देखना चाहते है
हौज़ा/ बच्चे “देख कर” सीखते हैं, “नसीहत सुन कर” नहीं। माता-पिता का अमल, ख़ास तौर पर माँ का, बच्चे के लिए एक स्थायी नमूना होता है।परवरिश में सब्र, लगातार ध्यान और माँ की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी होती है। परिवार और समाज का माहौल सेहतमंद और अच्छा नमूना पेश करने वाला होना चाहिए ताकि बच्चे सही और नेकव्यवहारों से सीख सकें।
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महिलाएं: परिवार की ताबेअ, सदस्य नहीं
हौज़ा / प्राचीन रोम में, महिलाओं को परिवार का वास्तविक सदस्य नहीं माना जाता था; परिवार केवल पुरुषों से बना होता था, और महिलाओं को उनकी प्रजा माना जाता था। रिश्तेदारी और उत्तराधिकार केवल पुरुषों के बीच ही मान्य थे, और पति-पत्नी या पिता-पुत्री के बीच किसी औपचारिक पारिवारिक संबंध को भी मान्यता नहीं दी जाती थी। इसी कारण, महरम संबंधों के बीच विवाह को कभी-कभी जायज़ माना जाता था।
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प्राचीन ईरान, चीन, मिस्र और भारत में महिलाओं का जीवन
हौज़ा / प्राचीन भारत में औरतों को मासिक धर्म के दौरान नजिस और पलीद समझा जाता था, और उनके जिस्म या उनके इस्तेमाल की हुई चीज़ों को छूना भी नजिस होने का बाइस माना जाता था। उस ज़माने में औरत को न मुकम्मल इंसान समझा जाता था और न ही महज़ हैवान, बल्कि उसे एक ऐसी मख़लूक़ तसव्वुर किया जाता था जो दोनों के दरमियान है — बे-हक़, दूसरों पर मुनहसिर, और हमेशा मर्दों की सरपरस्ती व निगरानी में रहती थी, जिसे ज़िंदगी के किसी भी मरहले पर ख़ुदमुख्तियारी हासिल नहीं थी।
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पारिवारिक शिक्षा और प्रशिक्षण | बच्चों के रात्रि भय का उपचार, दो सुनहरे नियम
हौज़ा / अगर आपका बच्चा अकेले सोने से डरता है तो वालिदैन, ख़ास तौर पर माँ को चाहिए कि अपने पुरसुकून रवैये और एतिमाद बख़्श मौजूदगी से उसे सुरक्षा का एहसास दें। और दिन के वक़्त खेल और गतिविधियों के ज़रिए उसकी ऊर्जा को ख़र्च होने में मदद करें, ताकि उसके रात के डर कम हों और वह सुकून से सो सके।
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अज्ञानी और आदिवासी राष्ट्रो में महिलाओं का दर्दनाक जीवन
हौज़ा / पसमांदा क़ौमों में औरत को न कोई हक़ हासिल था और न ही ज़िंदगी में कोई इख़्तियार। उसे मर्द के ताबे समझा जाता था, और बाप या शौहर को उस पर मुकम्मल इख़्तियार हासिल होता था। मर्द अपनी बीवी को बेच सकता था, किसी को तोहफ़े में दे सकता था, या यहाँ तक कि क़त्ल भी कर सकता था। औरतों पर अंधी आज्ञाकारिता लाज़िम थी, वे सख़्त तरीन कामों पर मजबूर की जाती थीं और बदसलूकी बर्दाश्त करती थीं। उनके साथ एक बेहिस कीमत चीज़ या व्यापार की वस्तु की तरह बर्ताव किया जाता था।
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अल्लामा तबातबाई की नज़र में महिलाओं के अपमान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
हौज़ा / इस्लामी क़ानून इंसानी तज़रबों पर आधारित नहीं हैं, बल्कि इंसान की असली भलाई (मस्लहत) और बुराइयों पर क़ायम हैं। इन क़ानूनों की अहमियत समझने के लिए ज़रूरी है कि हम पिछली और मौजूदा क़ौमों के हालात का जायज़ा लें, ताकि इस्लाम की बरतरी साफ़ तौर पर सामने आ जाए। इसी वजह से इस्लाम में औरत की पहचान, उसकी क़द्र व मर्तबा, हक़ूक़ और समाज में दर्जा समझना बहुत जरूरी है।
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हम अपने बच्चो को नेकी की तिलक़ीन और बुराई से किस प्रकार रोकें?
हौज़ा / यह बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि बच्चों की धार्मिक और नैतिक परवरिश की सबसे बुनियादी नींव “प्यार” है। माहिरों का कहना है कि माता-पिता अगर अपने बच्चों के साथ प्यार और आत्मीयता का रिश्ता बनाए रखें, तो वे उन्हें अच्छे आचरण और धार्मिक मूल्यों का पाबंद बना सकते हैं।
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नई इस्लामी सभ्यता के निर्माण में ईरानी महिलाओं की ऐतिहासिक भूमिका
हौज़ा / फ़िरदौसी यूनिवर्सिटी में इस्लामी इतिहास की अध्यापिका ने कहा कि ईरानी महिलाओं ने इस्लामी क्रांति से लेकर प्रतिरोध मोर्चे तक नई इस्लामी सभ्यता के निर्माण में बेजोड़ भूमिका निभाई है।
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महिलाओं के उचित स्थान की पहचान नेक पीढ़ी के निर्माण और इस्लामी समाज के विकास का मूलभूत…
हौज़ा / मदरसा ए इल्मिया रेहानतुर रसूल (स) तेहरान मे सांस्कृतिक प्रोग्राम "गौहर शाद" का आयोजन किया गया।
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हज़रत ज़ैनब कुबार का किरदार इंसानियत के लिए मशअल ए राह, सुश्री फ़िज़्ज़ा अज़ीज़ा
हौज़ा / बसीज फातिमिया अजुमन-ए-साहिबुज़-ज़मान के तहत विलादत-ए-बासआदत-ए-हज़रत ज़ैनब सल्लल्लाहु अलेहिया और यौम-ए-नर्स के मौके पर तयसूरो, राज्य अलिय (सतान-ए-आलिया) में एक गरिमामय सभा का आयोजन किया गया, जिसमें महिलाओं ने भरपूर हिस्सा लिया।
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दुश्मन की नजर इस्लामी महिलाओं और परिवार पर है।
हौज़ा / अगर इस्लाम की संस्कृति को सही तरीके से लोगों के सामने रखा जाए तो वे उसकी ओर आकर्षित होंगे और फिर ताकतवरों के आगे नहीं झुकेंगे। इसलिए दुश्मनों ने कई योजनाएं बनाई हैं। इस लड़ाई की अगुवाई हमारी महिला छात्राएं करती हैं, जिन्हें शिक्षकों और आयोजकों की मदद से सही मार्गदर्शन देना चाहिए।
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तालीम और परवरिश इंसान के अंदर छुपे हुए अल्लाह के हुनर को उजागर करने का रास्ता हैः…
हौज़ा / फातमीया स्कूल ऑफ़ इस्लामी स्टडीज, अशकजेर में छात्रों के लिए एक तालीमी बैठक हुई।जिममें रहिमी जो धार्मिक जानकार और सांस्कृतिक एक्टिविस्ट हैं तालीम के मतलब और मकसद पर बात की।