गुरुवार 12 जून 2025 - 06:25
तशय्यो अमीरुल मोमेनीन (अ) से पहले वुजूद में था या उनके बाद?

हौज़ा / शिया मत एक ऐसी विचारधारा है जो क़ुरआन के नुज़ूल के समय और पैग़म्बर मोहम्मद (स) द्वारा स्थापित की गई थी। दिलचस्प बात यह है कि पैग़म्बर खुद इस मत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस पर विश्वास किया और इसे फैलाया। उनके बाद, हज़रत फातिमा (स), इमाम अली (अ) और बाकी अहले बैत (अ) ने इस मत को जारी रखा और बाद में कुछ लोग जिन्हें "शिया" कहा गया, इस मत के अनुयायी बने।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, आयतुल्लाह जवादी आमोली ने दर्स ए अखलाक़ मे "इस्लाम के इतिहास में शिया मत की जगह" के विषय पर चर्चा की, जो आपके लिए प्रस्तुत की जाती है।

"शिया मत" ऐसा कोई नई विचारधारा नहीं है जो अमीरुल मोमिनीन अली इब्न अबी तालिब (अ) के बाद बनी हो, बल्कि यह एक सच्चाई है जो उनके आने से पहले और पैग़म्बर मोहम्मद (स) के मिशन के समय से ही मौजूद है।

यहाँ एक अहम सवाल है कि क्या "शिया मत" एक विचारधारा के रूप में अमीरुल मोमिनीन (अ) के बाद बनी या पहले से मौजूद थी?

इसका जवाब यह है कि हमें दो बातों को समझना होगा: एक "शिया मत" (मक़्तब-ए-शिया) और दूसरी "शिया समूह"।

"शिया मत" क़ुरआन के अवतरण के समय ही अस्तित्व में आया था, और इस मत पर सबसे पहले विश्वास करने वाले, इसे फैलाने और समर्थन करने वाले खुद पैग़म्बर मोहम्मद (स) थे।

उनके बाद, सिद्दीक़ा ए ताहिरा (हज़रत फातिमा स), अमीरुल मोमिनीन अली (अ) और बाकी अहले-बैत (अ) इस मत के अनुयायी और प्रचारक थे।

फिर बाद में, कुछ लोग "शिया" के नाम से जाने जाने लगे; यानी वे लोग जो अमीरुल मोमिनीन अली (अ) का पालन करते थे। लेकिन हमें "शिया" को एक सामाजिक समूह के रूप में और "शिया मत" को एक धार्मिक विचारधारा के रूप में अलग-अलग समझना चाहिए।

शिया मत इस सिद्धांत पर आधारित है कि "ख़ुदा का वली" और "पैगंबर का उत्तराधिकारी" एक पूर्ण इंसान और मासूम होना चाहिए।

यह मत केवल अली इब्न अबी तालिब (अ) और उनके मासूम बच्चों को ही खलीफ़त की पदवी के योग्य मानता है, क्योंकि वे ही पूरी तरह से मासूम और पैगंबर की मिशन की निरंतरता में इंसान ए कामिल हैं।

इसलिए, शिया मत केवल अहले-बैत से लगाव या प्रेम नहीं है, बल्कि यह एक ज्ञानात्मक और धार्मिक प्रणाली है जो इमामत की जगह को पैगंबर की नबूवत के बराबर और उसकी निरंतरता मानती है।

पैग़म्बर मोहम्मद (स) सबसे पहले वही ए इलाही पर विश्वास करने वाले थे और उन्होंने उस मिशन पर पूरा भरोसा किया जो उन पर था।

इसी तरह, अमीरुल मोमिनीन अली (अ) भी सबसे पहले अपनी विलायत पर विश्वास करने वाले थे और अपने मक़ामे इलाही की सच्चाई पर पूरा यकीन रखते थे।

यह आंतरिक विश्वास और ईमान शिया मत का सबसे महत्वपूर्ण आधार है।

इसलिए, शिया मत के असली संस्थापक और सबसे पहले इस मत पर विश्वास करने वाले व्यक्ति खुद पैग़म्बर मोहम्मद (स) हैं, और उनके बाद, अहले-बैत (अ) इस मत के असली वाहक और व्याख्याता हैं।

इसी कारण, जो कोई भी अमीरुल मोमिनीन अली (अ) की विलायत को स्वीकार नहीं करता और उन्हें खुदा की ओर से नियुक्त खलीफ़ा नहीं मानता, वह असल में पैग़म्बर की नबूवत पर भी विश्वास नहीं करता। क्योंकि शिया मत में इमामत, वही और पैगंबर की नबूवत की निरंतरता है और यह ईमान ए कामिल का एक जरूरी हिस्सा है।

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