हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, हज़रत इमाम महदी मौऊद (अजल्लल्लाह तआला फराजहुस्शरीफ़) से मंक़ूल एक मुबारक रिवायत में फ़रमाया गया है:
وَ فی إبنةِ رسولِ اللّهِ صلّی اللّه علیه و آله لی أُسوةٌ حسنة — वफ़ी इब्नते रसूलिल्लाहे सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि ली उस्वतुन हसना
रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) की बेटी (हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ.) मेरे लिए बेहतरीन नमूना और मुकम्मल उस्वा हैं।
यह रिवायत शैख़ तूसी (र) की किताब अल-ग़ैबत में नक़्ल हुई है। वहाँ बयान है कि इब्ने अबी ग़ानिम क़ज़विनी ने इमाम हसन असकरी (अ.स.) की शहादत के बाद इमामत के मसले पर इख़्तिलाफ़ किया। कुछ शियाओं ने इस इख़्तिलाफ़ की सूचना इमामे ज़माना (अ) को ख़त के ज़रिए दी। इमाम (अ) ने जवाब में शियान-ए-हक़ के लिए दुआ फ़रमाई और कुछ अहम नुक्तात बयान किए, जिनमें उन्होंने कहा: “फ़ातिमा ज़हरा स.अ. रसूले ख़ुदा की बेटी, मेरे लिए बेहतरीन नमूना हैं।”
इमामे ज़माना (अ) के लिए हज़रत ज़हरा (स) की सीरत बतौर नमूना
मोहक़्क़िक़ीन ने बयान किया है कि इमाम (अ) ने हज़रत ज़हरा (स) की सीरत-ए-मुबारका से तीन पहलुओं को अपना नमूना बनाया:
-
ज़ालिम से बैअत से इंकार:
हज़रत ज़हरा (स) ने अपनी पूरी ज़िंदगी में किसी ज़ालिम हाकिम से बैअत नहीं की।
इसी तरह इमाम महदी (अ) भी किसी जाबिर या सितमगर की बैअत अपने ज़िम्मे नहीं रखते। -
ज़ाहिरी असबाब से परहेज़:
कुछ शिया उस वक़्त इमाम की हक़ीक़त को लेकर शक में थे। इमाम (अ) ने फ़रमाया: “अगर इजाज़त होती तो मैं हक़ को तुम्हारे सामने वाज़ेह कर देता, मगर मैं हज़रत ज़हरा (स.) की सन्नत पर अमल कर रहा हूँ। जैसे उन्होंने, बावजूद अपने हक़ के ग़सब होने के, कोई ग़ैर-मामूली तरीक़ा नहीं अपनाया, वैसे ही मैं भी अपने हक़ के लिए असामान्य रास्ता नहीं अपनाता।” -
उम्मत पर शफ़कत और सब्र:
इमाम (अज.) फ़रमाते हैं: “अगर हमारी मोहब्बत और रहमत तुम पर न होती, तो तुम्हारे इनकार और तज़र्य (जुल्म) की वजह से हम तुमसे किनारा कर लेते।”
यहाँ इमाम (अज.) हज़रत ज़हरा (स.) की उसी रहमत और दरद-मंदी का ज़िक्र करते हैं कि उन्होंने ज़ुल्म और सख़्ती के बावजूद उम्मत के लिए दुआ की।
फ़ातिमा (स) वलीए ख़ुदा की अकेली मददगार
जैसे बनी इस्राईल ने हज़रत मूसा (अ) को अकेला छोड़ दिया, वैसे ही उम्मत ने हज़रत अली (अ) को तनहा कर दिया। उस वक़्त सिर्फ़ फ़ातिमा ज़हरा (स) थीं जो अली के साथ खड़ी रहीं।
अली (अ) ने कहा: “ऐ परवरदिगार! मेरे पास फ़ातिमा के सिवा कोई मददगार नहीं।”
और फ़ातिमा (स) ने गवाही दी कि वह उस उम्मत से बेज़ार हैं जिसने अपने इमाम को तनहा छोड़ दिया।
यही वक़्त था जब ग़ैबत और हैरानी का दौर शुरू हुआ उम्मत सरगर्दां हो गई।
अब नजात का रास्ता सिर्फ़ एक है: फ़ातिमिया के पैग़ाम को समझना और हज्जते ख़ुदा की मदद में लब्बैक कहना।
हक़ की पहचान का रास्ता फ़ातिमा (स)
इतिहास बताता है कि जिन्होंने फ़ातिमा (स) को पहचाना उन्होंने हक़ पा लिया।
आज भी जो फ़ातिमा (स) से जुड़े हैं, वे इमामे ज़माना (अ) से ग़ाफ़िल नहीं।
अगर हम चाहते हैं कि असली मुन्तज़िर (इंतज़ार करने वाले) बनें, तो हमें एहसासे हुज़ूर पैदा करना होगा यानी फ़ातिमा (स) के ज़िक्र से दिल को रौशन करना, मोहब्बते फ़ातिमा से गुनाहों से बचना और उनकी खुशी के लिए इनफ़ाक़ (दान) करना।
یا فاطر بحق فاطمة عجل لولیک الفرج — या फ़ातेरो बेहक़्क़े फ़ातेमा अज्जिल लेवलीयेकल फ़रज “ऐ ख़ालिक़, फ़ातिमा के हक़ का वास्ता, अपने वली के आने में जल्दी कर!”
हज़रत ज़हरा (स) विलायत के दिफ़ा की मुकम्मल मिसाल
हज़रत ज़हरा (स) वह अमली नमूना हैं जिनकी सीरत में दुआ-ए अहद के आठ ओसाफ़ नज़र आते हैं:
اللّهمّ اجعلنی من انصاره و اعوانه، الذابین، الممتثلین، المسارعین، المحامین، السابقین و المستشهدین अल्लाहुम्मज अलनी मिन अंसारेहि व आवानेहि, अज़्ज़ाब्बीना, अल मुमतसेलीना, अल मुसारेईना, अल मुजाहेदीना, अस साबेक़ीना वल मुस्तशहेदीना
उन्होंने सिर्फ़ ज़बानी मोहब्बत का दावा नहीं किया, बल्कि अपने इमाम के दिफ़ा में जान और जिस्म दोनों कुर्बान कर दिए।
फ़ातिमिया हमें सिखाता है कि अगर इमामे ज़माना के दिफ़ा में ज़ख़्म भी खाने पड़ें, तो हाथ टूटें मगर वफ़ा न टूटे।
अज़ादार-ए-फ़ातिमा (स) की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी
अहले फ़ातिमिया का अहम फ़र्ज़ है दुआ बराए ज़ुहूर।
क्योंकि इमामे ज़माना (अ) का सबसे बड़ा दर्द यही है यानी ज़ुहूर का वक़्त।
हज़रत ज़हरा (स.) के बारे में दुआ में आता है: «المجهولة قدرها و المخفیة قبرها» — “जिनकी क़दर भी अंजान और जिनकी क़ब्र भी मुख़्फ़ी (छिपी) है।”
ज़ुहूर की बरकत से ही हज़रत की हक़ीक़त दुनिया पर ज़ाहिर होगी।
फ़ातिमिया का रिज़्क
अय्याम ए फ़ातिमिया में हमारा सबसे बड़ा रिज़्क़ है मजलिसों में शिरकत, हदिसे कस्सा की तिलावत, और ख़ुत्बाए फ़दकिया की मारफ़त।
इमाम सादिक (अ) फ़रमाते हैं: “हम अपने बच्चों को हुक्म देते हैं कि वे अपनी माँ का ख़ुत्बा याद करें।”
जिसने ख़ुत्बाए फ़ातिमा (स) से गफ़लत की, उस पर वही वंचना तारी होती है जो मदीना वालों पर हुई यानी हज्जते ख़ुदा की ग़ुरबत (अकेलापन)।
दरस-ए-फ़ातिमिया दिफ़ाए इमाम ता शहादत
जब ज़ुल्म और मुसिबत की दुनिया घेर ले, तो फ़ातिमा (स) की तरह पुकारो: “या मेहदी!”
मादरे ज़हरा (स) ने सिखाया कि दिफ़ाए इमाम के लिए ज़ख़्म, ताज़ियाने और मुसिबतें भी कुबूल करो।
उन्होंने कहा: “मुझे मारो, मगर मेरे इमाम को न मारो।”
फ़ातिमा (स) की यही वफ़ा दीन का निचोड़ है।
असली मुन्तज़िर वही है जो फ़ातिमा (स.) से वफ़ा सीखे।
फ़ातिमा (स) नबूवत और विलायत का मरकज़
इमाम सादिक (अ) फ़रमाते हैं: «ما تکاملت النبوة لنبی حتی اقر بفضلها و معرفتها» —
“किसी नबी की नबूवत मुकम्मल नहीं हुई, जब तक उसने फ़ातिमा (स) के फ़ज़्ल (महानता) और मा’रिफ़त का इकरार न किया।”
यानी मा’रिफ़ते फ़ातिमा ही तक़ामुले नबूवत का राज़ है।
अहले बैत (अ) जब भी मुश्किल में होते थे, कहते थे: “या फ़ातिमा!”
क्योंकि हर दुआ और हर हाजत की चाबी नामे फ़ातिमा (स) में पोशीदा है।
पैग़ाम-ए-आख़िर
फ़ातिमिया सिर्फ़ ग़म का मौसम नहीं, बल्कि इमामे ज़माना (अ) की नुसरत और ज़ुहूर की तैयारी का ज़माना है।
जो फ़ातिमा (स) से ग़ाफ़िल है, वह इमाम (अ) से भी ग़ाफ़िल है।
और जो फ़ातिमा (स) के ज़िक्र से जुड़ा है, वह इमामे हक़ की हज़ूरी में है चाहे ज़ाहिरी तौर पर दूर क्यों न हो।
फ़ातिमिया यानी उस हज्जते ख़ुदा को “लब्बैक” कहना जो हर दिल में पुकार रहा है —
هل من ناصرٍ ينصرنی
(“क्या कोई मददगार है जो मेरी मदद करे?”)
स्रोत:
- अल-ग़ैबत – शैख़ तूसी, स. 28
- एह्तेजाज, जिल्द 2, स. 279
- बिहारुल अनवार, जिल्द 53, स. 180
- वीकी शिया
- किताब: दीन शनासी अज़ दीदगाहे हज़रत महदी (अ) — अली असगर रिज़वानी
- वेबसाइट: मस्जिद मुक़द्दस जमकरान
- हौज़ा न्यूज पोर्टल
आपकी टिप्पणी