मंगलवार 18 नवंबर 2025 - 10:24
हज़रत फ़ातिमा (स) का संदेश | ख़ुत्बा ए फ़दक में इस्लामी उम्मत के प्रारंभिक विचलनों का विवरण

हौज़ा / हज़रत फातिमा (सला मुल्ला अलैहा) ने खुत्बा ए फ़दक में इस्लामी उम्मत के शुरुआती विचलन को बड़ी स्पष्टता से बयान किया है। आपने फरमाया कि अभी रसूल-ए-खुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) की तदफ़ीन भी पूरी नहीं हुई थी कि कुछ लोगों ने "फित्ने के डर" का बहाना बनाकर ऐसा कदम उठाया जिसने उम्मत को तफ़रक़े में डाल दिया।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, अय्याम-ए-फातिमिया के मौके पर आयतुल्लाह मिस्बाह यज़दी (र) के बयानों से चुनी गई इस व्याख्या में खुत्बा ए फ़दक के इस महत्वपूर्ण हिस्से की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है।

हज़रत ज़हरा (सला मुल्लाहे अलैहा) ने फरमाया: "अभी रसूल-ए-खुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) का पाक जिस्म ज़मीन में दफन भी नहीं हुआ था कि तुम लोगों ने जल्दबाज़ी में ऐसे कदम उठा लिए।"

फिर आपने उनके इस काम की वजह उन्हीं के शब्दों में सुनाई: "इबतदारन ज़अमतम ख़ौफ-उल-फ़ित्ना", यानी तुमने ये गुमां किया और ऐसा हाल पैदा किया कि जैसे मुसलमानों में फित्ने का डर हो इसलिए यह कदम उठाना जरूरी था।

वे कहते थे कि रसूल-ए-खुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) की रूहानी विदाई के बाद उम्मत में फसाद पैदा हो सकता है, इसलिए जल्दी से खलीफ़ा चुन लेना चाहिए ताकि फित्ना रोका जा सके। मगर हज़रत ज़हरा ने उनके इस बहाने का कुरान से जवाब दिया: "अला फ़िल-फ़ित्ना सक्तू", यानी "जान लो! ये लोग खुद फित्ने में पड़ गए।"

कुरान मजीद मुनाफ़िकीन के बारे में भी बताता है कि वे फित्ने के डर का बहाना बनाकर कार्रवाई करते थे, पर सच यह था कि वे खुद फित्ने थे। हज़रत ज़हरा ने इसी कुरानी तर्क से उन्हें आगाह किया कि तुम जो "फित्ने से बचाव" कहते हो, असल में वही असली फित्ना है।

मुसलमानों को एकजुट रखने के नाम पर जो जल्दबाज़ी और पहल की गई, वही उम्मत में फसाद और फ़िरक़ की शुरुआत बनी। इसलिए हज़रत ने इसके बाद कुरान मजीद का यह हिस्सा भी सुनाया: "वा इन्ना जहन्नम लुमहीटा बिल-िकाफ़िरिन", यानी "जल्द ही जहन्नम काफ़िरों को घेर लेगी।"

जो लोग हक़ को छोड़कर बुत्ल की राह पर चलते हैं और सच्चाई को दबाकर फित्ने की नींव रखते हैं, वे असल में इसी अंजाम की ओर बढ़ रहे होते हैं।

आख़िर में मलहूम आयतुल्लाह मिस्बाह (रह.) इस बात की तरफ ध्यान देते हैं कि अगर हम उस वक्त के अंसार या मुहाजिरों में होते और मस्जिद में ये हालात देखते, तो हमारा क्या रुख होता?

क्या हम हक़ के साथ खड़े होते या "उम्मत की मसलहत" के नाम पर उस जल्दबाज़ समूह की पैरवी करते जो खुद फित्ने में गिर चुका था?

अय्याम-ए-फातिमिया का पैगाम यही है कि हर दौर में हक़ की पहचान और बुत्ल से अलग पहचान एक तात्कालिक और गंभीर परीक्षा होती है, और फातिमी मियार भी यही है कि जब हक़ कुर्बानी मांगे तो कुर्बानी दी जाए, मगर बातिल का साथ न दिया जाए।

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