लेखकः सय्यद साजिद मुहम्मद रज़वी
हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, जब किसी राज्य का मुख्यमंत्री, जो खुद को संविधान, लोकतंत्र और सबके सम्मान का चैंपियन कहता है, सरेआम एक महिला डॉक्टर के चेहरे से नकाब हटाता है, तो यह सिर्फ़ एक इंसान की बदतमीज़ी नहीं रहती, यह सत्ता के नशे में चूर नैतिक दिवालियापन बन जाता है। सवाल यह नहीं है कि घटना हुई या नहीं, सवाल यह है कि इस पर चुप्पी क्यों है?
हैरानी इस बात की है कि जो बड़े-बड़े धार्मिक जानकार दिन-रात संस्कार, शिष्टाचार और नारी सम्मान की बातें करते नहीं थकते, वे आज इस मुद्दे पर चुप क्यों बैठे हैं? जो नेता हर मंच पर "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" के नारे लगाते हैं, जो खुद को औरतों का रक्षक बताते हैं, उनकी ज़बान को अब तक क्या हो गया है?
अगर यह काम किसी आम आदमी ने किया होता, तो क्या इतनी चुप्पी होती?
अगर नकाब किसी ताकतवर इंसान की बेटी का होता, तो क्या यह रिएक्शन होता?
यह घटना एक मुस्लिम औरत की है, शायद इसीलिए ज़मीर की आँखें बंद हैं। शायद इसीलिए धार्मिक आज़ादी, औरतों की इज़्ज़त और पर्सनल चॉइस जैसे शब्द अचानक डिक्शनरी से गायब हो गए हैं। ये वही लोग हैं जो छोटी-छोटी बातों पर पूरे देश में हंगामा मचा देते हैं, लेकिन यहाँ, जहाँ पावर ने औरतों की इज़्ज़त पर हाथ डाला है, वहाँ सबने फ़ायदे का चोला ओढ़ लिया है।
याद रखना!
चुप्पी हमेशा न्यूट्रल नहीं होती,
चुप्पी अक्सर ज़ुल्म करने वाले के साथ खड़ी होती है।
अगर आज एक महिला डॉक्टर की इज़्ज़त पर हमला होता है और समाज चुप रहता है, तो कल यह दायरा और बढ़ेगा। अगर इज़्ज़त की रक्षा धर्म करता है, और ज़ुल्म को पद से माफ़ करता है, तो इंसाफ़ सिर्फ़ एक नारा बनकर रह जाता है।
क्या औरतों की इज़्ज़त सिर्फ़ नारों के लिए है?
या हर औरत सच में इज़्ज़त की हक़दार है, चाहे उसका पहनावा कुछ भी हो, धर्म कुछ भी हो?
आज जो लोग नहीं बोलेंगे, इतिहास उनसे ज़रूर सवाल करेगा।
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