हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, बहरैन की सरकार ने लगातार 34वें हफ़्ते भी दराज़ क्षेत्र में नमाज़-ए-जुमा अदा करने पर पाबंदी बरक़रार रखी, जहां देश की सबसे बड़ी जुमे की नमाज़ मस्जिद इमाम सादिक़ अ.स.में अदा की जाती है।
ताज़ा जानकारी के अनुसार, 30 मई (जुमा) की सुबह, आले ख़लीफ़ा हुकूमत के सिक्योरिटी अहलकारों ने दराज़ शहर का घेराव कर लिया और लोगों को मस्जिद इमाम सादिक़ (अ.स.) की ओर जाने से रोक दिया। सिर्फ़ कुछ लोगों को अलग-अलग (इंडिविजुअली) नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दी गई, जबकि बड़ी तादाद में सिक्योरिटी फोर्सेज़ और हथियारबंद जवान इलाके में सैन्य गाड़ियों के साथ तैनात रहे और किसी भी सामूहिक नमाज़ को सख़्ती से रोक दिया गया।
यह पाबंदी 4 अक्टूबर 2024 से शुरू हुई थी, जब जनता ने शहीद सैयद हसन नस्रुल्लाह की याद में एक प्रोग्राम करने की मांग की थी और लेबनान, फिलस्तीन और यमन में इस्लामी मुक़ावमत (प्रतिरोध) की हिमायत में नारे लगाए थे। इसके अलावा, लोगों ने इस्राईल से रिश्ते खत्म करने और ज़ायोनी (सियोनी) सफ़ीर को देश से निकालने की मांग की थी। इन घटनाओं के बाद सरकार ने जुमे की नमाज़ पर रोक लगा दी।
यह बात भी काबिले ज़िक्र है कि इससे पहले भी आले ख़लीफ़ा हुकूमत ने जुलाई 2016 से मई 2022 तक लगातार 6 सालों तक दराज़ में जुमे की नमाज़ पर पाबंदी लगाए रखी थी।
इस ताज़ा कार्रवाई को बहरैन में मज़हबी आज़ादी और बुनियादी नागरिक हुक़ूक़ के खिलाफ़ हुकूमती सियासत का सिलसिला बताया जा रहा है। दुनिया भर की इंसानी हुक़ूक़ संस्थाएं और धार्मिक इदारे इस पर शदीद तनक़ीद कर रहे हैं।
बहरैन में धार्मिक आज़ादी पर यह लगातार पाबंदी न सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के खिलाफ़ है, बल्कि यह वहां के धार्मिक बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक पहचान और आवाज़ को दबाने की एक साज़िश भी मानी जा रही है।
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