हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , हौज़ा ए इल्मिया के प्रमुख आयतुल्लाह अली रज़ा अराफी ने कहा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी दार्शनिक और नैतिक आधारों के बिना न तो विकसित हो सकते हैं और न ही विकास की गारंटी बन सकते हैं। हर वैज्ञानिक प्रक्रिया किसी न किसी बौद्धिक और नैतिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होती है, इसलिए मानविकी को इन आधारों से अलग करना वास्तविकता के विरुद्ध है।
आयतुल्लाह आराफ़ी ने कहा कि इस्लामी मानविकी,गाम-ए-दोवोम-ए-इंक़िलाब के शीर्षक से, सर्वोच्च नेता के संबोधन का आधार और उसकी आत्मा हैं, और विज्ञान, दर्शन और नैतिकता एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। उन्होंने कुछ बुद्धिजीवियों के इस मत पर आश्चर्य व्यक्त किया कि इस्लामी मानविकी का कोई अस्तित्व नहीं है, जबकि इस क्षेत्र में अनेक वैज्ञानिक सिद्धांत पेश किए जा चुके हैं।
आयतुल्लाह आराफ़ी ने राष्ट्रीय सम्मेलन बयान-ए-गाम-ए-दोवोम-ए-इंक़ेलाब के क्षितिज में इस्लामी मानविकी" के समापन समारोह में क़ुम विश्वविद्यालय में संबोधित करते हुए ज्ञान और शोध के महत्व पर बल दिया। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च नेता क्रांति की ओर से बयान-ए-गाम-ए-दोवोम" में पहली और बुनियादी सिफारिश ज्ञान और शोध है, क्योंकि ज्ञान ही किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा, शक्ति और स्वायत्तता का वास्तविक साधन बनता है।
आयतुल्लाह आराफ़ी ने पश्चिमी सभ्यता का हवाला देते हुए कहा कि यद्यपि पश्चिम ने ज्ञान के माध्यम से शक्ति, धन और प्रभाव प्राप्त किया, लेकिन नैतिक और बौद्धिक कमजोरियों के कारण इसका मॉडल मानवता की वास्तविक समृद्धि की गारंटी नहीं बन सका। उनके अनुसार, पश्चिमी विज्ञान भी किसी न किसी दार्शनिक आधार पर स्थापित है, हालाँकि पुनर्जागरण के बाद इसकी बौद्धिक नींव कमजोर हो गई।
उन्होंने स्पष्ट किया कि कोई भी विज्ञान या प्रौद्योगिकी दर्शन और नैतिकता से कटकर विकास नहीं कर सकती। यहाँ तक कि प्रयोगात्मक विज्ञान भी किसी न किसी बौद्धिक और नैतिक पृष्ठभूमि से प्रभाव ग्रहण करते हैं। इस्लामी मानविकी इसी वास्तविकता का नाम है कि ज्ञान को इस्लामी चिंतन, मूल्यों और मानव कल्याण के संदर्भ में विकसित किया जाए।
हौज़ा ए इल्मिया के प्रमुख ने जोर देकर कहा कि इस्लामी मानविकी केवल सैद्धांतिक विवादों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका संबंध समाजशास्त्र, राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, वास्तुकला, साहित्य और संस्कृति से भी है। उन्होंने शेख़ बहाई का उदाहरण देते हुए कहा कि इस्लामी विज्ञान और आधुनिक आवश्यकताओं का समन्वय ही एक जीवंत और प्रभावी सभ्यता की नींव बनता है।
आयतुल्लाह आराफ़ी ने हौज़ा और विश्वविद्यालय के पारस्परिक सहयोग को अनिवार्य बताते हुए कहा कि नए सभ्यता मॉडल का निर्माण इसी सहयोग से संभव है। उन्होंने फ़िक़्ह-ए-तर्बियत दर्शन-ए-तालीम (शिक्षा का दर्शन), दर्शन-ए-सियासत (राजनीति दर्शन) और समकालीन विज्ञानों के साथ सामंजस्य रखने वाली फ़िक़्ही और बौद्धिक प्रणाली की आवश्यकता पर भी बल दिया।
अंत में उन्होंने कहा कि इस्लामी मानविकी का विकास, "बयान गाम-ए-दोवोम-ए-इंक़िलाब" को व्यवहारिक रूप देने की कुंजी है और इस ज़िम्मेदारी को हौज़ा और विश्वविद्यालय को मिलकर निभाना होगा, ताकि इस्लामी सभ्यता के नए क्षितिज को रौशन किया जा सके।
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