۳ آذر ۱۴۰۳ |۲۱ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 23, 2024
रहबर

हौज़ा / इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान की धारा 110 ने निर्वाचित राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के फ़रीज़ों और अख़्तियार के दायरे में रखा है। ‘तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश का अनुमोदन, फ़िक़्ह की एक पुरानी व मशहूर शब्दावली है और इस्लामी इंक़ेलाब के बाद यह लफ़्ज़ मुल्क के क़ानूनी पाठ्यक्रम में शामिल हो गया है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान की धारा 110 ने निर्वाचित राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के फ़रीज़ों और अख़्तियार के दायरे में रखा है। ‘तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश का अनुमोदन, फ़िक़्ह की एक पुरानी व मशहूर शब्दावली है और इस्लामी इंक़ेलाब के बाद यह लफ़्ज़ मुल्क के क़ानूनी पाठ्यक्रम में शामिल हो गया है।

सबसे पहले ‘तन्फ़ीज़ʼ के क़ानूनी अर्थ और प्रवृत्ति की ओर इशारा किया जाएगा और फिर इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान के तहत इस सिलसिले में पाए जाने वाले सबसे अहम सवालों की समीक्षा की जाएगी। जैसे यह सवाल कि ‘तन्फ़ीज़ʼ की प्रक्रिया का एतबार कहाँ तक और किस तरह का है? क्या ‘तन्फ़ीज़ʼ सिर्फ़ एक औपचारिकता है या यह एक क़ानूनी प्रक्रिया है? ‘तन्फ़ीज़ʼ के क़ानूनी लेहाज़ से क्या असर हैं?

सबसे पहले ज़रूरी है कि उक्त सवालों में से आख़िरी सवाल का जवाब दिया जाए और वह यह है कि हर क़ानूनी सिस्टम अपने सामाजिक मूल्यों, परंपराओं और अनुभवों की बुनियाद पर कुछ उसूल व नियम बनाता है जो मुमकिन है कि दूसरे क़ानूनी सिस्टमों से अलग हों और ऐसा नहीं है कि सारे क़ानूनी सिस्टम समान और एक दूसरे से मिलते जुलते हों,

जिस तरह से कि कॉमन लॉ का क़ानूनी सिस्टम, रोमन और जर्मन क़ानूनी सिस्टम से अलग है और मुमकिन है कि हर क़ानूनी सिस्टम के सौ से ज़्यादा क़ानूनी सिस्टम हों। यहाँ तक कि इनमें से हर सिस्टम एक दूसरे से अलग है और किसी मुल्क में, जिसका एक क़ानूनी सिस्टम है।

मुमकिन है कि पचास क़ानूनी सिस्टम हों, इसलिए इस सिलसिले में हर मुल्क की कसौटी और कार्यशैली अलग हो। जो चीज़ क़ानूनी सिस्टमों के एक दूसरे से अलग होने का सबब बनती है वो उनकी बुनियादें हैं। बुनियाद वही चीज़ है जो क़ानूनी उसूल और नियमों के पालन को अनिवार्य बनाती है।

ईरान के इस्लामी गणराज्य सिस्टम में ‘तन्फ़ीज़ʼ के बारे में भी, इस बात के मद्देनज़र कि इस्लामी गणराज्य का क़ानूनी सिस्टम, दूसरे क़ानूनी सिस्टमों से अलग है और वह प्रायः इस्लामी बुनियादों पर और ख़ास तौर पर फ़िक़्ह की बुनियाद पर आधारित एक सिस्टम है और चूंकि राष्ट्रपति, कार्यपालिका के प्रमुख के ओहदे पर ऐसे फ़ैसले करता है और ऐसे काम करता जो ‘विलायत’ के कार्यक्षेत्र मे आते हैं,

इसलिए कार्यपालिका प्रमुख के पद से राष्ट्रपति के फ़ैसले या ऐक्शन, विलायत के ओहदे के सहायक के तौर पर होते हैं और उन्हें पहले से वलीए फ़क़ीह से हासिल इजाज़त या मुसलसल इजाज़त की ज़रूरत होती है और उसके बिना उनका कोई एतबार व हैसियत नहीं होगी। ‘तन्फ़ीज़ʼ के प्रोग्राम में जो कुछ होता है वह राष्ट्रपति को क़ानूनी तौर पर नियुक्ति के अलावा, जिसकी नज़ीर दूसरे मुल्कों में भी पायी जाती है, इस ओहदे को क़ानूनी हैसियत देना होता है।

तन्फ़ीज़ʼ का मक़सद

‘तन्फ़ीज़ʼ एक क़ानून और शरीअत के लेहाज़ से एक अहम अर्थ है जिसका मानी "अमान्य क़रार दिए जाने के क़ाबिल किसी क़ानूनी प्रक्रिया को मान्यता देना" है। दूसरे शब्दों में ‘तन्फ़ीज़ʼ या जनादेश को अनुमोदित करना ऐसी प्रक्रिया है जिसके नतीजे में एक शख़्स एक क़ानूनी प्रक्रिया को अमान्य नहीं करता।

अब सवाल यह है कि ‘तन्फ़ीज़ʼ का मक़सद क्या है और अवाम की ओर से राष्ट्रपति को चुने जाने के बाद इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की ओर से इसके अनुमोदन व पुष्टि की क्या ज़रूरत है? इस सवाल के जवाब में कहना चाहिए कि विलायते फ़क़ीह के नज़रिए के तहत, मासूम इमाम के ग़ैबत में होने के दौर में, आम लोगों की विलायत व नेतृत्व ऐसे फ़क़ीह (वरिष्ठ धर्मगुरू) के ज़िम्मे है जो न्याय का पालन करता हो और उसके अलावा किसी भी दूसरे की विलायत को सरकशी समझा जाता है।

इस नज़रिए की बुनियाद पर समाज के मामलों की लगाम उसके हाथ में है और सरकारी अधिकारियों को उसकी इजाज़त से ही क़ानूनी हैसियत हासिल होती है। दूसरी ओर समाज के संचालन के मामले भी, विलायते फ़क़ीह के कार्यक्षेत्र में आते हैं और इसी वजह से कार्यपालिका के प्रमुख को वलीए फ़क़ीह की ओर से नियुक्त किया जाना चाहिए या उसे वलीए फ़क़ीह की इजाज़त हासिल होनी चाहिए वरना उसके पास क़ानूनी हैसियत नहीं होगी।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने वलीए फ़क़ीह की ओर से राष्ट्रपति की नियुक्ति पर बारंबार बल दिया है। उन्होंने 4 अक्तूबर सन 1979 को विशेषज्ञ असेंबली के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए कहा थाः "अगर वलीए फ़क़ीह का अनुमोदन न हो फिर वह सरकश है। अगर ये काम अल्लाह के हुक्म से न हों, राष्ट्रपति, फ़क़ीह की ओर से नियुक्त न हो तो वह ग़ैर क़ानूनी है।

जब वह ग़ैर क़ानूनी हो गया तो वह सरकश है, उसका आज्ञापालन सरकश का आज्ञापालन है।" उन्होंने अपने ख़ेताब में विलायते फ़क़ीह की ख़ास अहमियत की ओर इशारा करते हुए कहा थाः "राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त वलीए फ़क़ीह के अधिकारों में से है और बिल्कुल साफ़ है कि अगर फ़र्ज़ करें कि यह बात साबित हो जाए कि अगर कोई शख़्स निगरानी करने वाले विभाग को धोखा देकर आख़िरी राउंड में पहुंचा हो वरिष्ठ नेतृत्व का ओहदा रखने वाला शख़्स चाहे तो उसके आदेशपत्र को अनुमोदित न करे, लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है बल्कि क़रीब क़रीब यह नामुमकिन है।"

राष्ट्रपति के आदेशपत्र के इंडोर्समेंट की दलीलें

1 संविधान की विशेषज्ञ असेंबली की तफ़सीली बहसः इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान की अंतिम समीक्षा करने वाली परिषद के कुछ सदस्यों की बातों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि वह वरिष्ठ नेता के दस्तख़त को क़ानूनी हैसियत देने वाला मानते थे। संविधान की धारा 110 के मसौदे की समीक्षा के ज़माने में संसद के सदस्य जनाब फ़ातेही कहते हैं कि मेरे लिए यह बात स्पष्ट नहीं थी कि राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त सिर्फ़ एक औपचारिकता है या अगर उस पर वरिष्ठ नेता के दस्तख़त न हुए तो क्या होगा?

उपसंसद सभापति आयतुल्लाह शहीद बहिश्ती उनके जवाब में कहते हैं: " नहीं जनाब! यह ‘तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश का अनुमोदन है। (राष्ट्रपति को मिले जनादेश की पुष्टि है) उससे पहले आयतुल्लाह मुंतज़ेरी ने भी सिस्टम के इस्लामी और गणराज्य होने के दरमियान पाए जाने वाले रिश्ते के बारे में कहा थाः "अगर एक राष्ट्रपति को पूरी क़ौम वोट दे दे लेकिन फ़क़ीह और मुज्तहिद उसके राष्ट्रपति होने को अनुमोदित न करे तो मेरे लिए उसके अनुमोदन की कोई गैरंटी नहीं है और उसकी हुकूमत ज़ुल्म करने वाली सरकारों में से होगी।"

2 राष्ट्रपति चुनाव का क़ानूनः राष्ट्रपति चुनाव के क़ानून में जो 26 जून 1985 को मंज़ूर हुआ, साफ़ शब्दों में राष्ट्रपति पद के आदेशपत्र पर दस्तख़त और अनुमोदन की बात कही गयी है। इस क़ानून के पहले अनुच्छेद में कहा गया हैः "इस्लामी गणराज्य ईरान के राष्ट्रपति पद की मुद्दत 4 साल है और वरिष्ठ नेतृत्व की ओर से उसके आदेशपत्र के अनुमोदन की तारीख़ से उसका आग़ाज़ होगा।" इस क़ानून की कई बार समीक्षा की गयी और इसमें सुधार भी किया गया है लेकिन सभी सुधार में उक्त बात बिना किसी बदलाव के बाक़ी रही है, इसलिए आम क़ानून निर्माता की नज़र से भी राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त ज़रूरी हैं।

क्या अनुमोदन सिर्फ़ एक औपचारिकता है?

वरिष्ठ नेता की ओर से राष्ट्रपति के आदेशपत्र के अनुमोदन के क़ानून का मतलब उसका एक औपचारिकता होना और दूसरे प्रोग्रामों में एक और प्रोग्राम का इज़ाफ़ा करना नहीं है।

इस क़ानून का मतलब यह है कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के दस्तख़त के बिना, राष्ट्रपति को क़ानूनी हैसियत हासिल नहीं होती और वह शरीअत के लेहाज़ से इस मैदान में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। हमारे धार्मिक अक़ीदे और फ़िक़्ह के बुनियादी नज़रिए भी और हमारा संविधान भी, जिसके लिए हम यही मानते हैं कि उसकी कोई भी धारा और अनुच्छेद मात्र औपचारिकता के लिए नहीं लिखी गयी है, इस बात की पुष्टि करता है। दस्तख़त का औपचारिकता होना एक सतही और ग़ैर इल्मी सोच है जिसे किसी भी स्थिति में संविधान में मद्देनज़र नहीं रखा गया है। इसलिए ये दस्तख़त, राष्ट्रपति के बुनियादी कामों के चरणों में से एक है।

अगर हम क़ानूनी लेहाज़ से भी बात करना चाहें तो चुनाव में अवाम की ओर से चुने गए राष्ट्रपति को, वरिष्ठ नेता की ओर से आदेशपत्र पर अनुमोदन और उसके बाद शपथ ग्रहण के प्रोग्राम से पहले राष्ट्रपति नहीं कह सकते क्योंकि राष्ट्रपति के काम अवाम के अधिकार और उसके फ़रीज़ों में हस्तक्षेप हैं और इसके लिए वलीए फ़क़ीह की इजाज़त की ज़रूरत है और उस इजाज़त पर संविधान में, राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के दस्तख़त के तहत ताकीद की गयी है।

तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश के अनुमोदन की मुद्दत और उसका जारी रहना

जैसा कि बयान किया गया, राष्ट्रपति को सिर्फ़ अपनी ज़िम्मेदारी शुरू करने या राष्ट्रपति के ओहदे पर काम शुरू करने के चरण में ही अपने फ़ैसलों और कामों के लिए क़ानूनी इजाज़त की ज़रूरत नहीं है बल्कि उसे अपनी ज़िम्मेदारी जारी रखने के लिए भी इस क़ानूनी इजाज़त की ज़रूरत है।

यानी ऐसा नहीं है कि अगर कोई बहुमत हासिल कर ले और वरिष्ठ नेता उसके आदेशपत्र पर दस्तख़त भी कर दें तो वह अगले चार साल तक राष्ट्रपति बना ही रहेगा, जी नहीं, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के दस्तख़त और उनकी ओर से पुष्टि राष्ट्रपति को निरंतर हासिल होनी चाहिए और जब भी इस्लामी इंक़ेलाब के नेता अपनी पुष्टि को वापस ले लें यानी अनुमोदन को वापस ले लें तो राष्ट्रपति अपना क़ानूनी ओहदा और फ़िक़्ह के लेहाज़ से दीनी हैसियत खो देगा।

इसी वजह से इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने अपने ज़माने के राष्ट्रपति के लिए जो आदेशपत्र जारी किए उनमें जनादेश के अनुमोदन के बाद साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि मेरी ओर से अनुमोदन सशर्त है और इस बात पर निर्भर है कि आप शरीअत के उसूलों की पाबंदी करें, सिस्टम के क़ानूनी उसूलों की पाबंदी करें और अगर एक जुमले में कहा जाए तो एक राष्ट्रपति होने की हालत को हाथ से जाने न दें।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने भी अपने नेतृत्व के दौरान राष्ट्रपति के जिस आदेशपत्र पर भी दस्तख़त किए उसमें इसी अंदाज़ पर क़ायम रहे हैं और उन्होंने अनुमोदन के लफ़्ज़ के साथ इस शर्त को भी लगाया है कि मेरी ओर से पुष्टि और अनुमोदन तब तक क़ायम है जब तक आप क़ानून और शरीअत के उसूलों की पाबंदी करेंगे।

इसलिए शरीअत की इजाज़त और राष्ट्रपति को नियुक्त किया जाना, सशर्त है और उसे स्थायी हैसियत हासिल नहीं है, इस मानी में कि यह आदेशपत्र और मुल्क के संचालन के मामलों में कंट्रोल की क़ानूनी इजाज़त सशर्त व सीमित है।

ख़ैरुल्लाह परवीन-तेहरान यूनिवर्सिटी की लॉ फ़ैकल्टी के प्रोफ़ेसर

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