हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, रईस-उल-उलमा अल्लामा सैयद काज़िम नक़वी सन 1975 ईसवी में लखनऊ के इल्मी घराने में पैदा हुए। आपका ताल्लुक़ ऐसे ख़ानदाने से है जो सदियों से इल्म-ओ-फज़्ल, दीनी ख़िदमात और मज़हबी क़ियादत के हवाले से मुमताज़ रहा है। आपके वालिद, मौलाना अबुल हसन नक़वी का शुमार अपने वक़्त के जईद उलमा में होता था।
आपने बचपन ही से अपने ख़ानदान के बुज़ुर्गों की इल्मी सोहबत में परवरिश पाई, घर का माहौल इल्म-ओ-अदब, फ़हम-ओ-फ़रासत और दीन की ख़ुशबू से मुअत्तर था। इसी रूह परवर फ़ज़ा में आपने इबतिदाई तालीम अपने भाई आयतुल्लाह अली सैयद अली नक़ी नक़वी की ज़ेरे निगरानी मुकम्मल की। यही वजह है कि आपकी इल्मी बुनियादें मज़बूती से इस्तिवार हो गईं।
आपने इबतिदाई तालीम के बाद मदरसा नाज़िमिया का रुख़ किया और आयतुल्लाह मुफ़्ती अहमद अली, मौलाना अय्यूब हुसैन सरसवी, मौलाना काज़िम हुसैन और मौलाना सैयद रसूल अहमद गोपालपुरी जैसे अकाबिर असातिज़ा से कस्ब-ए-फ़ैज़ किया। उनकी मेहनत और इल्मी शौक़ का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने "मुमताज़ुल-अफ़ाज़िल" की सनद हासिल की, जो उस वक़्त दीनी तालीम का एक आला एज़ाज़ समझा जाता था।
मदरसा नाज़िमिया की तालीम मुकम्मल करने के बाद अल्लामा काज़िम नक़वी ने मजीद इल्मी बुलंदियों को छूने का फ़ैसला करते हुए नजफ़ अशरफ़ (इराक़) का सफ़र इख़्तियार किया। आपने तक़रीबन बीस साल नजफ़ में आयतुल्लाह सैयद अबुलक़ासिम खुयी, आयतुल्लाह सैयद अली बहिश्ती, आयतुल्लाहुल उज़मा मोहम्मद तकी ख़्वानसारी और आयतुल्लाह सैयद मर्तज़ा ख़लख़ाली से कस्ब-ए-फ़ैज़ किया।
नजफ़ से वापसी के बाद हिंदुस्तान में मुख़्तलिफ़ इल्मी इदारों में तदरीसी ख़िदमात अंजाम दीं, जिनमें सबसे नमायां अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी है। यहां वह शुबे-ए-दीनियात से वाबस्ता रहे और नाज़िम, सदर-ए-शोबा और फिर डीन फ़ैकल्टी ऑफ़ थियोलॉजी जैसे अहम मुनासिब पर फ़ाइज़ हुए। इन ओहदों पर रहते हुए सैंकड़ों शागिर्दों की तरबियत की। उनके शागिर्दों में कई अहम इल्मी और समाजी शख़्सियात शामिल हैं, जिनमें से ख़ज़ीर मूसा जाफ़र, जो बाद में इराक़ के नायब सदर बने, प्रोफ़ेसर लतीफ़ हुसैन शाह काज़मी (शोबा फलसफ़ा, एएमयू), डॉक्टर नसीम ज़हरा, प्रोफ़ेसर फ़रमान हुसैन (साबिक़ डीन शोबा-ए-दीनियात) के नाम ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
इल्मी और तदरीसी मस्रूफ़ियात के साथ-साथ आपने तब्लीग़-ए-दीन का फ़र्ज़ भी निहायत इख़्लास से अंजाम दिया। वह जामे मस्जिद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इमामत-ए-जुमा के फ़राइज़ अंजाम देते रहे और अपने ख़ुत्बात और दुरूस के ज़रिए तलबा व असातिज़ा व दीगर मोमिनीन को उलूम-ए-दीनिया से रोशनास कराते रहे। फ़िक़्ह व उसूल में उन्हें ख़ास महारत हासिल थी, लेकिन तबीयत में इनकिसारी इस क़दर थी कि कभी अपनी इल्मी अज़मत का इज़हार नहीं किया और शोहरत से हमेशा दूर रहे।
अल्लामा ने अपनी तमाम मस्रूफ़ियात के बावजूद तहक़ीक़ व तालीफ़ का दामन हाथ से नहीं जाने दिया और बहुत से आसार तश्नगान-ए-उलूम के लिए छोड़ गए, जिनमें शामिल हैं:
दुनिया दीन की नज़र में, जहालत, बीमारी और तंगदस्ती, इस्लाम और तबक़ाती निज़ाम, मज़हब, इतमिनान-ए-नफ़्स का सरमाया, इस्लाम क्या चाहता है, औरत और इस्लाम, मज़हब और ज़मीर, इस्लाम और आज़ादी, मज़हब और ज़िंदगी। इसके अलावा ग़ैर-मतबूआ किताबें जैसे हाशिया क़वानीनुल उसूल, शरह-ए-रसायिल (उर्दू), शरह-ए-काफ़ी, शरह फ़राइदुल उसूल, शरह मआलिमुल उसूल, शरह मकासिब (उर्दू), और फ़िक़्ह-ए-इस्लामी के उसूल-ए-तहक़ीक़ भी क़ाबिले-ज़िक्र हैं। ये किताबें आपकी इल्मी सलाहियत का मुंज़बिल शाहकार हैं।
आख़िरकार ये इल्म व अदब का चमकता आफ़ताब सन 2018 ईसवी बروز मंगल, सरज़मीन-ए-अलीगढ़ पर ग़ुरूब हो गया। ग़ुस्ल व कफ़न के बाद नमाज़-ए-जनाज़ा अदा की गई और हज़ारों आह व बका के साथ "कर्बला-ए-जमाल शाह, अलीगढ़" में सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया।
माखूज़ अज़: मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-9 पेज-196 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2024ईस्वी।
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