हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हमारे दौर में जो चीज़ें इस्लामी इन्क़ेलाब के नाम से ज़ाहिर हुईं हैं वह दोस्त और दुश्मन हर एक की सोंच से कहीं ऊपर थी, कई देशों में इस्लामी आंदोलन और तहरीकों की शिकस्त की वजह से मुसलमान यह सोंचने लगे थे कि जो संसाधन और ज़रिए इस्लाम दुश्मन ताक़तों के हाथ में हैं उनको देखते हुए इस्लामी हुकूमत का गठन और निर्माण मुम्किन नहीं है, दूसरी तरफ़ इस्लाम विरोधी भी अपनी साज़िशों के तहत संतुष्ट हो चुके थे कि ख़ुद मुसलमानों और इस्लामी क़ौमों के बीच उन्होंने मज़हब, क़ौम, रंग, नस्ल के नाम पर जो भेदभाव पैदा कर दिए हैं उनकी बुनियाद पर इन देशों में इस्लामी हुकूमत नाम की चीज़ का वुजूद ना मुम्किन है, ख़ुद ईरान के अंदर पिछले 50 सालों में पहलवी हुकूमत के हाथों इस्लाम की जड़ें उखाड़ फेंकने के कोशिशें की गईं, पहलवी बादशाहियत ने न केवल अपने दरबार में बल्कि देश की सभी संवेदनशीन जगहों पर नैतिकता को रौंदने का बाज़ार गर्म कर रखा था, ईरान के शाह ने 2500 साल की बादशाहत का जश्न बरपा कर के जो हक़ीक़त में मजूसियों (पारसियों) का मज़हर था और हिजरी तारीख़ का नाम बादशाही तारीख़ में बदलकर साम्राजी प्रभाव का पूरी तरह से माहौल बना दिया था, ऐसे देश में इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी के बारे में बिल्कुल भी सोचा नहीं जा सकता था और यह कामयाबी एक ग़ैर मामूली कामयाबी थी।
बिना किसी शक के जिस हस्ती ने इस इन्क़ेलाब की रहबरी और नेतृत्व ने देशी और विदेशी सारे रुकावटों और संसाधनों की कमियों के बावजूद पूरे देश और देश की जनता को अपने इर्द गिर्द जमा कर के न केवल इस इस्लामी इन्क़ेलाब को ईरान में कामयाब बनाया बल्कि सारे इस्लामी जगत में आज़ादी और हुर्रियत का बीज बो दिया और मुसलमानों में एक नई उम्मीद और बेदारी की इन्क़ेलाबी कैफ़ियत पैदा कर दी, बेशक यह शख़्सियत इस्लामी दुनिया की एक ग़ैर मामूली शख़्सियत है, ज़ाहिर है इस अज़ीम हस्ती ने मुसलमानों की बेदारी, उनके बीच इत्तेहाद और एकता और उनकी बीमारियों को पहचानने और उनके इलाज करने के सिलसिले में बहुत तकलीफ़ें और कठिनाईयां उठाई हैं।
हज़रत इमाम ख़ुमैनी (र) के नेतृत्व में 11 फ़रवरी 1979 में इस्लामी जगत का पहला अवामी इन्क़ेलाब आया, जिसके नतीजे में मिडिल ईस्ट का सबसे ताक़तवर शाही हुकूमत का सिस्टम चकनाचूर हो गया, किसी बड़े विचारक ने कितनी अच्छी बात कही है कि जब मिस्र में अल-अज़हर का इल्मी प्रभाव, सूफ़ियों की रूहानियत और लोकप्रियता और अख़वानुल-मुस्लिमीन का अनुशासन सब आपस में मिल जाएं तो इन्क़ेलाब दिखाई देगा, ईरान के सिलसिले में यह तीनों चीज़ें अल्लाह ने एक ही शख़्सियत में जमा कर दी थीं।
इमाम ख़ुमैनी (र) इल्मे फ़िक़्ह की बुलंदी पर थे और ईरानी जनता ज़ियादातर फ़िक़्ही मसाएल में आप ही की तक़लीद करती थी, इरफ़ान और तसव्वुफ़ के एतबार से उनका शुमार ख़ुदा के क़रीबी बंदों में होता था, उनकी पैरवी करने वालों और चाहने वालों ने और विशेष कर उलमा और उनके शागिर्दों ने पूरे अनुशासन और सतर्कता से इन्क़ेलाब के पैग़ाम को ईरान के शहरों, गावों, गलियों और मोहल्लों में इस तरह फैलाया कि शाही साम्राज्य की चूलें हिलाकर रख दीं और इन्क़ेलाब की नूरानी सुबह के आने का रास्ता तैयार कर दिया।
इमाम ख़ुमैनी (र) के नेतृत्व में ईरान के इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी से दुनिया के दूसरे इलाक़ों में साम्राज्यवादी सिस्टम का भ्रष्टाचार और फ़ित्ना और फ़साद फैलाने और आपसी फूट डलवाने की साज़िशें बेनक़ाब हुईं, इमाम ख़ुमैनी (र) एक उसूली और गहरी सोंच रखने वाले लीडर थे जिन्होंने इन्क़ेलाब के पहले दिन से ही जनता के दिल जीत लिए, उन्होंने ईरान में इस्लामी सिस्टम और निज़ाम की बुनियाद रखकर दुनिया में हुकूमत के नए तरीक़े को पहचनवाया, आपने लोकतंत्र को अपनी मंज़िल तक पहुंचने का अहम सुतून क़रार दिया और आज इन्क़ेलाब की कामयाबी के 44 साल गुज़रने के बावजूद ईरान के इस्लामी लोकतंत्र के सिस्टम में लोकतंत्र रौशन सितारे की तरह चमक रहा है, इमाम ख़ुमैनी (र) के नेतृत्व में इस्लामी इन्क़ेलाब ने दुनिया को अच्छी हुकूमत और सिद्धांत प्रणाली को पहचनवाया और इसी वजह से इस्लामी इन्क़ेलाब से दुश्मनी की शुरूआत हुई, विशेषकर अमेरिका, इस्राईल और उसके सहयोगी सऊदी अरब समेत अधिकतर अरब देश ईरान की ताक़त से भयभीत हो गए, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अमेरिका, सऊदी अरब और अवैध राष्ट्र इस्राईल आज के दौर में हर ज़ुल्म, अपराध और फ़ित्ने की जड़ हैं जो यह नहीं चाहते कि मिडिल ईस्ट में लोकतंत्र क़ायम हो।
इमाम ख़ुमैनी (र) अधिकृत फ़िलिस्तीन में ज़ायोनियों की दरिंदगी से सख़्त विरोधी थे जबकि आज सऊदी अरब अमेरिका का पिठ्ठू बना हुआ है जिसका मक़सद अवैध राष्ट्र इस्राईल और ज़ायोनी दरिंदों को मज़बूत करना और उनकी हिफ़ाज़त करना है।
इन्क़ेलाब के बाद ईरान में इमाम ख़ुमैनी (र) और उनके जैसी फ़िक्र और उनके जैसे विचार रखने वालों की इस्लामी विचारधारा पर आधारित हुकूमत का सिस्टम जिस तरह कामयाबी से चल रहा है वह भरोसेमंद और पैरवी के क़ाबिल है, इस्लामी जगत में राजनीतिक सुधार और सकारात्मक बदलाव के लिए ईरान के इन्क़ेलाबी राजनीतिक सिस्टम की कामयाबी बुनियादी अहमियत रखती है और इसका इस्लामी जगत के भविष्य पर राजनीतिक हवाले से गहरा प्रभाव पड़ेगा, ईरान के इस्लामी लोकतंत्र के सिस्टम की नई नई कामयाबियों से वह मुसलमान जो यूरोप से प्रभावित हैं वह बहुत चिढ़ते हैं और साथ ही षडयंत्र रचते हैं कि ईरान का इन्क़ेलाब, लोकतांत्रिक नहीं है, क्योंकि लोकतांत्रिक हुकूमत के मुक़ाबले में दुनिया में अत्याचार, साम्राज्यवाद और डिक्टेटरशिप जैसे सिस्टम का प्रकोप है इसलिए उन यूरोप से प्रभावित लोगों का किसी सिस्टम को ग़ैर अवामी कहने का मतलब यह है कि वह एक अत्याचारी, साम्राज्यवादी और डिक्टेटर हुकूमत को चाहते हैं जबकि किसी भी लोकतांत्रिक हुकूमती सिस्टम में जनता को हुकूमत चुनने का हक़ हासिल होता है, इसके अलावा लोकतांत्रिक हुकूमत में जनता को बुनियादी हक़ हासिल होते हैं, क़ानूनी बराबरी, स्वतंत्र न्यायपालिका, हुकूमत का अवाम और अवाम द्वारा चुने गए कैंडीडेट के सामने जवाबदेह होना लोकतंत्र की बुनियादी विशेषताएं हैं, इसलिए अगर किसी सिस्टम को अवामी कहा जाए तो उसका मतलब यह है कि उसे अच्छा सिस्टम होने की उपाधि दी जाती है और जिस सिस्टम को ग़ैर अवामी और अत्याचारी कहा तो उसका मतलब यह है कि उसे बुरा सिस्टम क़रार दिया जाता है।
ईरान का इस्लामी इन्क़ेलाब, इस्लामी इतिहास का पहला अवामी इन्क़ेलाब था जिसके बाद एक नए संविधान और नए सिस्टम के गठन की शुरूआत हुई, यह सिस्टम न केवल अवामी है बल्कि एक कामयाब अवामी सिस्टम है जो पिछले 44 साल से पूरी मज़बूती के साथ क़ायम है, इन्क़ेलाब के बाद का गठन किया गया, 1 अप्रैल 1979 के दिन यह संविधान जनता के सामने मंज़ूरी के लिए पेश किया गया, सारी ईरानी जनता ने एक आवाज़ में उस संविधान और क़ानून को मंज़ूरी दे दी, जहां जहां भी लोकतंत्र है वहां क़ानून और निज़ाम को जनता या जनता के प्रतिनिधि यानी चुने हुए नेता मंज़ूर करते हैं और ईरान में भी जनता में इस्लामी लोकतंत्र को चुना, ईरान के क़ानून और संविधान की रौशनी में रहबर (वली-ए-फ़क़ीह) का पद सबसे ऊंचा है, पहले रहबर के पद तक पहुंचने के लिए ईरान की अधिकतर जनता का मरजए तक़लीद होना शर्त था, चूंकि तक़लीद आम मुसलमान अपनी मर्ज़ी से करते हैं इसलिए यह तरीक़ा भी पूरी तरह से अवामी था, उस समय ख़ुबरेगान कमेटी (एक्सपर्ट) का रहबर चुनने में यह ज़िम्मेदारी थी कि वह इस बात को ज़ाहिर करें कि ईरानी जनता किस मुजतहिद की तक़लीद ज़ियादा करती है, बाद में मरजा की शर्त को ख़त्म कर दिया गया और अब यह कमेटी ज़रूरत के अनुसार रहबर चुनने का हक़ रखती है।
ईरान के मौजूदा रहबर और सुप्रीम लीडर आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई (अल्लाह उन्हें लंबी उम्र दे) अवाम द्वारा चुनी गई ख़ुबरेगान कमेटी द्वारा रहबरी के लिए चुने जाने से पहले दो बार ईरान के राष्ट्रपति पद पर जनता द्वारा भारी मतों से चुनकर आए थे, इन्क़ेलाब की कामयाबी से लेकर आज तक हमेशा ख़ुबरेगान कमेटी का चयन क़ानून पर अमल करते हुए उसके सहीह समय पर होता रहा है, चाहे जंग का माहौल हो या अमन और शांति का वहां की जनता ने समय पर पूरे क़ानून पर अमल करते हुए चुनाव में हिस्सा लिया है और पूरी दुनिया के लिए लोकतांत्रिक हुकूमत का सहीह मतलब समझाया है।
आज ईरान की तरक़्क़ी और मज़बूती और क़ौमी एकता ने इस्लामी लोकतंत्र को एक मज़बूत ताक़त में बदलकर के रख दिया है और यह सारा क्रेडिट ईरान के इन्क़ेलाब की बुनियाद रखने वाले लीडर आयतुल्लाहिल उज़्मा इमाम ख़ुमैनी (र) को जाता है कि ईरान आज दुनिया की सुपर पावर ताक़तों अमेरिका और इस्राईल की आंखों में आंखें डालकर बात करता है, अमेरिका ईरान को धमकियां ज़रूर देता है मगर उसमें अब इतनी हिम्मत नहीं कि वह ईरान पर हमले की सोंच सके, ईरान के इस्लामी इन्क़ेलाब ने देश और क़ौम की तक़दीर ही बदलकर रख दी है, हर वर्ग को उसके हूक़ूक़ हासिल हैं, कुछ मुनाफ़िक़ों के ग्रुप्स की तरफ़ से धरने और हंगामे के बावजूद हुकूमत अपने टारगेट को हासिल कर रही है।