ख़तीब-ए-ईमान सैयद मुज़फ़्फ़र हुसैन जो मौलाना ताहिर जरवली के नाम से मारूफ़ थे 31 दिसंबर 1929 ईस्वी को शहर-ए-इल्म व अदब से 80 किलोमीटर दूर, बहराइच ज़िले के क़स्बा जरवल के एक दीनदार और ताल्लुक़ेदार ख़ानदान में पैदा हुए। आपका सिलसिला-ए-नसब चंद वासतों से हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से मिलता है। आपके वालिद सैयद नज़ीर हुसैन रिज़वी जर्वल, ज़िला बहराइच के ताल्लुकेदार थे। ताहिर जरवली की वालिदा मुदाफ़े-ए-विलायत, साहिब-ए-अबक़ातुल अनवार, अल्लामा मीर हामिद हुसैन मूसवी की पोती और सरकार नासिरुल मिल्लत, आयतुल्लाह सैयद नासिर हुसैन मूसवी की बेटी थीं।
मौसूफ़ की उम्र अभी सिर्फ़ 14 साल थी कि आप अपने वालिद के साए से महरूम हो गए। आपके मामा नसीरुल मिल्लत और सईदुल मिल्लत ने अपनी मोहब्बत और आतिफ़त से आपकी परवरिश की।
ख़तीब-ए-ईमान की इब्तिदाई तालीम का आग़ाज़ सरकार नासिरुल मिल्लत ने “बिस्मिल्लाह” से कराया। आपने घर पर ही क़ुरआने मजीद, दीनयात, उर्दू और फ़ारसी की तालीम हासिल की। आपने शिया कॉलेज में पाँचवे दर्जे से अपनी तालीम शुरू की और वहीं से इंटरमीडिएट तक पढ़ाई की। शिया कॉलेज के बाद आपने लखनऊ यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया और 1952 ईस्वी में बी.ए की डिग्री हासिल की, फिर उसी यूनिवर्सिटी से एल.एल.बी की तालीम मुकम्मल की।
क़ानून की तालीम मुकम्मल करने के बाद आपने क़ैसरगंज, बहराइच और लखनऊ में कुछ अरसा वकालत की मगर इसे पेशा नहीं बनाया। मौलाना मुमताज़ अली मरहूम के बक़ौल, ख़तीब-ए-ईमान फ़रमाते थे: "मैंने वकालत को पेशा बनाने के बजाय, मोहम्मद व आले मोहम्मद (स.) की वकालत को अपना नसबुलऐन समझा।" मौसूफ़ ता-हयात अपनी तक़रीरों के ज़रिए हक़ानियत-ए-अहलेबैत (अ.) साबित करते रहे। यहाँ तक कि कोलकाता के अशरे में हज़ारों अफ़राद को राह-ए-हक़ दिखाई। आप बेहद बाअदब, मुनकसिरुल मिज़ाज और तुल्लाब नवाज़ शख्सियत थे। मौसूफ़ तालिब-ए-इल्म को सलाम करने में पहल किया करते थे।
आपने अस्र-ए-हाज़िर की तालीम के साथ साथ दीनी तालीम का सिलसिला भी घर पर जारी रखा, जहाँ नसीरुल मिल्लत और सईदुल मिल्लत ने आपकी मज़हबी मालूमात में इज़ाफ़े के लिए ख़ास तवज्जोह दी। इसके अलावा, आपने शिया कॉलेज में मौलाना अहमद हसन से भी इल्म हासिल किया।
मौलाना ताहिर जर्वली ने अपनी ज़ाकिरी का आग़ाज़ जरवल में मर्सिया-ख़्वानी से किया और जल्द ही ये मर्सिया-ख़्वानी, उलमा व फुक़हा की निगरानी में ख़िताबत में तब्दील हो गई। आपने 1946 ईस्वी से बाक़ायदा मजलिसें पढ़ना शुरू कीं और 1958 ईस्वी में मोमिनीन के इसरार पर जरवल से बाहर क़दम रखा और कराची के मार्टिन रोड के इमामबाड़े में पहला अशरा पढ़ा जो बहुत मक़बूल हुआ। कोलकाता के लोगों के इसरार पर, आपने 1961 से 1981 तक लगातार बीस साल वहाँ अशरा-ए-मुहर्रम पढ़ा।
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हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, ख़तीबुल ईमान की ख़िताबत का दायरा आहिस्ता-आहिस्ता मुल्क और बैरून-ए-मुल्क के उफ़ुक़ पर फैल गया। आपने ज़ाकरी के ज़रिए हिंदुस्तान के गोशे-गोशे और बैरुने-ए-मुल्क यूरोप, अमरीका, अफ़्रीका, कनाडा और खलीजे फ़ारस के ममालिक के मुताअद्दिद सफ़र किए।
आपकी अशरा ए मजालिस पर मुश्तमिल किताबें "मवद्दत-ए-अहलेबैत" "क़ुरआन और अहलेबैत", "वसीला" इस्लाम और अज़ादारी" और "निजात" शाया हो चुकी हैं।
आपने ख़िताबत के अलावा, क़ौम व मिल्लत की फ़लाह व बहबूद के लिए मुख़्तलिफ़ क़ौमी तहरीकों में हिस्सा लिया। मौसूफ़ ने मज़ार-ए-शहीद-ए-सालिस की तामीरे -नौ के लिए तमाम वसाइल फ़राहम किए और मौलाना सईदुल मिल्लत के इंतिक़ाल के बाद उनकी वसीयत के मुताबिक शिया कॉलेज में ख़ास दिलचस्पी ली, जहाँ आप तक़रीबन 18 साल तक सेक्रेटरी के ओहदे पर फ़ाइज़ रहे। मौलाना ताहिर जरौली वक़्फ़-ए-हुसैनाबाद मुबारक की पहली कमेटी के मुतवल्ली भी रहे।
मौलाना ताहिर जरवली ऑल इंडिया शिया कॉन्फ़्रेंस के तीन साल तक जनरल सेक्रेटरी रहे और सन 1980 ईस्वी में मुमबई में एक अज़ीम और यादगार इजलास मुनअक़िद किया, जिसे आज भी याद किया जाता है। आप अंजुमने तहफ़्फ़ुज़-ए-हुसैनियत के सरगर्म रुक्न और सन 1976 से ता-दम-ए-मर्ग सदर रहे। इसके अलावा मौसूफ़ ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों तक शिया काउंसिल के चेयरमैन रहे।
अल्लाह ने आपको 2 बेटियाँ और 4 फ़र्ज़ंद अता किए, जिन्हें मौलाना सैयद मीसम काज़िम जरवली, मौलाना सैयद अम्मार काज़िम जरवली, मौलाना सैयद आबिस काज़िम जरवली और मौलाना सैयद शोज़ब काज़िम जरवली के नाम से पहचाना जाता है।
20 नवंबर 1987 ईस्वी को, तहफ़्फ़ुज़ व तक़द्दुस-ए-हरम के मौज़ू पर होने वाली बैनुल अक़वामी कांफ्रेंस में शिरकत के लिए ईरान तशरीफ़ ले गए। इस कांफ्रेंस में आपकी तक़रीर को सबसे ज़्यादा पसंद किया गया। ईरानी हुक्काम ने आपसे वादा लिया कि आप डेढ़ महीने बाद दोबारा ईरान आएँगे। हिंदुस्तानी मेहमानों में आपको ख़ुसूसी मेहमान का दर्जा दिया गया। आपके लिए सिक्योरिटी का ख़ास इंतज़ाम किया गया, हालाँकि आप इसके लिए तय्यार न थे। कांफ्रेंस के इख़्तिताम के बाद, 28 नवंबर को आपने इमाम ख़ुमैनी से और 30 नवंबर को वज़ारत-ए-ख़ारिजा के आला हुक्काम से मुलाक़ात की ।
ख़तीब-ए-ईमान, 1 दिसंबर 1987 ईस्वी, बरोज़ मंगल, ईरान के शहर तेहरान में इमामज़ादे शाह अब्दुल अज़ीम के हरम के क़रीब होटल में अचानक तबीयत ख़राब होने के सबब बिस्तर की बजाए क़ालीन पर ही लेट गए। जब आपको हरकत दी गई तो मौसूफ़ ने कोई जवाब ना दिया। डॉक्टर की तश्ख़ीस के मुताबिक़, आप अपने ख़ालिक़-ए-हक़ीक़ी से जा मिले। "इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन।"
आपका जनाज़ा तेहरान से मशहद ले जाया गया। बेहिश्त-ए-इमाम रज़ा (अ.) में ग़ुस्ल व कफ़न के दौरान, ग़स्साल ने हैरत का इज़हार करते हुए कहा: "यह पहली मय्यत है जिसे 48 घंटे गुज़रने के बावजूद ऐसा महसूस होता है जैसे मरहूम महव-ए-ख़्वाब हों।"
आपके जिस्म-ए-ख़ाक़ी को 3 दिसंबर 1987 ईस्वी में मशहद मुक़द्दस, आस्ताना-ए-रज़वी में, इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की क़ब्र से सत्तर क़दम के फ़ासले पर सुपुर्द-ए-ख़ाक़ कर दिया गया।
माखूज़ अज़: मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-10 पेज-254 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2024ईस्वी।
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