हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, मरहूम आलमाह मिस्बाह ने एक भाषण में "इस्लामी समाज को सेक्युलर बनाने" के विषय पर बात की, जो आपके लिए प्रस्तुत है।
इस्लाम के इतिहास में, इस्लामी समाज को सेक्युलर बनाने का पहला कदम खलीफाओं के समय में उठाया गया था।
इसका मतलब था धर्म और राजनीति को अलग करना। उस समय, खलीफ़ा धार्मिक मामलों में हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) से सलाह लेते थे और जब भी कोई समस्या आती, कहते थे, "अबुलहसन को बुलाओ"। यहां तक कि कहा जाता है कि दूसरे खलीफा ने सत्तर से अधिक बार कहा: "लौला अली लहलका उमर" यानी "अगर अली न होते, तो उमर हलाक हो जाता"।
वे स्वीकार करते थे कि वे इस्लाम के नियम नहीं जानते और उन्हें अली (अलैहिस्सलाम) से सीखना चाहिए, लेकिन वे सत्ता और शासन उन्हे सौंपने को तैयार नहीं थे।
यह वही सेक्युलरिज़्म का सिद्धांत है जो धर्म को राजनीति से अलग करता है। यानी वे मानते थे कि धार्मिक आदेशों, जैसे नमाज़ और रोज़े के लिए अली से सलाह लेनी चाहिए, लेकिन उनका मानना था कि सामाजिक, राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक मामलों का धर्म और धार्मिक नेता से कोई लेना-देना नहीं है।
आज भी यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इस्लामी गणराज्य में भी कुछ लोग हैं जो या तो विलायत ए फ़क़ीह के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते या उसे केवल एक औपचारिकता मानते हैं और दावा करते हैं कि वे खुद बेहतर निर्णय ले सकते हैं।
यह व्यवहार इतिहास में दोहराया गया है। जैसे पैगंबर की बेटी और बाद में इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के साथ कर्बला में हुआ, वैसे ही हाल के वर्षों में हमने देखा कि सय्यद अल शोहदा की अज़ादारी मनाने वालों के साथ कैसा व्यवहार किया गया।
ये लोग न तो काफिर थे, न यहूदी या ईसाई, बल्कि वे थे जो अभी भी अहलेबैत (अलैहिस्सलाम) के विरोधियों से दूरी नहीं बना पाए थे।
बेशक यह मानना चाहिए कि वे छोटे-छोटे छल से इतिहास का रास्ता बदलते थे, लेकिन आज लोग पहले से ज्यादा जागरूक हैं।
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