हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , जामिया ए मदरिसीन ने अपने पत्र की शुरुआत में कुरआन करीम की सूरह निसा की आयत 75 का हवाला दिया है, जिसमें मुस्तज़ाफ़ीन (दबे-कुचले लोगों) के समर्थन में खड़े होने का आह्वान किया गया है।
जामिया मदर्रिसीन ने जोर देकर कहा कि आज उम्मत-ए-मुस्लिमा एक कठिन परीक्षा से गुजर रही है; ग़ाज़ा के निहत्थे लोग भीषण खाद्य संकट का सामना कर रहे हैं और कुछ अरब सरकारें इस ज़ुल्म पर चुप रहने के बजाय ज़ायोनी राज्य का समर्थन कर रहे हैं।
पत्र में कुरआन की आयतों के संदर्भ में यह स्पष्ट किया गया है कि इस्लाम के दुश्मनी में यहूदी सबसे आगे हैं और अल्लाह तआला ने खुद उनसे दोस्ती को हराम ठहराया है ऐसे में मुस्लिम शासकों की खामोशी और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की निष्क्रियता सिर्फ मजलूमों के साथ ही नहीं, बल्कि इस्लाम की पीठ में छुरा घोंपने के बराबर है।
जामिया मदरिसीन ने याद दिलाया कि अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स.) की यह पुकार आज भी ज़िंदा है कि विद्वानों पर ज़रूरी है कि वे ज़ालिम की चैन और मजलूम की भूख पर चुप न रहें। अगर अहले-इल्म खामोश रहें तो उनकी हैसियत और मक़ाम बेमानी है।
पत्र के अंत में जोर देकर कहा गया है कि फिलिस्तीनी कौम की मदद के लिए उम्मत-ए-इस्लामिया को एकजुट होना होगा। बेरुखी और खामोशी को तोड़कर वैश्विक स्तर पर विरोध की आवाज़ बुलंद की जाए ताकि इस्लामी सरकारें ग़फलत से जागें और अपनी शरी और इंसानी ज़िम्मेदारियां अदा करें। आज मजलूम का साथ छोड़ना, यानी ईमान से इनकार के बराबर है।
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