शुक्रवार 15 अगस्त 2025 - 16:43
स्वतंत्रता दिवस और अरबईने हुसैनी का साझा संदेश

हौज़ा / आज भारतीय मुसलमानों के लिए एक ख़ास मौक़ा है कि जब उनकी ज़िंदगी के मक़सद उनकी आज़ादी के दो अलग अलग वजूद अपने दामन में एक ही मक़सद लेकर एक ही दिन एक दूसरे से मिलने जा रही हैं...आज आज़ादी और सामाजिक न्याय का समन्वय हो रहा है.क्यूंकि आज भारतीय मुसलमान राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही पटल पर आज़ादी का मिलन देख रहा है..लेकिन इस बीच उसे दो अलग अलग किरदार भी अदा करने हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , आज भारतीय मुसलमानों के लिए एक ख़ास मौक़ा है कि जब उनकी ज़िंदगी के मक़सद उनकी आज़ादी के दो अलग अलग वजूद अपने दामन में एक ही मक़सद लेकर एक ही दिन एक दूसरे से मिलने जा रही हैं...आज आज़ादी और सामाजिक न्याय का समन्वय हो रहा है.क्यूंकि आज भारतीय मुसलमान राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही पटल पर आज़ादी का मिलन देख रहा है..लेकिन इस बीच उसे दो अलग अलग किरदार भी अदा करने हैं...

जिसमे से एक किरदार में वो हौसला पाएगा जबकि दूसरे किरदार में उसी हौसले की मदद से अपनी और अपनों की मदद करनी होगी...

जी हाँ...मैं बात कर रहा हूँ भारतीय सवंत्रता दिवस और अरबईने हुसैनी की...जिसमे एक तरफ़ राजनीतिक आज़ादी है तो वहीँ दूसरी तरफ़ धार्मिक आज़ादी है...जबकि यही दो तंत्र सामाजिक व्यस्था को बनाने और बनाए रखने में सबसे महत्त्पूर्ण किरदार अदा करते हैं...तो फिर इसी संदर्भ में अगर मैं ये कहूँ तो शायद कुछ ग़लत ना होगा कि पहली आज़ादी हमें जूझना सिखाती है तो दूसरी आज़ादी जूझ कर पाई हुई हिम्मत को बनाए रखना सिखाती है...और ये दोनों ही तरह की आज़ादियाँ हर प्रकार की परिस्थिति में स्थिरता व धैर्य को बनाए रखने का संदेश देती हैं...क्यूंकि स्थिरता व धैर्य से प्राप्त होती है विजय यानी कामयाबी और कामयाबी का सही मतलब है सच को स्वीकारना...जबकि सच स्वीकारने का मतलब सामाजिक ताने बाने को बुनने वाली ज़िम्मेदारियों को समझना और उन ज़िम्मेदारियों से न्याय करना....और फिर इस सारी आपा धापी व मेहनत से निकल कर आने वाले नतीजे को ही हम “सोशल जस्टिस” यानी सामाजिक न्याय का नाम देते हैं...और यही सामाजिक न्याय आज़ादी का सूत्रधार भी है और जनक भी..

जी हाँ! वही राजनीतिक आज़ादी जिसकी कल्पना मात्र में खुदीराम बोस , बाजी राउत , बिरसा मुंडा , तसददुक़ हुसैन , मक़बूल अहमद और अशफाक़ुल्लाह खान जैसे कम उम्रों से लेकर दादाभाई नौरोजी और ख्वाजा हसन निज़ामी सरीखे बूढों ने मुस्कुराते हुए जान दे दी...और फिर बदले में उन्हें दुनिया की कुल अर्थव्यस्था का 58 प्रतिशत की अर्थव्यस्था यानी मौजूदा दौर के हिसाब से 64 ट्रिलियन डालर्स की अर्थव्यस्था लुटवाने, खो देने और भ्रष्ट राजनेताओं के बड़े बड़े भ्रष्टाचारों के बावजूद आम आदमी की मेहनत के बल बूते पर महज़ 78 सालों में ही दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था वाला भारत मिला... 

जी हाँ! वही धार्मिक आज़ादी जो अपनी ग़लती की माफ़ी मांगने के लिए फ़ौज के सरदार के ओहदे को छोड़ कर एक एक प्यासे और लाचार के सामने  घुटनियों के बल आए...नाम से भी आज़ाद हुर (अस) से शुरू होती है और फिर छे माह के प्यासे बच्चे के तड़पती मछली से थके हुए खुलते बंद होंटों व नबी सल्लल्लाह की पीठ पर खेल चुके और अब तीरों पर टिके उनके प्यारे नवासे हुसैन अलैह्मुस्स्लाम के इश्क़ से लबरेज़ सजदे में बुदबुदाते हुए कटे ज़ख़्मी होंटों और हज़ारों ज़ख्मों के बावजूद हैहाथ मिन्नज्ज़िल्ला की इंक़ेलाबी आवाज़ से अंधेरों में रोशनी भरती आवाज़ए हुसैनी के साथ....ही थक हार कर हमेशा के लिए ख़ामोश हुई सकीना बिन्तुल हुसैन जैसी नन्हीं बच्ची की ख़ामोशी और फिर उस बच्ची की ख़ामोशी से उठी आवाज़ के तूफ़ान में यज़ीदियत का शीराज़े बिखेरती इन्क़ेलाबे अबदी यानी कभी मंद ना पड़ने वाली क्रांति अरबईने हुसैनी की सूरत में ठहरती है...

दरअसल सच भी यही है कि ये दोनों ही आज़ादियाँ अपने आप में क़ीमती हैं लेकिन फिर एक सच ये भी है कि...ये दोनों ही आज़ादियाँ उस वक़्त आज़ादी नहीं बल्कि जानवरों के चारे पानी के शेड्यूल या फिर ये कहा जाए कि पश्चिमी या पूंजीवादी सभ्यता का दम भरते हर तरह के बिज़ी शेड्यूल्स , टैक्सेज़ , लोन्स, तरह तरह के क़ानूनों में गिरफ़्तार ह्यूमन रोबोट्स की तरह से दिन-रात बस आदेश का पालन करने वाले यांत्रिक प्राणी , प्रोग्राम्ड ह्यूमन सा प्रोग्राम्ड सिस्टम सा है कि जिसमें—सोचने और महसूस करने की आज़ादी धीरे-धीरे मर चुकी हो…...और जी हाँ इंसान की यही वो असली हालत और हैसियत होती है कि जबकि इंसान अपनी आज़ादी का हक़ अदा ना करे...और इसका हक़ मैं तहरीर के पहले हिस्से में दर्ज कर चुका हूँ...जी हाँ वही सामाजिक न्याय , सोशल जस्टिस...

अब चूंकि मेरी तहरीर ज़रा लम्बी हो चली है और ये दौर किताबों, तहरीरों के बजाए शोर्ट वीडियोज़ का है लिहाज़ा कम अल्फ़ाज़ में इस तहरीर के नतीजे तक पहुँचने के लिए...दर्ज कर रहा हूँ कि...चाहे भारतीय सवंत्रता दिवस हो या फिर अरबईने हुसैनी दोनों ही किरदार आज़ादी की एक अलग परिभाषा रखते हैं...

अलबत्ता अब ये भी सच ही है कि सरहदों का फ़र्क ज़रूर हैं...लेकिन इंसानियत दोनों में समन्वय है...यानी अगर इधर भारत जैसे एक हिन्दू बहुसंख्या वाले देश में मुस्लिम क्रांतिकारी हैं तो उधर इसी भारत में मुस्लिम पहचान से जुड़े अरबईने हुसैनी में सिर्फ़ रहब दत्त से लेकर माथुर लखनवी और मुंशी छन्नू लाल दिलगीर जैसे अज़ादार ही नहीं बल्कि अज़ादारी को अपने वजूद का हिस्सा समझते ग़ैर मुस्लिम इलाक़े तक हैं...

और दोनों ही आज़ादियों का हक़ ये है कि इन्हें अपनाने वाले इस आज़ादी का आत्मा इस आज़ादी की रूह पर वार ना करें...ना तो भारतीय आज़ादी का जश्न मना रहे हिन्दू उस मुसलमान से देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांगें कि जिसके पूर्वजों ने हँसते हुए फासी के फंदे चूम लिए...जिसने साथ मिलकर सामाजिक व हर तरह के ताने बाने को बुना और हर तरह के माहौल के बाद भी हिन्दू बिरादरी को अपना समझा बल्कि यूं कहूँ कि...भारत में रुक कर जिन्ना के एजेंडे को नाकाम किया...और हिन्दू समाज को हौसला व इज़्ज़त दी इज़्ज़त दिलाई...उसे ये समझना और ख़ुद से पूछना चाहिए कि उस मुसलमान से सर्टिफिकेट माँगना कितना शर्मनाक है कि जो उस हुसैन (अस) का मानने वाला है कि जो ख़ुद भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के लिए रोल मॉडल रहे हैं...तो फिर ऐसा क्यों है कि समाज में नफ़रत जीत रही है और मुहब्बत हार रही है...क्या शहीदों का खून इतना सस्ता है कि उसे सिर्फ़ 70 से 80 सालों में भुला दिया जाए...और अगर याद हैं तो क्या उन्होंने ऐसे भारत का सपना संजोया था?

और ना ही अरबईने हुसैनी के सहारे पैग़ामे हुसैनी यानी इंसानियत और सोशल जस्टिस का दम भरने वाले मुसलमान ख़ास तौर से शिया समाज अपनी मजलिसों अपनी महफ़िलों अपने प्रोग्राम्स में, तबर्रुकात की तक़सीम में, में ऐसी बातें ना करें कि आने वाले भी चले जाएँ...और फिर धीरे धीरे मजलिसें रस्म सी रह जाएं और वाह वाही का अड्डा बन जाएँ...यहाँ तक कि आने वाला ग़ैर अपने आने पर शर्मिंदा हो और हट्टा कट्टा  शिया नौजवान...मौलवी साहब से पूछे कि मौलवी साहब ये हज़रते अब्बास कौन थे....और क्या हम नहीं देखते कि हमारी मजलिसों में ग़ैर का मजमा कम हो रहा है...आख़िर हम ये क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि हमारे मुत्तहिद व समझदार ना होने, सही किरदार पेश ना करने और दूसरी वजहों से   नफ़रत जीत रही है और मुहब्बत हार रही है...

दरअसल यही मेरे पहले जुमले का मतलब और मक़सद भी है कि आज भारतीय मुसलमान मौजूदा हालात में सब कुछ लुटा कर भी इस्लाम और इंसानियत के लिए एलाही अक्सीर लेकर आई अरबईने हुसैनी से सबक़ व हौसला लेकर अपने ख़िलाफ़ हो रहे फ़र्ज़ी प्रोपोगंडों से जूझ सकता है, बहके हुवों को अपनी असली तस्वीर दिखा सकता है...और ऐसा करके वो अपनी और अपने मुल्क व समाज की मदद , ख़िदमत कर सकता है...जज़ाक्ल्लाह!

खैर मैं अपने इस शेर से अपनी उँगलियों और आपकी आँखों को आराम देता हूँ कि...

ख़ुदा करे यहाँ चैनो अमन रहे बाक़ी
चलो दुआओं में हिंदोस्तां को याद करें...

लेखक : सय्यद इब्राहीम हुसैन
             (दानिश हुसैनी)

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