हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,इमामज़ादा हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम क़ुम (ईरान) के वाजिब-उल-तअज़ीम इमामज़ादों में से एक हैं। आप आलिम, फक़ीह और मुहद्दिस थे, आपने इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम से हदीसें और रवायतें नक़्ल की हैं। आपको “मुबरक़ा” (नक़ाबपोश) इसलिए कहा जाता है क्योंकि आप अपने चेहरे को नक़ाब से ढाँपते थे।
हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम रिज़वी सादात के जद्द-ए-आला (पूर्वज) हैं और मशहूर है कि क़ुम और रय के इर्द-गिर्द के सादात-ए-बुरक़ई इन्हीं की औलाद में से हैं। आपका मज़ार मुबारक़ क़ुम के मोहल्ला “चेहल अख़्तरान” में है।
इमामज़ादा मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम साहिब-ए-करामात और फ़ज़ाइल-ए-कसीरा थे। बेशुमार ज़ायरीन ने उनके दर से अपनी हाजतें और मुरादें पाई हैं। उनकी करामतों में बीमारों को शिफ़ा देना, हाजतों का पूरा होना, बलाओं और मुश्किलों का दूर होना शामिल है।
कहा जाता है कि आप हमेशा नक़ाब इसलिए पहनते थे ताकि पहचाने न जाएँ। कुछ रवायतों के मुताबिक़ आपका चेहरा हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की तरह बेहद हसीन और खूबसूरत था। जब आप बाज़ार से गुज़रते तो लोग अपनी दुकानें छोड़कर आपका चेहरा देखने लगते, इसलिए आपने नक़ाब ओढ़ना शुरू किया ताकि किसी के लिए परेशानी का सबब न बनें।
इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम से रवायत है कि जो शख्स (हज़रत) मूसा मुबरक़ा (अलैहिस्सलाम) की ज़ियारत करे, उसे इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की ज़ियारत का सवाब मिलेगा।
हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम (इमाम जवाद अ.स.) के दूसरे बेटे थे। आपकी वालिदा माजिदा (मां) हज़रत समाना सलामुल्लाह अलैहा थीं। आप सन 214 हिजरी में मदीना मुनव्वरा में पैदा हुए और ख़ानदान-ए-इमामत में परवरिश पाई।
जब 220 हिजरी में इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को बग़दाद बुलाया गया और वहाँ आप शहीद हो गए, तो उस वक़्त हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम की उम्र तक़रीबन 6 साल थी। वालिद-ए-माजिद की शहादत के बाद आप अपने बड़े भाई इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की सरपरस्ती में फिक्री और रूहानी कमाल तक पहुँचे। हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम अपने भाई के सच्चे पैरोकार (अनुयायी) और फ़रमाँबरदार थे और उनसे गहरी मोहब्बत रखते थे।
शिया उलमा और मुहद्दिसीन ने आपकी विसाक़त (सच्चाई) और एतबार की तस्दीक़ की है और आपसे कई रवायतें नक़्ल की हैं। जब अब्बासी हुकूमत का ज़ुल्म कुछ कम हुआ तो हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम सन 256 हिजरी में क़ुम तशरीफ़ लाए। क़ुम में आपको अस्हाब-ए-अइम्मा (अ०स०), शिया रहनुमाओं और मोमिनीन की तरफ़ से बहुत मोहब्बत और एहतराम मिला।
आप क़ुम में 40 साल रहे और इस दौरान अहले क़ुम, उलमा और बुज़ुर्गों की तरफ़ से हमेशा इज़्ज़त व तक़रीम पाते रहे। आख़िरकार 22 रबीउस्सानी 296 हिजरी को 82 साल की उम्र में आप की वफ़ात हो गई। आपका जनाज़ा शियान-ए-क़ुम ने बड़े एहतराम से उठाया और आपको आपके ही घर में दफ़न किया गया।
हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी पूरी ज़िंदगी, जान, माल और इज़्ज़त-ओ-आबरू को अपने इमाम और बड़े भाई इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की विलायत के दिफ़ा के लिए वक़्फ़ कर दिया और उनके ही हुक्म से आप ने क़ुम की तरफ़ हिजरत की।
हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम वाजिब-उल-एहतराम इमामज़ादा, क़ाबिल-ए-एतबार आलिम और रावी थे। शिया उलमा और मुहद्दिसीन ने आपसे बहुत सी हदीसें नक़्ल की हैं। आपने अपनी पूरी पाकीज़ा ज़िंदगी में अपने वालिद इमाम मुहम्मद तकी अलैहिस्सलाम और भाई इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की इताअत की और इस राह में अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया।
हज़रत अबू अहमद सैयद मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम ने शहर क़ुम को अपनी क़यामगाह के तौर पर चुन लिया और वहाँ दीनी, सकाफ़ती और तबलीगी सरगर्मियों में मसरूफ हो गए। आपने अपनी औलाद के साथ मकारिमे अख़लाक़ को आम किया और अहले बैत अलैहिमुस्सलाम की सकाफ़त को क़ुम और उसके इर्द-गिर्द में फैलाया। इसी तरह आपने समाजी ताल्लुक़ात और क़बाइल व अक़वाम के आपसी रिश्तों में भी अहम किरदार अदा किया।
हज़रत मूसा मुबरक़ा अलैहिस्सलाम की नस्ल के कुछ अफ़राद करीमा-ए-अहले बैत हज़रत फ़ातिमा मासूमा सलामुल्लाह अलैहा के रौज़ा ए मुबारक के मुतवल्ली रहे, और इसी तरह दूसरे रौज़ों, मस्जिदों और औक़ाफ़ के इंतेज़ामात के ज़िम्मेदार भी रहे।
इस ख़ानदान के बुज़ुर्गों ने तीसरी और चौथी सदी हिजरी में क़ुम, काशान, आबह और उनके नज़दीकी इलाक़ों में नक़ाबत-ए-सादात की ज़िम्मेदारी संभाली थी। इसी तरह “अमीरुल हाज” का ओहदा भी इन्हीं को सुपुर्द किया गया था। अहले क़ुम ने उनकी दीनी, तबलीगी और समाजी क़ियादत को दिल-ओ-जान से कबूल किया था।
क़ुम के रौज़ों और मस्जिदों, और मशहदे अर्दहाल (सुल्तान अली इब्ने इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के रौज़े) जैसे मक़ामात की तौलिएत के फरामीन बाद की सदियों में भी — मसलन तैमूरिया, सफ़विया और क़ाजारिया दौर में — इन्हीं सादात के नाम पर जारी होते रहे, जिनके दस्तावेज़ आज भी मौजूद हैं। इन हज़रात ने दूसरे मज़हबी ओहदे भी संभाले, जिनमें इमामत-ए-जमाअत और तबलीग़ व ख़िताबत शामिल हैं।
आपकी टिप्पणी