हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,आयतुल्लाहिल उज़्मा शेख अबुलक़ासिम क़ुम्मी रहमतुल्लाह अलैह का जन्म पवित्र क़ुम शहर में सन 1280 हिजरी में एक धार्मिक और विद्वान परिवार में हुआ। आपके अज़ीम पिता, मरहूम मुल्ला मुहम्मद तक़ी रहमतुल्लाह अलैह भी क़ुम के अज़ीम उलेमा में शुमार होते थे। हालांकि आपके जन्म का सही वर्ष किसी स्रोत में स्पष्ट रूप से उल्लेखित नहीं है, लेकिन चूँकि आप सन 1353 हिजरी में 70 वर्ष से अधिक आयु में इस दुनिया से रुख़सत हुए, इसलिए आपकी पैदाइश का साल लगभग 1280 हिजरी माना जाता है।
आयतुल्लाहिल उज़्मा शेख अबुल क़ासिम ने प्रारंभिक शिक्षा, अदब और शुरुआती सतहों की शिक्षा क़ुम, काशान और इस्फ़हान में प्राप्त की। आप ने यह शिक्षा आयतुल्लाह शेख मुहम्मद हसन नादी रहमतुल्लाह अलैह (किताब रद्दुश शेखिया के लेखक), आयतुल्लाह हाज शेख मुहम्मद जवाद क़ुम्मी (क़ुम के जलीलुल-क़द्र आलिम), आयतुल्लाह मुल्ला मुहम्मद नराक़ी रहमतुल्लाह अलैह, आयतुल्लाह मीरज़ा फ़ख़रुद्दीन नराक़ी रहमतुल्लाह अलैह और आयतुल्लाह हाज आग़ा मुनीरुद्दीन बुरूजर्दी रहमतुल्लाह अलैह से हासिल की।
उसके बाद आप तेहरान गए और आयतुल्लाह मीरज़ा मुहम्मद हसन आशतियानी रहमतुल्लाह अलैह से किताब "र'साइल" पढ़ी। इसी दौरान आपने अदब और ख़ुशख़ती जैसे फ़न में भी महारत हासिल की।
नजफ़ अशरफ का सफर:
तेहरान में दीनी तालीम हासिल करने के बाद आप ने 'बाब-ए-मदीनतुल इल्म' अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम के पवित्र शहर का रुख़ किया और सन 1305 हिजरी में नजफ़-ए-अशरफ़ के लिए रवाना हुए। वहाँ कई वर्षों तक गरीबी, तंगी और अन्य मुश्किलों के बावजूद आप ने अत्यंत मेहनत और लगन के साथ अपना इल्मी और दीनी सफर तय किया।
नजफ़ अशरफ़ में आपने आयतुल्लाहिल उज़्मा हाज आक़ा रज़ा हमदानी रहमतुल्लाह अलैह (किताब मिस्बाहुल फ़क़ीह फ़ी शरह शरीअतुल-इस्लाम के लेखक), आयतुल्लाहिल-उज़्मा हाज मीरज़ा हुसैन ख़लीली तेहरानी रहमतुल्लाह अलैह, आयतुल्लाहिल-उज़्मा मुहम्मद काज़िम ख़ुरासानी रहमतुल्लाह अलैह (किफ़ायतुल-उसूल और फ़वायदुल उसूल के लेखक), तथा आयतुल्लाहिल-उज़्मा सैय्यद मुहम्मद काज़िम तबातबाई यज़दी रहमतुल्लाह अलैह (ऊरवतुल-वुस्क़ा और हाशिया मकासिब के लेखक) जैसे महान उलमा और फ़ुक़हा से तालीम हासिल की और इज्तेहाद के दर्जे पर फ़ायेज़ हुए।
आयतुल्लाहिल उज़्मा हाज शेख अबुलक़ासिम क़ुम्मी रहमतुल्लाह अलैह ने इस्फ़हान, काशान और नजफ़ में अपनी शिक्षा के दौरान आयतुल्लाह मीरज़ा अबुल मआली कलबासी रहमतुल्लाह अलैह (अल-जबर वत्तफ़्वीज़ और अल-इस्तिश्फ़ा बिल-तुर्बतिल-हुसैनिया के लेखक), आयतुल्लाह मीरज़ा मुहम्मद हाशिम चहारसूक़ी इस्फ़हानी रहमतुल्लाह अलैह (मबानीउल-उसूल, उसूल आले रसूल के लेखक), आयतुल्लाह हाज आगा मुनीरुद्दीन बुरूजर्दी इस्फ़हानी रहमतुल्लाह अलैह, आयतुल्लाह सैय्यद मुहम्मद अलवी बुरूजर्दी काशानी रहमतुल्लाह अलैह, आयतुल्लाहिल-उज़्मा आख़ुंद मुल्ला मुहम्मद काज़िम ख़ुरासानी रहमतुल्लाह अलैह, और आयतुल्लाहिल-उज़्मा सैय्यद मोहम्मद काज़िम तबातबाई यज़दी रहमतुल्लाह अलैह जैसे महान उलमा और फ़ुक़हा से इजाज़ा-ए-र'वायत प्राप्त किया और हदीस व फ़िक़्ह के उलूम में उच्च स्थान प्राप्त किया।
आपकी शिक्षा के कठिन हालात के संबंध में आयतुल्लाहिल-उज़्मा सैय्यद मूसा शुबैरी ज़ंजानी दाम ज़िल्लुह ने आक़ा हाज मीरज़ा महदी वेलाई रहमतुल्लाह अलैह (जो आस्ताने क़ुद्स रज़वी की पुस्तकों के हस्तलिखित संस्करणों की सूची के विद्वान लेखक थे) के हवाले से एक वाक़्या बयान किया।
उन्होंने बताया कि एक बार आयतुल्लाहिल-उज़्मा शेख अबुलक़ासिम क़ुम्मी रहमतुल्लाह अलैह नजफ़-अशरफ़ आए और बातचीत के दौरान फ़रमाया: ‘आजकल आप तुल्लाब (स्टूडेंटस) का हाल बहुत आरामदायक और शाही है। हमारे ज़माने में आम छात्र हफ्ते में सिर्फ एक बार पका हुआ खाना खाते थे, अमीर छात्र हफ्ते में दो बार, और ग़रीब छात्र महीने में सिर्फ एक बार पका हुआ खाना खा पाते थे।
एक बार ऐसा भी हुआ कि मैंने दो महीनों तक गोश्त वाला खाना नहीं खाया था। एक दिन मैं एक छात्र के कमरे के पास से गुज़र रहा था। देखा कि वह हांडी से गोश्त का क़ोरमा कटोरे में निकाल रहा है। गोश्त के क़ोरमे की खुशबू हवा में फैल गई, जिससे मेरे कदम लड़खड़ा गए। उस छात्र ने मुझे खाने की दावत दी, लेकिन मैंने स्वीकार नहीं किया और कहा: 'मैं दोपहर का खाना खा चुका हूँ' — जबकि उस से पहले मैंने केवल कुछ मूली खाकर अपनी भूख मिटाई थी।
क़ुम वापसी:
हौज़ा-ए-इल्यामिया नजफ़-अशरफ़ में उच्च वैज्ञानिक और फ़िक़्ही स्थान प्राप्त करने के बाद आप क़ुम-ए-मुक़द्दसा वापस आ गए। क़ुम के उलमा और मोमिनीन ने आपका गर्मजोशी से स्वागत किया और आपको अपना धार्मिक पेशवा मान लिया। आप ने मस्जिद इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम क़ुम में नमाज़-ए-जमात स्थापित की, फ़िक़्ह और उसूल की तालीम दी, लोगों के मसाइल किए, और हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा की ज़रीह, हरम और नफ़ीसात के ख़ज़ाने की निगरानी जो एक पैतृक जिम्मेदारी थी आपके सुपुर्द की गई। इसी वजह से आपका एक मशहूर लक़ब ‘ख़ाज़िनुल हरम’ भी है। क़ुम और उसके आसपास के लोग आपकी तक़्लीद करने लगे।
आप ने क़ुम-ए-मुक़द्दसा में लंबे समय तक फ़िक़्ह की तालीम दी, यहाँ तक कि पढ़े-लिखे व्यापारियों को भी "मकासिब" किताब पढ़ाया करते थे। आप आयतुल्लाहिल-उज़्मा मीरज़ा मुहम्मद हसन शीराज़ी रहमतुल्लाह अलैह की तरह इस अंदाज़ में पढ़ाते थे कि आपके शागिर्द आपसे खुलकर बहस-मुबाहिसा करते थे। हौज़ा-ए-इल्मिया क़ुम के संस्थापक आयतुल्लाहिल-उज़्मा शेख अब्दुलकरीम हायरी रहमतुल्लाह अलैह अपने उसूल की क्लास में आपके विचारों का ज़िक्र करते थे और उनमें से कुछ को स्वीकार भी करते थे।
आपके शिष्यों की लंबी सूची है, जिनमें रहबरे कबीर इंक़ेलाब आयतुल्लाहिल-उज़्मा सैय्यद रू़हुल्लाह मूसवी ख़ुमैनी क़ुद्दिस सर्रहु और आयतुल्लाहिल-उज़्मा सैय्यद मुहम्मद रज़ा मूसावी गुलपायगानी रहमतुल्लाह अलैह के सम्मानित नाम सबसे अग्रणी हैं।
इसी तरह आपने विभिन्न धार्मिक और वैज्ञानिक विषयों पर पुस्तकें भी लिखीं। बताया जाता है कि आपने अपना "रेसाला-ए-अमलिया" छपाई के लिए प्रेस में भेजा था, लेकिन जैसे ही आयतुल्लाहिल-उज़्मा शेख अब्दुलकरीम हायरी रहमतुल्लाह अलैह के क़ुम आने की खबर मिली, तो आपने उसे तुरंत वापस मँगवा लिया ताकि लोग केवल एक ही मरजा-ए-तक़लीद की पैरवी करें।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हौज़ा-ए-इल्मिया क़ुम की स्थापना के लिए आयतुल्लाहिल-उज़्मा शेख अब्दुलकरीम हायरी रहमतुल्लाह अलैह को क़ुम में स्थायी रूप से रहने की पहली दावत भी आप ने ही दी थी, और जब वे यहाँ ठहरे तो हौज़ा ए इल्मिया की स्थापना में आप ने उनकी पूरी सहायता और मदद की।
इसी तरह यह भी बताया जाता है कि जब ईद-ए-ग़दीर के दिन मोमिनीन आपको मुबारकबाद देने के लिए आपके घर आये, तो आपने उनसे कहा: ‘लोगों! हम जहाँ जा रहे हैं, आप भी वहीं चलें।
हमारा अलम और हमारी पहचान एक ही है—(आयतुल्लाहिल-उज़्मा शेख अब्दुलकरीम हायरी रहमतुल्लाह अलैह) उन्हीं के साए में रहें और उन्हीं से जुड़े रहें।’ फिर आप सभी को साथ लेकर आयतुल्लाहिल-उज़्मा शेख अब्दुलकरीम हायरी रहमतुल्लाह अलैह के पास गए।
आयतुल्लाहिल-उज़्मा हाज शेख अबुलक़ासिम क़ुम्मी रहमतुल्लाह अलैह की ज़िंदगी बेहद सादी थी। अपने उच्च वैज्ञानिक और धार्मिक स्थान के बावजूद उनके यहाँ कोई नौकर नहीं था। सारे काम, यहाँ तक कि बाज़ार से ख़रीदारी और सामान लाना भी वे स्वयं ही करते थे।
हाँ, वे छात्रों के समय को बहुत महत्व देते थे। बताया जाता है कि जब वे नजफ़-अशरफ़ आये और हौज़ा-ए-इल्मिया नजफ़ के छात्रों ने उनसे मुलाकात की इच्छा जताई, तो उन्होंने अपने पुत्र के माध्यम से संदेश भेजा कि जिस समय आप लोग चाय पीते हैं, हम उसी समय आपसे मिलने आएँगे, ताकि आपके दर्स और बहस में कोई बाधा न आए।
आयतुल्लाहिल-उज़्मा हाज शेख अबुलक़ासिम क़ुम्मी रहमतुल्लाह अलैह ईमान और ख़ुलूस का पूर्ण नमूना थे, कि विद्वानों और निरीक्षकों ने कहा कि उन्हें देखकर लोग आचार-संहिता का पाठ सीखते थे। आप सादात (पैग़ंबर के वंशज) का अत्यंत सम्मान करते थे, धनिकों और हुकूमत के लोगों से दूर रहते थे और उनके उपहार भी स्वीकार नहीं करते थे।
बताया जाता है कि एक बार क़ुम के हाकिम ने आपको कुछ रक़म (पैसा) भेजी, जिसे आपने लौटा दिया। तब आपके पुत्र ने कहा: 'बाबा! आपने रक़म लौटा दी जबकि हमारी हालत अच्छी नहीं है।' आपने फ़रमाया: 'अल्लाह हमें अक़्ल दे और तुम्हें दीनी दे। यह हमें पैसा देते हैं और उसके बाद हमसे कुछ अपेक्षा रखते हैं, इसलिए हम उनका पैसा नहीं ले सकते।
ख़ुलूस और दुनिया से दूरी आपकी खासियत थी। एक दिन आप नमाज़-ए-जमाअत के लिए गए और देखा कि नमाज़ी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। बिना जमाअत क़ायम किए तुरंत घर लौट आए। जब लोगों ने पूछा, तो आपने फ़रमाया: 'नमाज़ियों की बहुतायत से मैं खुश हो गया था, मैंने महसूस किया कि आज क़स्द-ए-क़ुरबत नहीं है, इसलिए वापस आ गया।
आखिरकार 11 जुमादीउस्सानी सन 1353 हिजरी को यह इल्म, फ़िक़्ह और ख़ुलूस का यह सूरज क़ुम-ए-मुक़द्दसा में डूब गया। ग़ुस्ल, कफ़न और नमाज़ के बाद, आप को करीमा-ए-अहल-ए-बैत हज़रत फ़ातिमा मासूमा सलामुल्लाह अलैहा के पवित्र रौज़ा में दफनाया गया।
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