۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
आगा

हौज़ा / इमाम जुमआ मुंबई ने कहा, शैतान ने पहले ही दिन से यह स्वीकार कर लिया था कि अल्लाह के सच्चे और नेक बंदों पर उसका कोई बस नहीं चलेगा,उसका बस उन बंदों पर चलेगा जो अल्लाह के सच्चे बंदे नहीं होंगें।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,मुंबई के इमाम-ए-जुमआ हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैयद अहमद अली आबदी ने शिया खोजा जामा मस्जिद, मुंबई में जुमे के खुत्बे में कहा कि रसूल ए अकरम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा स.अ.व. ने दुनिया और आखिरत में हमारी भलाई और हमारी कामयाबी के लिए जो बातें बयान की हैं अगर वाकई में हम और पूरी क़ायनात उस पर अमल करने लगें, तो यह क़ायनात अमन और सुकून का गहवारा बन जाएगा।

लड़ाई झगड़े और कत्ल-ओ-गारत (खून-खराबा) से दुनिया महफूज़ हो जाएगी लेकिन शैतान ने ग़ल्बा (कब्जा) कर लिया है और नफ्स-ए-अम्मारा (बुरी इच्छाओं) की हुकूमत है।

तो ज़मीन पर हुकूमत की खातिर एक इंसान दूसरे इंसान का खून बहा रहा है और यह एहसास नहीं है कि जिस जमीन पर हम खून बहा रहे हैं, हमें एक दिन इसी जमीन के अंदर जाना है और जब जमीन के अंदर जाएंगे, तो जो कुछ हमने जमीन के ऊपर किया है उसका एक-एक हिसाब लिया जाएगा, और उस वक्त हमारी कोई मदद और पुकार सुनने वाला नहीं होगा।

आगे उन्होंने कहा,शैतान ने पहले ही दिन यह मान लिया था कि अल्लाह के सच्चे और नेक बंदों पर उसका कोई काबू नहीं होगा उसका बस उन बंदों पर चलेगा, जो अल्लाह के सच्चे बंदे नहीं होंगें।

अल्लाह के सच्चे बंदे यानी वह बंदे जिनके वजूद में अल्लाह के अलावा कोई दूसरी चीज़ नहीं है वहां शैतान का कोई असर नहीं है।

कुरान खुद कहता है कि शैतान उन्हीं लोगों को गुमराह करता है जो उसकी विलायत सरपरस्ती को क़ुबूल कर लें यानी शैतान को हम खुद मौका देते हैं अपने ऊपर कब्जा करने का।

अगर हम उसे मौका न दें और इस हालात में अल्लाह से पनाह मांगें और जब हमें यह एहसास हो जाए कि हमारा नफ्स-ए-अम्मारा (बुरी इच्छाएं) और हमारी ख्वाहिशात (इच्छाएं) और शैतान मिलकर हम पर ग़ालिब (हावी) होना चाहते हैं तो उस वक्त हमारी जिम्मेदारी है कि अपनी कमजोरी को महसूस करते हुए अल्लाह, रसूल और उसके औलिया अ.स. का सहारा लें उन्हें पुकारें।

मौलाना सैयद अहमद अली आबदी ने जियारत-ए-मोमिन के बारे में एक हदीस बयान करते हुए कहा,आज हमारे यहां जो मोबाइल आ गया है, उससे एक-दूसरे के घर आना-जाना कम हो गया है, मुलाकातें,मिलने का सिलसिला सीमित हो गई हैं।

जिससे जिंदगी की बरकतें (खुशहाली) भी कम हो गई हैं जब हमारे यहां दोस्त आते थे अज़ीज़ (रिश्तेदार) आते थे, मेहमान आते थे, तो बातचीत के साथ-साथ बरकतें भी लाते थे अच्छाइयां लाते थे, बुराइयां ले जाते थे और अच्छाइयां छोड़ कर जाते थे घरों से नहूसत (मनहूसियत) ले जाते थे और बरकतों को छोड़ जाते थे।

मौलाना सैयद अहमद अली आबदी ने अमीरूल मोमिनीन, इमाम अली अ.स. की हदीस का हवाला देते हुए कहा,
अगर अल्लाह ने गुनाहों पर अज़ाब (सज़ा) का वादा न भी किया होता तब भी अल्लाह की नेमतों के शुक्र का तकाजा यही होता कि इंसान गुनाह न करे।

वह बच्चा जो मां-बाप के डर से ठीक रहता है, और दूसरा बच्चा जो मां-बाप की खिदमतों सेवाओं को देखकर उनकी नाफरमानी नहीं करता तो कौन बेहतर है?

वह बच्चा अच्छा है, जिसे मां-बाप का खौफ सीधे रास्ते पर रखता है, या वह बच्चा अच्छा है, जिसे मां-बाप की मोहब्बत और शफक़त (स्नेह) सीधे रास्ते पर रखती है? वह बच्चा कहता है कि मुझे मां-बाप का खौफ नहीं है, लेकिन मेरे मां-बाप ने मेरे लिए इतनी मेहनत की है।

इतनी मुशक्कत (परिश्रम) की है कि मैं जिंदगी भर उनकी खिदमत (सेवा) करूं, तब भी उनका हक़ अदा नहीं कर सकता। मां-बाप की मोहब्बतें मुझे यह इजाज़त नहीं देतीं कि मैं उनके हुक्म की खिलाफ़वरज़ी (अवज्ञा) करूं।

तो कौन सा बच्चा अच्छा है? उसी तरह, वह मोमिन जो अज़ाब के खौफ से गुनाह नहीं करता और दूसरा वह मोमिन जो अल्लाह की नेमतों के शुक्रिया के तौर पर गुनाहों से बचता है, कहता है: "ऐ परवरदिगार! जब सुबह आंख खोलता हूं, तो हर तरफ तेरी नेमतें ही देखता हूं, तेरा रहम और करम ही महसूस करता हूं।

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