मंगलवार 1 जुलाई 2025 - 17:08
यज़ीदियत और वर्तमान समय के प्रतीक / कर्बला के आईने में आज की तस्वीर

हौज़ा / मानव इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएँ घटी हैं जो समय के साथ भुला दी गईं, लेकिन कर्बला एक ऐसी घटना है जो हर युग को झकझोरती है। इमाम हुसैन अ.स. का यज़ीद की बैअत से इनकार केवल एक राजनीतिक मतभेद नहीं था, बल्कि यह सत्य और असत्य के बीच एक स्पष्ट और अटल रेखा खींचने का नाम था। यज़ीद केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचारधारा, एक व्यवस्था और शासन के एक ऐसे तरीके का प्रतीक था जो अत्याचार, जबरदस्ती, धोखा,दीन में विकृति और भ्रष्ट सत्ता का प्रतीक बन चुका था। यही यज़ीदी सोच हर युग में नए नामों और नए चेहरों के साथ सामने आती रही है, और आज भी हमारे आसपास मौजूद है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , मानव इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएँ घटी हैं जो समय के साथ भुला दी गईं, लेकिन कर्बला एक ऐसी घटना है जो हर युग को झकझोरती है। इमाम हुसैन अ.स. का यज़ीद की बैअत से इनकार केवल एक राजनीतिक मतभेद नहीं था, बल्कि यह सत्य और असत्य के बीच एक स्पष्ट और अटल रेखा खींचने का नाम था।

यज़ीद केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचारधारा, एक व्यवस्था और शासन के एक ऐसे तरीके का प्रतीक था जो अत्याचार, जबरदस्ती, धोखा,दीन में विकृति और भ्रष्ट सत्ता का प्रतीक बन चुका था। यही यज़ीदी सोच हर युग में नए नामों और नए चेहरों के साथ सामने आती रही है, और आज भी हमारे आसपास मौजूद है। 

यज़ीदियत एक व्यापक विचारधारा का नाम है, जिसके लक्षणों में धर्म को सत्ता का औज़ार बनाना, सच्चाई को दबाना, अत्याचारी को संरक्षण देना, मज़लूम की आवाज़ को कुचलना और झूठ को सच के रूप में पेश करना शामिल है।

आज जब हम अपने समय पर नज़र डालते हैं, तो यज़ीदियत के ये सभी प्रतीक विभिन्न रूपों में स्पष्ट दिखाई देते हैं। इज़राइल द्वारा निहत्थे फिलिस्तीनियों पर की जा रही बमबारी, मस्जिदों और अस्पतालों को निशाना बनाना, बच्चों और महिलाओं की हत्या, आधुनिक यज़ीदियत की खुली मिसाल है।

यह अत्याचार की आग केवल इज़राइल तक सीमित नहीं, बल्कि इसके पीछे वह वैश्विक साम्राज्यवाद खड़ा है, जिसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा है। अफ़गानिस्तान से लेकर इराक, सीरिया और यमन तक, जहाँ कहीं भी मानव खून सस्ता बहाया जा रहा है, वहाँ इस साम्राज्यवाद की छाया दिखाई देती है। 

कर्बला के समय भी अत्याचार करने वाले एक तरफ थे और चुप रहने वाले दूसरी तरफ। आज के मुस्लिम शासक, जो फिलिस्तीन, यमन, लेबनान या अन्य मज़लूम क्षेत्रों के लिए कुछ कहने या करने में असमर्थ हैं, वे कूफ़ा और शाम के उन चुप, स्वार्थी और संवेदनहीन लोगों की याद दिलाते हैं। दुख की बात यह है कि दुनिया के अधिकांश शक्तिशाली देश इस अत्याचार पर मूक दर्शक बने बैठे हैं, और मानवाधिकारों के ठेकेदार भी उस समय गूँगे नज़र आते हैं जब अत्याचार मुसलमानों पर होता है। 

सिर्फ शासक ही नहीं, आम लोगों की संवेदनहीनता भी यज़ीदियत को ताक़त देती है। कर्बला में इमाम हुसैन अ.स.की एका कीपन का एक बड़ा कारण कूफ़ा के उन लोगों की चुप्पी थी, जो सच्चाई को पहचानते थे लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं रखते थे। आज भी हम ऐसे ही समाज में जी रहे हैं, जहाँ अत्याचारी के खिलाफ बोलना अपराध समझा जाता है और मज़लूम के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले को अकेला छोड़ दिया जाता है। अगर हम अत्याचारी के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाते, तो हम स्वयं उस अत्याचार का हिस्सा बन जाते हैं, भले ही हम व्यावहारिक रूप से उसमें शामिल न हों। 

इस पूरी अंधेरी स्थिति में आशा की कुछ रौशन किरणें भी मौजूद हैं। फिलिस्तीनी लोग, जो पिछले कई दशकों से इज़राइली अत्याचार का शिकार हो रहे हैं, लेकिन आज भी न झुके हैं, न बिके हैं और न ही दबे हैं, वे वास्तव में हुसैनी खेमे के वारिस हैं। उनके बच्चे, माताएँ और मुजाहिद हमें उस खेमे की याद दिलाते हैं, जहाँ इमाम हुसैन (अ.स.), हज़रत ज़ैनब (स.अ.), हज़रत अब्बास (अ.स.) और अली अकबर (अ.स.) ने अत्याचार के खिलाफ सीना तानकर शहादत को गले लगाया था।

इसी तरह ईरान, जो वैश्विक साम्राज्यवादी ताक़तों के सामने सिर उठाकर खड़ा है, सभी प्रतिबंधों, प्रचार और साजिशों के बावजूद जिस तरह फिलिस्तीन, यमन, लेबनान और इराक के मज़लूमों का साथ दे रहा है और समय के यज़ीदों को दुनिया के सामने बेनकाब कर रहा है, वह भी उसी हुसैनी सोच का सिलसिला है, जिसने बातिल के सामने डट जाने का हौसला दिया। 

कर्बला हमें यह संदेश देती है कि अत्याचार के खिलाफ चुप्पी भी एक अपराध है हुसैनियत की माँग सिर्फ मातम मनाना या आँसू बहाना नहीं, बल्कि समय के यज़ीद के खिलाफ हर मैदान में आवाज़ उठाना है।

इमाम हुसैन (अ.स.) ने फरमाया था मैं अत्याचार और फितने के खिलाफ, अपने नाना (पैग़म्बर) की उम्मत की सुधार के लिए निकला हूँ।यह ऐलान आज भी हमें निमंत्रण देता है कि हम अत्याचार की हर शक्ल से टकराएँ, चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो या बौद्धिक। 

यह मुहर्रम विशेषांक, जो इस समय आपके हाथों में है, वास्तव में उसी हुसैनी सिलसिले का एक सचेतन इज़हार है, जो सदियों से मृत ज़मीरों को झकझोरता, अत्याचार के खिलाफ जागृति पैदा करता और हक़ के परचम को सरबुलंद करता चला आ रहा है।

यह सिर्फ एक पत्रिका नहीं, बल्कि इमाम हुसैन (अ.स.) और वाक़ए-ए-कर्बला का जीवित संदेश है, जो हर साल नई पीढ़ी को यह याद दिलाता है कि अत्याचारी कभी भी अजेय नहीं है, अगर हुसैनी सोच जीवित हो। इमाम हुसैन (अ.स.) की कुर्बानी ने न सिर्फ अपने समय के यज़ीद को बेनकाब किया, बल्कि आने वाले हर युग के जालिमों के खिलाफ हौसले, सब्र, स्थिरता और बुद्धि का ऐसा दीपक जलाया, जो आज भी अंधेरों में रौशनी बाँट रहा है, और यह मुहर्रम विशेषांक उसी दीपक की एक चमकती किरण है। 

हमें समझना चाहिए कि हुसैनियत एक जीवित और अमर तहरीक है, और हर वह व्यक्ति, संस्था या कौम जो अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती है, वह हुसैनी है और जो चुप दर्शक बनती है, वह यज़ीदी खेमे को अपनाए हुए है। हमें तय करना है कि हम किस तरफ खड़े हैं। 

अंत में दुआ है कि ए आल्लह ! दुनिया से ज़ुल्म और अत्याचार का अंत कर और दुनिया के मुक्तिदाता, इमाम हुसैन (अ.स.) के वारिस (इमाम मेंहदी) के ज़ुहूर में तजील फरमा !आमीन

वालहम्दुलिल्लाहि रब्बिल आलमीन।

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