गुरुवार 18 सितंबर 2025 - 09:52
इमाम हसन अलैहिस्सलाम की सुल्ह

इमाम हसन अलैहिस्सलाम की सुल्ह

लेखक;सैयद अली हाशिम आब्दी

हौज़ा / अंबिया और अइम्मा अ.स. की अताअत वाजिब है,हर मैदान में चाहे जंग करें या सुल्ह, जैसा कि हज़रत रसूल अल्लाह ने फरमाया,अल-हसन वल हुसैन इमामान क़ामा औ क़अदा" यानी हसन व हुसैन अ.स. इमाम हैं चाहे क़ियाम करें या सुल्ह करें।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,अल्लाह तबारक व तआला ने न तो इंसान को बेकार पैदा किया है और न ही पैदा करके उसे लावारिस छोड़ा है। बल्कि जिस तरह इंसानी ख़िल्क़त में उसने हिकमतें रखीं और ख़ास एहतिमाम किया, उसी तरह उसकी हिदायत का भी ख़ास इंतेज़ाम किया और अन्बिया व मुर्सलीन की बेअसत और किताबों व आसमानी सहीफ़ों का नुज़ूल उसी सिलसिले की कड़ियाँ थीं।

ख़त्मे नबुव्वत के बाद भी रहमान व रहीम परवरदिगार ने इंसान को बेसहारा नहीं छोड़ा बल्कि सिलसिले-ए-इमामत के ज़रिये उसकी हिदायत का इंतेज़ाम किया। और यह कोई मुबालेग़ा नहीं बल्कि हक़ीक़त है कि ग़ैबत-ए-मासूम में भी उसने हिदायत का इंतज़ाम अपने ऐसे बंदों के सुपुर्द किया जो सिर्फ़ उलूमे अहलेबैत (अ.स.) के आलिम ही नहीं बल्कि उनका किरदार भी मासूमीन (अ.स.) के किरदार से इतना क़रीब है कि ख़ुद मासूम इमाम ने फ़रमाया: "नफ़्स की सियानत (हिफाज़त) व परहेज़गारी, दीन की हिफ़ाज़त, नफ़्सानी ख़्वाहिशों की मुख़ालेफ़त और मौला की इताअत इन फ़ुक़हा का मख़्सूस इम्तियाज़ है" यानी यह जिहादे अकबर के मैदान के ग़ाज़ी व मुजाहिद हैं।

लेकिन याद रहे कि अल्लाह माबूद है और हम उसके अब्द। यानी हम अल्लाह के बंदे और उसके फ़र्मांबरदार हैं। मंज़िले इताअत में अब्द पर लाज़िम है कि मौला की बिना चूँ व चरा इताअत करे। अब्द को हक़ नहीं कि मौला के फ़ैसले पर एतराज़ करे, वह भी जब मौला ख़ुद क़ादिरे मुतलिक परवरदिगार हो।

कभी-कभी हो सकता है कि हम वजह न समझ सकें कि आख़िर अल्लाह ने शैतान को मोहलत क्यों दी? फिरऔन की रस्सी क्यों ढीली रखी? इसी तरह नमरूद, शद्दाद और हामान वग़ैरह को क्यों मौका दिया? लेकिन जब अल्लाह ने रस्सी खींची तो सबकी समझ में आ गया कि क़ादिरे मुतलिक और हक़ीक़ी माबूद वही ख़ुदा-ए-वाहिद व अहद है।

अल्लाह ने जिस तरह अपनी इताअत बन्दों पर वाजिब की है, उसी तरह अपने रसूल (स.अ.व.अ.) और "उलिल अम्र" की इताअत भी बन्दों पर वाजिब की है:
﴿یا أَیُّهَا الَّذِینَ آمَنُوا أَطِیعُوا اللَّهَ وَأَطِیعُوا الرَّسُولَ وَأُولِی الْأَمْرِ مِنْكُمْ﴾ (सूरह निसा, आयत 59)

इस आयत की रोशनी में जिस तरह अल्लाह की बिना किसी क़ैद व शर्त के इताअत वाजिब है, उसी तरह रसूल और "उलिल अम्र" की भी इताअत वाजिब है। और जब अल्लाह ने उनकी इताअत को अपनी इताअत के साथ रखा है तो इन ज़वात-ए-मुक़द्दसा की इस्मत भी साबित है, क्योंकि हकीम व क़ादिर कभी गुनहगार को अपना क़ुर्ब नहीं देगा और न ही उसकी इताअत को वाजिब करेगा ता कि किसी को नाफरमानी का मौक़ा ना मिले!

रसूलुल्लाह (स.अ.व.) से पूछा गया कि ये "उलिल अम्र" कौन हैं जिनकी इताअत हम पर फ़र्ज़ है? आपने फ़रमाया: मेरे बाद अम्मा हैं, जिनमें पहले अली (अ.स.) हैं, फिर हसन (अ.स.), फिर हुसैन (अ.स.)… और आख़िरी इमाम मेहदी क़ाएम (अ.स.) हैं। (अत्तिब्यान फ़ी तफ़सीरिल क़ुरआन, शैख़ तूसी, )

रसूलुल्लाह (स.अ.व.अ.) ने फ़रमाया: "अल-हसन वल हुसैन इमामान क़ामा औ क़अदा" यानी हसन व हुसैन (अ.स.) इमाम हैं चाहे क़ियाम करें या सुल्ह करें। (बिहारुल अनवार 43/291, 44/2)

इस इर्शादे नबवी के बाद सिब्तैन-ए-मुस्तफ़ा (अ.स.) की बिना क़ैद व शर्त इताअत सब पर वाजिब है, चाहे हमें सुल्ह व जंग के अस्रार समझ में आएँ या न आएँ।

इन्हीं अदमे-फहमी के मसाइल में से एक अहम मसअला इमाम हसन (अ.स.) की सुलह है। जो कल भी बहुतों को हज़्म न हुई और आज भी बहुतों के लिए क़ाबिले फहम नहीं। ख़ुद ख़्वास ने इमाम (अ.स.) से पूछा कि आपने सुल्ह क्यों की?

आप (अ.स.) ने फ़रमाया: अगर रसूलुल्लाह (स.अ.व.अ.) कोई हुक्म दें तो मानोगे? उन्होंने कहा: हाँ। तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया: रसूलुल्लाह (स.अ.व.अ.) ने फ़रमाया: "हसन व हुसैन इमाम हैं चाहे सुल्ह करें या जंग करें।" यह सुनकर सवाल करने वाले ख़ामोश हो गए।

हक़ीक़त यह है कि अगर हम अपने अकीदे पर ध्यान दें कि अल्लाह तबारक व तआला ने जिस तरह अपनी इताअत, उसी तरह रसूल व अइम्मा (अ.स.) की इताअत भी बिना क़ैद व शर्त हम पर वाजिब की है, तो न सिर्फ़ इमाम हसन (अ.स.) बल्कि किसी भी मासूम (अ.स.) के बारे में कभी हमारे ज़ेहन में कोई शक पैदा ही नहीं होगा।

लेकिन आखिर क्यों इमाम हसन (अ.स.) ने सुल्ह फ़रमाई?
तो तारीख़ी किताबों से चंद बातें सामने आती हैं:

दीन की बक़ा, अपनी व शीयाने आले-मुहम्मद (स.अ.) की जान की हिफ़ाज़त, लोगों का साथ ना देना जैसा कि ख़ुद इमाम (अ.स.) ने इस तरफ इशारा किया, लोगों का जंग से उकता जाना, लश्कर की बेवफ़ाई, कमांडरों की ख़यानतें, ख़्वारिज का ख़तरा, खून-ख़राबे से बचना वग़ैरह…

इन्हीं वजहों से इमाम हसन (अ.स.) ने सुल्ह फ़रमाई। लेकिन दुश्मन इतना ख़ौफ़ज़दा था कि उसने आपकी ही शर्तों पर सुल्ह की, अगरचे बाद में सबका इंकार कर दिया और किसी भी शर्त पर अमल न किया।

सुलह की शर्तें:

हाकिम-ए-शाम किताबुल्लाह व सुन्नते रसूल (स.अ.व.अ.) पर अमल करेगा।मौला अली (अ.स.) पर सब्ब व शतम (बुरा भला कहना) बंद किया जाएगा।हाकिम-ए-शाम अपने बाद किसी को जानशीन मुअय्यन नहीं करेगा। उसके बाद इमाम हसन (अ.स.) उम्मत के अमीर होंगे और अगर वे न रहे तो इमाम हुसैन (अ.स.) होंगे।
हर इंसान जहां भी हो अम्न व अमान से रहेगा।
इमाम (अ.स.) के अस्हाब व अंसार को मुकम्मल हिफ़ाज़त दी जाएगी।

अगर कोई यह पूछे कि जब किसी शर्त पर अमल ही न हुआ तो इस सुलह का नतीजा क्या निकला? तो जवाब यह है कि इस मोहलत से हाकिम-ए-शाम की हक़ीक़त और ज़्यादा लोगों पर वाज़ेह हो गई। अगरचे उसके सियाह कारनामों से कितनी बेगुनाह जाने गईं, मगर साहिबाने-बसीरत के लिए उसकी हक़ीक़त पूरी तरह आश्कार हो गई।

याद रहे, अइम्मा मासूमीन अलैहिमुस्सलाम अल्लाह की तरफ़ से उसकी मख़लूक़ पर हुज्जत और इमाम व रहबर हैं, जो कभी भी क़ाबिले-अज़्ल व नस्ब नहीं। लेकिन दुनियावी हुकूमत लोगों की हिमायत से ही क़ायम हो सकती है। इसलिए इमाम हसन अलैहिस्सलाम हुक्मे ख़ुदा व नस-ए-नबवी से इमाम व रहबर थे, कोई माने या न माने। लेकिन जब लोगों ने बर्हक़ इमाम की इताअत व हिमायत न की तो उन्होंने इस्लाम की बक़ा की ख़ातिर सुलह फ़रमाई।

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