रविवार 26 अक्तूबर 2025 - 14:51
हौज़ा ए इल्मिया ख़ुरासान शुरू से अब तक  इंक़ेलाब ए इस्लामी का अलमदार रहा है/मीरज़ा नाईनी एक मुकम्मल फ़िक्री और फ़िक़्ही निज़ाम का नाम हैं।

हौज़ा / मजलिस ए ख़ुबर्गान ए रहबरी के रुक्न आयतुल्लाह सैय्यद अहमद ख़ातमी ने मशहद में मरहूम आयतुल्लाहिल उज़्मा मीरज़ा नाईनी र.ह.की याद में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ़्रेंस के समापन सत्र में खिताब करते हुए कहा,हौज़ा ए इल्मिया ख़ुरासान शुरुआत से आज तक इस्लामी इंक़लाब का झंडाबरदार रहा है और उसने हमेशा समकालीन इतिहास में इंक़ेलाब ए इस्लामी और अवामी तहरीकों में अग्रणी भूमिका निभाई है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,मजलिस ए ख़ुबर्गान-ए-रहबरी के सदस्य आयतुल्लाह सैय्यद अहमद ख़ातमी ने मशहद में मरहूम आयतुल्लाहिल उज़्मा मीरज़ा नाईनी (रह.) की याद में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ़्रेंस के समापन सत्र में कहा कि हौज़ा-ए-इल्मिया ख़ुरासान शुरुआत से अब तक इस्लामी इंक़लाब का अलमरदार रहा है और आधुनिक इतिहास में हमेशा इक़लाबी और जन आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाता आया है।

उन्होंने कहा कि मरहूम मीरज़ा नाईनी न केवल फ़िक़्ह और उसूल के क्षेत्र में उच्चतम स्थान पर थे, बल्कि आध्यात्मिकता और राजनीति के क्षेत्र में भी उनका कोई मुकाबला नहीं था। उनके वैज्ञानिक और धार्मिक कार्य आज भी हौज़ात-ए-इल्मिया के लिए गर्व का कारण हैं।

आयतुल्लाह ख़ातमी ने कहा कि मीरज़ा नाइनी की शख्सियत एक पूरा वैचारिक और फ़िक़्ही सिस्टम थी जिसने कई पीढ़ियों के फुक़हा को प्रभावित किया। उनके फ़िक़ही विषय इबादात और मुआमलात के गहरे और सूक्ष्म सिद्धांतों पर आधारित हैं। वहीं उसूल के इल्म में वे एक नए  विचारधारा के संस्थापक माने जाते हैं। उनके शागिर्दों में आयतुल्लाह ख़ुई, आयतुल्लाह मिलानी और अन्य महान उलेमा शामिल हैं।

उन्होंने कहा कि मीरज़ा नाइनी ने धार्मिक तर्कशीलता को सामाजिक और राजनीतिक कार्य से जोड़ा, और अपनी वैज्ञानिक व व्यावहारिक ज़िंदगी से यह साबित किया कि दीन और सियासत को अलग नहीं किया जा सकता।उनकी मशहूर किताब तनबीहुल उम्मह व तनज़ीहुल मिल्लह” इस्लामी राजनीति की एक कुरआनी और अलवी व्याख्या पेश करती है। शहीद मुतह्हरी के अनुसार, किसी ने भी इस्लामी राजनीति के सिद्धांतों को इतने तर्कसंगत और व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत नहीं किया।

आयतुल्लाह ख़ातमी ने कहा कि मीरज़ा नाईनी के नज़दीक इस्तिबदाद से लड़ना सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि एक कुरआनी फर्ज़ था।उन्होंने अपनी किताब को अस्थायी रूप से रोकने के फ़ैसले से यह दिखाया कि उनका उद्देश्य दीन और मरजईयत की सुरक्षा और भ्रम से बचाव था।

उन्होंने याद दिलाया कि हौज़ा-ए-इल्मिया ख़ुरासान हमेशा ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मोर्चे की पहली पंक्ति में रहा है।1314 शम्सी (1935 ई.) में तहरीक-ए-गोहर्शाद के दौरान जब रज़ा ख़ान तानाशाही ने इस्लामी मूल्यों पर हमला किया, तो मरहूम आयतुल्लाह सैय्यद हुसैन क़ुमी जैसे उलेमा ने डटकर विरोध किया और बड़ी कुर्बानियाँ दीं।

आयतुल्लाह ख़ातमी ने कहा,आज भी यही उम्मीद है कि हौज़ा-ए-ख़ुरासान उसी तरह इस्लामी इंक़लाब के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहे। जिस तरह इस हौज़े के फ़रज़ंद ने दीन और निज़ाम के बचाव में इतिहास रचा, आज भी उन्हें एक दूरअंदेश रहबर के रूप में याद किया जाता है।

अंत में आयतुल्लाह ख़ातमी ने आस्ताने क़ुद्स रिज़वी के मुतवल्ली और सभी भाग लेने वाले उलेमा का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि हौज़ा-ए-इल्मिया मशहद अतीत की तरह आज भी इस्लामी इंक़ेलाब के साथ मजबूती से खड़ा है।

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