हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट अनुसार, फ़िक्री और अदराकी (सोच और समझ की) जंग में असली मुकाबला बंदूकों या जमीन पर नहीं, बल्कि लोगों की सोच और भरोसे पर होता है। इस क्षेत्र के जानकारों के अनुसार, अगर बयान की गई कहानी सच्चाई से दूर हो जाए, तो चाहे मीडिया कितना भी मजबूत हो, लोगों के दिमाग पर असर नहीं डाल सकती। इसलिए इस तरह की जंग में दुश्मन का मकसद सच्चाई को छिपाना नहीं होता, बल्कि उसे टुकड़ों में बाँट कर अधूरी और अपनी पसंद की दिशा वाली तस्वीर पेश करना होता है।
मीडिया कार्यकर्ता मयस्सम रमज़ान अली के अनुसार, इस मैदान में बचाव झूठ बोलने या सेंसरशिप से नहीं किया जा सकता, बल्कि पूरी और भरोसेमंद सच्चाई को दोबारा सही ढंग से बयान करने से किया जा सकता है। जनता को यकीन दिलाने की बुनियाद जागरूकता और सच्ची समझ है, जिसका आधार मासूम इमामों (अ) की शिक्षा में मौजूद है। इसलिए इमामों और इस्लामी क्रांति के नेताओं की राह भी शुरू से आज तक इसी सिद्धांत पर टिके रहने की मिसाल है।
रिपोर्टिंग में ईमानदारी का महत्व
उन्होंने कहा कि इस्लाम-ए-नाबे-मोहम्मदी (स.) के नज़रिए से मीडिया सिर्फ प्रचार का साधन नहीं, बल्कि एक अमानत है। इस सोच के मुताबिक जनता का विश्वास केवल सच बोलने से नहीं, बल्कि सच्चाई को ईमानदारी से पेश करने से पैदा होता है। एक भरोसेमंद मीडिया वही होता है जो कड़वी सच्चाई बोलते हुए भी भरोसा कायम रखता है, घबराहट नहीं फैलाता।
उन्होंने यह भी कहा कि असली समझदारी उसी वक्त दिखती है जब कोई इंसान सच्ची बात को समझदारी से कहे ऐसा बयान जो सच्चाई भी दिखाए और समाज की भलाई की रक्षा भी करे। हाल के वर्षों में हमारे कुछ मीडिया चैनल “पर्देदारी पर आधारित संकट प्रबंधन” जैसी सोच में फँसे रहे — यानी अधूरे बयान, चुनिंदा आँकड़े और मनोवैज्ञानिक चालों के ज़रिए विश्वास बनाने की कोशिश। लेकिन अनुभव बताता है कि ऐसे तरीक़े भरोसा बनाने के बजाय खत्म कर देते हैं।
समझाने (इक़ना) के क्षेत्र की अनदेखी न करें
मीडिया शोधकर्ता ने कहा कि विशेषज्ञ बार-बार चेतावनी दे चुके हैं कि “आधा बयान दुश्मन के बयान को पूरा कर देता है।” जब मीडिया की ऊर्जा सच्चाई और जागरूकता के बजाय सिर्फ आंकड़े बनाने या दिखावे में लग जाए, तो वह समझाने का क्षेत्र दूसरों के लिए खाली छोड़ देती है।
उन्होंने कहा कि जनता का विश्वास सिर्फ प्रचार और दिखावे से वापस नहीं आता। इसके लिए ईमानदार रिपोर्टिंग, सच्चा विश्लेषण और इंसान की इज़्ज़त पर आधारित पूरी कहानी की ज़रूरत होती है। शहीद सैयद हसन नसरुल्लाह का अंदाज़ इसका बेहतरीन उदाहरण है सच्चा, सोचने वाला और इंसान की गरिमा को केंद्र में रखने वाला बयान।
अंत में उन्होंने कहा कि फिक्री और अदराकी जंग छल-कपट से नहीं जीती जा सकती, बल्कि गहरी, संगठित और भरोसेमंद सच्चाई के ज़रिए ही इसमें जीत संभव है।
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