हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट अनुसार, आयतुल्लाह सईदी ने जामेअतुज़ ज़हरा में आयोजित मजलिस के में कहा कि घमंड और उपनिवेशवाद (अमेरिका और ब्रिटेन) उन्हीं देशों की फितरत का हिस्सा है। और इस्लामी क्रांति का असली मकसद इन्हीं ताकतों को ईरान की सत्ता से दूर करना था, इसीलिए आज भी उनकी दुश्मनी बाकी है।
उन्होंने कहा कि आज के दुनियावी संकट, जैसे सूडान, सीरिया और कई दूसरे देशों की स्थिति—ये सब पश्चिमी उपनिवेशवाद, विशेष रूप से अमेरिका की साजिशों का नतीजा हैं। दुश्मन यही कोशिश कर रहे हैं कि जनता और इस्लामी व्यवस्था को गलत पैमानों से तोला जाए, ताकि उनके छोटे-छोटे दोषों का फायदा उठाया जा सके।
क़ुम के इमाम-ए-जुम्मा ने हज़रत फातिमा ज़हरा सला मुल्ला अलैहा को सच्चाई और झूठ की पहचान का मापदंड बताया—उनकी विलायत ज़ुल्म से नफरत और सत्य की रक्षा ने उन्हें हमेशा के लिए ईमान का मानक बना दिया।
आयतुल्लाह सईदी ने कहा कि पैगंबर मोहम्मद (स) के दौर में मुनाफिक (दोगले लोग) जनता के लिए पहचानना आसान नहीं था, इसलिए यह ज़िम्मेदारी हज़रत फातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) को दी गई, ताकि वह लोगों को मुनाफिकों का चेहरा दिखाएं और सच्चे ईमान वालों को उनसे अलग करें। इतिहास गवाह है कि उन्होंने यह मिशन सफलतापूर्वक पूरा किया।
उन्होंने आगे बताया कि कुरान के अनुसार इस्लामी हुकूमत दो स्तंभों पर कायम है—नेतृत्व और जनता। अगर जनता मैदान में न रहे, तो धर्म की ऊँचाई मुमकिन नहीं, जैसा कि करबला के वाकये में हुआ, जहाँ लोगों की खामोशी और समर्थन की कमी से इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम) की शहादत का रास्ता खुल गया।
अंत में आयतुल्लाह सईदी ने कहा कि आज भी वैसे ही फितना वाले रवैये मौजूद हैं, लेकिन इमाम खुमैनी के अनुसार, ईरान की जनता ईमान और मजबूती में पैगंबर (स) के दौर के लोगों से भी ज्यादा मजबूत है। हालिया 12 दिन की जंग में, जनता के एकजुटता और रहबर की अगुआई में जो हिम्मत और समर्थन दिखा, वह इस गहरे विश्वास की साफ मिसाल है।
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