रविवार 9 नवंबर 2025 - 07:22
कहीं ऐसा न हो कि कल को तुम कहो कि हमने पहचाना नहीं और हमें पता नहीं था

हौज़ा / हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) अपने ख़ुत्बे की शुरुआत में जागरूक करने वाले लहजे में फ़रमाती हैं: “मैं फ़ातिमा हूँ, मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) की बेटी।” इसके बाद वह अपने इलाही मक़ाम और पैग़म्बर के अपने बारे में कहे गए शब्दो को याद दिलाते हुए लोगों को चेतावनी देती हैं कि उनकी बातें किसी भावना या ग़ुस्से से नहीं हैं, बल्कि अक़्ल, सचाई और इलाही जिम्मेदारी (रिसालत) पर आधारित हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, अय्याम -ए-फ़ातमिया के मौक़े पर आयतुल्लाह मिर्ज़ा मिस्बाह रहमतुल्लाह अलैहि के उन विचारों का सार है जो उन्होंने हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्लाह अलैहा) के ख़ुत्बा-ए-फ़दक्या के बारे में दिए थे।

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) अपने ख़ुत्बे की शुरुआत में सबसे पहले अपनी पहचान बताती हैं। वह लोगों को जागरूक करने वाले लहजे में फ़रमाती हैं:
“ऐ लोगों! जान लो, मैं फ़ातिमा हूँ, और मेरे पिता मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) हैं। मैं वही कहती हूँ जो सही है, न कोई ग़लत बात कहती हूँ, न कोई बेहूदा काम करती हूँ।”

फिर इस वाक्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए आयतुल्लाह मिस्बाह कहते हैं:
हज़रत के ये शब्द लोगों को यह समझाने के लिए थे कि ध्यान दो — जो तुमसे बात कर रही हैं, वह कोई आम औरत नहीं, बल्कि मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) की बेटी हैं; वह नबी जिन्‍होंने तुम्हारी हिदायत के लिए हर मुश्किल और तकलीफ़ बर्दाश्त की। अब उनकी बेटी, जो उनके मिशन और मक़सद को सबसे ज़्यादा समझती है, तुमसे बात कर रही है।

इसके बाद हज़रत याद दिलाती हैं कि पैग़म्बर-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) ने अपनी ज़िन्दगी में कई बार लोगों को फ़ातिमा (सला मुल्ला अलैहा) की अज़मत बताई थी, यहाँ तक कि कहा था:

“फ़ातिमा मेरे जिस्म का हिस्सा है; जो उसे दुख पहुँचाए, उसने मुझे दुख पहुँचाया है; जब वह किसी पर ग़ुस्सा करती है, तो ख़ुदा उस पर ग़ज़ब करता है; और जब वह राज़ी होती है, तो अल्लाह भी राज़ी होता है।”

इस तरह हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) लोगों को आगाह कर रही थीं कि सोचो, जो तुमसे बात कर रही है, वह कौन है। उन्होंने कहा:
“आज जो तुमसे बात कर रही है, वह वही है जिसकी यह जगह और मर्तबा अल्लाह और रसूल के पास है। सावधान रहो और ध्यान से सुनो; ऐसा न हो कि कल कहो — हमें पता नहीं था कौन बोल रहा था; हमने सुना तो सही लेकिन ध्यान नहीं दिया। याद रखो — तुम किस शख्सियत के सामने हो।”

फिर वह फ़रमाती हैं:
“मैं वह नहीं हूँ जो बेकार बातें करूँ या ग़लत काम करूँ। मेरे हर बयान में हिकमत है, हर अमल अल्लाह के हुक्म और अक़्ल की रौशनी में होता है। मैं कभी लापरवाही या हल्कापन नहीं करती। जो कुछ करती हूँ, तौलकर, समझकर और अल्लाही हक़ीक़त पर करती हूँ।”

आयतुल्लाह मिस्बाह कहते हैं कि इन बातों से हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) ने खुद को एक ऐसी हज़रत के रूप में पेश किया जो अल्लाही इल्हाम, सच्चाई और हिकमत से भरी हुई हैं। उनके अल्फ़ाज़ न तो किसी भावना या निजी मक़सद से हैं, बल्कि एक नबवी रिसालत और इलाही अक़्ल व हिकमत की तरफ़ से हैं।

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