हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, मोलाना सय्यद मोहम्मद सादिक़ आले नजमुल औलमा सन 1914 ई॰ में सरज़मीने लखनऊ पर पैदा हुए, आपके वालिद मौलाना सय्यद मोहम्मद काज़िम जय्यद आलिम व मुजतहिद थे, मोसूफ़ के जद नजमुल मिल्लत आयतुल्लाह सय्यद नजमुल हसन रिज़वी बर्रे सगीर में अपने वक़्त के मरजा और होज़ा ए इलमिया नाज़मिया के सरबराह थे।
मौलाना सय्यद मोहम्मद सादिक़ ने इब्तेदाई तालीम अपने घर में अपने वालिद से हासिल की, उसके बाद मदरसे नाज़मिया में दाख़िल हुए और नजमुल मिल्लत की सरपरस्ती में रहकर जय्यद असातेज़ा से कस्बे फ़ैज़ किया, आपने जहाँ दूसरे असातेज़ा से फ़िक़ह व उसूल की तकमील की वहीं अपने जद नजमुल मिल्लत से भी बाखूबी इसतेफ़ादा किया और नाज़मिया की आख़री सनद “मुमताज़ुल अफ़ाज़िल इम्तेयाज़ी नंबरों से हासिल की।
आप लखनऊ से तालीम मुकम्मल करने के बाद आज़िमे इराक़ हुए और हौज़ा ए इलमिया नजफ़े अशरफ़ में बुज़ुर्ग औलमा ए किराम के दुरूस में शिरकत की, मोसूफ़ ने अपने आप को इल्मी मदारिज मे इस क़द्र बुलंद किया कि औलमाए किराम ने आपकी इल्मी सलाहियत को देखते हुए इजाज़ात से नवाज़ा, आयतुल्लाह मोहम्मद हुसैन नाएनी इजाज़े में तहरीर फ़रमाते हैं: बेशक मौलाना नजमुल हसन के पौते फ़ाज़िले खबीर सय्यद मोहम्म्द सादिक़ को मैंने इजाज़े का अहल समझते हुए इजाज़ा अता फ़रमाया।
आप जय्येदुल हाफेज़ा ,फ़क़ीह, मुताकल्लिम, अदीब, फ़लसफ़ी और बुलंद पाया मुसन्निफ़ थे, अरबी अदब के उस्तादे कामिल कहे जाते थे, हमासा, मुतानब्बी, दीवाने रज़ी, दीवाने अबू तमाम के सैंकड़ों अशआर हिफ़्ज़ थे नहजुल बलागा की इबारतें याद थीं और बगैर देखे इन किताबों को पढ़ाते थे,
मौलाना सादिक़ मदरसे नाज़िमया में वज़ीफ़ा ए तदरीस की अंजाम दही के साथ साथ “शिया अरबी कालिज” में भी तशनगाने उलूम को सैराब करते थे, हर वक़्त आपके गिर्द तुल्लाब का हुजूम रहता था और आप इंतेहाई शोक़ के साथ उनके मसाइल हल करने में मुंहमिक रहते थे इंतेहा तो ये है की आप राह चलते तुल्लाब के दुरूस की गुत्थियाँ सुलझाते हुए चले जाते थे।
आख़री उम्र में बीनाई ने साथ छोड दिया मगर उसके बावजूद तदरीस का सिलसिला मुनक़ता नहीं किया और आप इसी हालत में पाबंदी से नाज़मिया में दर्स देते रहे, जब आप बहुत कमज़ोर हो गए तो घर पर ही तुल्लाब को दर्स देते थे, आपको फ़िक़ह व उसूल में इस्तमबाती सलाहियत हासिल थी, फ़सखे निकाहे मजनून के सिलसिले में आपने रिसाला तहरीर किया जब उसे मुफ़्ती ए आज़म सय्यद अहमद अली ने मुलाहेज़ा किया तो इजाज़ा ए नक़्ले रिवायत तहरीर फ़रमाया जिसमें आपकी फ़िक़ही इस्तनबाती सलाहियत का भी ऐतराफ़ किया था।
आपकी बुलन्द पाया शख़्सियत इल्मी हलक़ों में मारूफ़ थी तदरीस और तहरीर दोनों में कमाल हासिल था, आपने हर मोज़ू पर क़लम उठाया और सैंकड़ों मज़ामीन रिसालों में शाया हुए, मोसूफ़ ने क़ुराने मजीद का उर्दू तरजमा किया जो आपका इल्मी और अदबी शाहकार है, ये तरजमा तफ़सीरी माखज़ से मुकम्मल मुताबेक़त व हमआहंगी रखता है तरजमे के ज़बान में चाशनी पाई जाती है, नीज़ अलफ़ाज़ के इस्तेमाल भी इंतेहाई एहतियात के साथ किया गया है और बर महल भी है।
मौलाना मोहम्मद सादिक़ की डीगर तालीफ़ात में: तर्जुमा ए नहजुल बलागा, वुजूदे हुज्जत, तरजमा ए सहीफ़े ए अलविया, हाशमी जवाहर पारे, हक़ीक़ते मसावात, दीवाने अरबी अशआर, मौलूदे हरम, शहीदे कर्बला वगैरा के नाम लिए जा सकते हैं।
जहाँ आप मुदर्रिस, मोअल्लिफ़ और मोहक्क़िक़ थे वहीं अरबी, फ़ारसी, और उर्दू ज़बान के बहतरीन शायर भी थे मोसूफ़ की आला दर्जे की शायरी का अंदाज़ा रिसाला ए नग़मतुल फ़ुआद और नशीदुल इक़बाल से लगाया जा सकता है इन रिसालों को अरबी नज़्म से फ़ारसी नज़्म में तरजमा किया है, आपके शागिर्द मौलाना ज़हीर अब्बास मुदर्रिसे जामिया नाज़मिया तहरीर फ़रमाते हैं कि उस्तादे मोहतरम ने क्लास में एक मोक़े पर अपनी तालिबे इल्मी का ज़िक्र करते हुए बयान फ़रमाया कि लखनऊ यूनिवर्सिटी के शोबा ए उलूमे मशरिक़या में दबीरे माहिर और आलिम के लिये इखतबार होता था मैं भी इखतेबार के लिये गया तो मुमतहिन ने अरबी इबारत दी और उसका मतलब बयान करने को कहा मैंने मसलेहतन सुकूत किया तो मुमतहिन ने सवाल किया कि इसका मतलब आपको नहीं आता तो मैंने जवाब दिया मुझे खूब आता है बस ये सोच रहा था कि इसका मतलब अरबी में बयान करूँ या अरबी नज़्म में, फ़ारसी नस्र में बयान करूँ या उर्दू नज़्म में मुमतहिन मेरे इस जवाब से समझ गये और कहा आपका इम्तेहान हो गया बयान करने की ज़रूरत नहीं है।
आप बहुत मुंकसेरूल मिज़ाज और मूतावाज़े शख्सियत के मालिक थे, मिज़ाज में बला की सादगी पाई जाती थी बेपनाह सलाहियतों के बावजूद शोहरत और नामवरी से दूर रहते थे,
अल्लाह ने आपको 2 बेटियाँ और 3 बेटे अता फ़रमाए जो बाद में सय्यद मोहम्मद हामिद और सय्यद मोहम्मद आक़िल के नाम से पहचाने गये, मौलाना मोहम्मद सादिक़ की इल्मी मीरास के वारिस आपके पौते मौलाना रज़ा काज़िम प्रिंसपल सय्यदुल मदारिस अमरोहा हुए।
आखिरकार ये इलमो अमल का आफ़ताब 28 मार्च 1948 ई॰ में लखनऊ में गुरूब हो गया, शहर में ग़म का महोल छा गया, चाहने वालों का मजमा आपके शरीअतकदे पर जमा हो गया, तशिये जनाज़ा में मोमेनीन, औलमा और तुल्लाबे किराम ने कसीर तादाद में शिरकत फरमाई, नमाज़े जनाज़ा ताजुल औलमा मौलाना सय्यद मोहम्मद ज़की की इक़तदा में अदा की गई और “हुसैनया गुफ़रानमआब” में सुपुर्दे लहद कर दिया गया गया।
माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़ : मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-9 पेज-126 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2023ईस्वी।