हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, अपने ज़माने के जय्यद आलिमे दीन, अबू दाऊद अल्लामा मोहम्मद हारून ज़ंगीपुरी बतारीख़ 24 रबीउस्सानी सन 1229 हिजरी में ज़ंगीपुर ज़िला गाज़ीपुर की सरज़मीन पर पैदा हुए, आपके वालिद “सय्यद अब्दुल हुसैन” ख़ानदान के बुज़ुर्ग और बाशर्फ़ इंसान थे।
मौलाना हारून आलिम, ज़हीन साहिबे ज़बान और साहिबे क़लम इंसान थे, उन्हें ज़माने के तक़ाज़ों का बाखूबी इदराक था और दीनी तालीमात को ज़माने के तक़ाज़ों के मुताबिक़ ज़ीने तै करा रहे थे।
आपने इब्तेदाई तालीम मौलवी मोहम्मद समी ज़ंगीपुरी, मौलवी मोहम्मद हाशिम और मौलाना सय्यद अली हुसैन की खिदमत में रहकर हासिल की उसके बाद बनारस पोंहचे और जवादुल औलमा मौलाना सय्यद अली जवाद की ख़िदमत में रहकर कस्बे फ़ैज़ किया, कुछ अरसे के बाद बनारस से लखनऊ का रुख़ किया और जामिया नाज़मिया में तालीम को आगे बढ़ाते हुए मुमताज़ुल अफ़ाज़िल की सनद हासिल की, पंजाब यूनिवर्सिटी से मौलवी की सनद दरयाफ्त की और फ़ारिग होने के बाद औरियंटल कालिज में उस्ताद के उनवान से पहचाने गए।
अल्लामा सय्यद बाक़िर तबातबाई, अयतुल्लाह शेख़ मोहम्मद हुसैन माज़नदरानी, अल्लामा शेख़ मोहम्मद महदी कश्मीरी हाएरी और आयतुल्लाह सय्यद कलबे बाक़िर हिन्दी वगैरा ने अल्लामा हारून को इजाज़ाते रिवायात से नवाज़ा।
अल्लामा की तारीफ़ में आपके मआसिर रतबुल लिसान दिखाई दिये, सुन्नी हों या शिया, बिला तफ़रीके मज़हबो मिल्लत मोसूफ़ के गिरवीदा नज़र आते हैं, अल्लामा अबू दाऊद अरबी व फ़ारसी नस्र व नज़्म में माहिर थे, आपने तकरीरों और तहरीरों के ज़रिये तबलीगे दीन में अपना दिन रात एक कर दिया।
अल्लामा हारून ने अपनी ज़िंदगी के आख़री लमहात तक तसनीफ़ो तालीफ़ का दामन नहीं छोड़ा, आपने सन 1328 हिजरी में इराक़ की ज़ियारात का पहला सफ़र किया और वहाँ से वापसी के बाद अपना सफ़र नामा तहरीर फ़रमाया जिसमें नज़मो नस्र की सूरत में पूरा सफ़र बयान किया ।
बावजूद उसके अल्लामा की मुकम्मल उम्र 45 साल हुई, उसके बावजूद आपने 40 तालीफ़ात अपनी नस्ल के सुपुर्द कीं, अल्लामा ज़ंगीपुरी मैदाने शायरी के वो सूरमा थे जिनकी शायरी इमामे हुसैन अ: की मरहूने मिन्नत थी, आप आसानी से कर्बला नही जा सकते थे लेकिन जब ख़्वाब के आलम में बशारत हुई तो आपने फ़ोरन कर्बला का रुख़ किया और इमामे हुसैन की ज़ियारत के बाद अरबी ज़बान में निहायत खूबसूरत अशआर लिखे ।
जब अल्लामा इराक़ की ज़ियारतों से फारिग हुए तो वापसी का क़स्द किया, वापसी में कुछ दिन लाहौर में क़याम किया और अपनी किताब” तौहीदुल कुरान” की तलाश में निकले जो लाहौर से शाया हुई थी, मौसूफ़ अपनी महनत को समर आवर देख कर बहुत ख़ुश हुए।
अल्लामा अबू दाऊद इराक़ पोंहचे तो मुताअद्दिद औलमाए एलाम और मराजे किराम से मुलाक़ात का शरफ़ हासिल हुआ जिनमें से: अल्लामा हिबतुद्दीन हाएरी, आखुन्दे खुरासानी और शेखुश शरीआ इसफ़ेहानी के असमाए गिरामी क़ाबिले ज़िक्र हैं, मोसूफ़ ने अल्लामा हिबातुद्दीन से मुलाक़ात की तो उन्होने आपकी ख़िदमत में ये पेशकश रखी कि उनकी किताब “अल हैत वल इस्लाम” का उर्दू ज़बान में तरजमा करें, मौसूफ़ ने पेशकश को क़ुबूल किया और इसका सलीस उर्दू में तर्जमा करके “अलबदरूत तमाम फ़ी तर्जमातिल हैत वल इस्लाम” के नाम से मोसूम किया।
मुनशी महबूब अली ने जब अल्लामा की कारकर्दगी के हुस्न को मुलाहेज़ा किया तो उनको रूज़नामा “ पैसा “ का मुदीर क़रार दे दिया, उस वक़्त अख़बार के मुदीर की तनख़ाह 15 रूपये माहाना थी।
कुछ अरसे बाद लखीमपुर खीरी पोंहचे और तदरीस में मशगूल हो गए इसके बाद “देहली कालिज” का रुख़ किया लेकिन बीमारी के बाइस देहली को तर्क करके “मूंगेर हुसैनाबाद” में आकर क़याम पज़ीर हुए।
यूँ तो अल्लामा मोसूफ़ की तालीफ़ात व तसनीफ़ात बहुत ज़्यादा हैं लेकिन उनमें से कुछ किताबें बहुत ज़्यादा अहम हैं मसलन: बराहीनुश शोहदा, शहीदुल इस्लाम, तालीमुल अखलाक़ 3 जिल्द, अस्सैफ़ुल यमानी, तर्जमा ए सहीफ़ा ए कामेला, नवादेरुल अदब, आसारुश शहादत, मुकालेमा ए इलमिया, तर्जुमा ए एहक़ाक़ुल हक़, उलूमूल क़ुरान, सनादीदे वतन, औरादुल क़ुरान, तोहीदुल क़ुरान, तोहीदुल आइम्मा, हुज्जतुल अस्र, अल मेराज, सुबूते शहादत और इमामतुल क़ुरान वगैरा उनकी तालीफ़ात मोमेनीन के लिये ज़रबुल मसल की हैसियत रखती हैं।
अल्लामा हारून के यहाँ सिर्फ एक ही बेटा था जिसको आपने “ शब्बीर हुसैन” के नाम से मोसूम किया था, बेटा जवान हुआ यहाँ तक कि उसकी शादी भी हो गई लेकिन न जाने क़ुदरत को क्या मंज़ूर था , जिस साल शादी हुई उसी साल ख़तरनाक वबा फैली और मौसूफ़ का बेटा उस वबा का शिकार होकर अल्लामा को दागे मुफ़ारेक़त दे गया, जवान बेटे का सदमा जानलेवा होता है मोसूफ़ ने ख़ुद को कैसे संभाला, ये अल्लाह ही जाने, अल्लामा ने अपने बेटे की फुरक़त पर मरसिया तहरीर किया जिसका एक शेर ये है:
ज़िंदगी से तेरी वाबसता था जीना मेरा
अब ये जीना नहीं ए जान ये है सख़्त निकाल
अल्लामा ज़ंगीपुरी जवान बेटे की मुफ़ारेक़त के बाद ज़्यादा दिन क़ैदे हयात में न रह सके, बेटे के ग़म में बीमार हो गये और उनकी बीमारी काफी तूलानी हो गई, उसके बावजूद मदरसतुल वाएज़ीन के शोबा ए तालीफ़ को तर्क नहीं किया लेकिन ये चरागे सहरी आख़िर कब तक टिमटिमाता।
आखिरकार तूफ़ान के थपेड़ों की ताब ना लाते हुए बतारीख़ 14 जमादीयुल ऊला सान 1339 हिजरी में गुल हो गया और ज़माना इस चरागे इल्म के फ़ैज़ से हमेशा हमेशा के लिये महरूम हो गया।
माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़ : मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-1 पेज-251 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2019ईस्वी।