हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन आलीजनाब मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी साहब क़िब्ला फ़लक छौलसी ने क़ुरआन और रिवायतों से स्पष्ट करते हुए फ़रमाया: हम जो मजलिस मातम और रोना पीटना करते हैं, हम जो ये अज़ादारी करते हैं ये हम कोई नया काम नहीं करते बल्कि हमें कुरआन और रिवायतों में मिलता है उसी के माध्यम से हम अज़ादारी नोहा मातम करते हैं ।
मौलाना ग़ाफ़िर रिज़वी ने कहा: कुरआन ने हमे बताया है कि जब जनाबे यूसुफ़ अपने बाप जनाबे याक़ूब से बिछड़ गए थे तो उन्हों ने अपना सर पीटा तथा जनाबे याक़ूब इतना ज़ियादा रोए कि उनकी आँखें सफ़ेद हो गई थीं । इस से हमें यह शिक्षा मिलती है कि अपने चाहने वालों की जुदाई पर रोना एवं मातम करना कोई बुरी बात नहीं बल्कि जनाबे यूसुफ़ और जनाबे याक़ूब की परंपरा है जिस को हम अपनाए हुए हैं ।
मौलाना ने यह भी कहा कि हमें कुरान के अंदर यह भी मिलता है कि जब जनाबे आदम को स्वर्ग से निकाल कर धरती पर भेज दिया गया तो जनाबे आदम दिन रात रोते रहते थे, इसका मतलब यह है कि रोना बुरी बात नहीं बल्कि जो आदम ज़ाद होगा वह रोने की जगह पर रोएगा और जो व्यक्ति रोने पर पाबंदी लगाएगा वह आदमी कहलाने के क़ाबिल नहीं है ।
मौलाना ग़ाफ़िर रिज़वी ने अपने विचार के अंत की ओर जाते हुए कहा: एक सुन्नी आलिम अल्लामा दिमयरी ने अपनी पुस्तक हयातुल हैवान में लिखा है कि मुतवक्किल अब्बासी ने इमाम अहमद बिन हंबल की मृत्यु पर रोने वालों को संदेश भेजा कि रोना बहुत अच्छी बात है, जहां इमाम साहब का देहान्त हुआ है वहां पर तुम्हे रोना ही चाहिए । इस से भी यही स्पष्ट होता है कि रोना बुरी बात नहीं बल्कि एक अच्छी परम्परा है ।
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