हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , जिस तरह एक मेहरबान बाप अपनी तमाम शफ़क़तों और मोहब्बतों को अपनी औलाद पर निछावर कर देता है ताकि उसे मुस्तक़बिल (भविष्य) में किसी परेशानी का सामना न करना पड़े। और उसकी इन मोहब्बतों और शफ़क़तों में किसी हालत, वक़्त और मौसम में न सिर्फ़ कमी नहीं आती बल्कि ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हात तक उसे अपने बच्चों की फ़िक्र रहती है।
लेकिन औलाद पर अपनी हस्ती मिटा देने वाले बाप को भी औलाद से कुछ तवक्क़ुआत (उम्मीदें) होती हैं, अगरचे इन उम्मीदों में भी खुद औलाद का ही फ़ायदा होता है, जैसे वह अच्छी तालीम व तरबियत हासिल कर ले और नेक और सालेह बन जाए वग़ैरह। और जब औलाद अपने मां–बाप की उम्मीदों पर खरी उतरती है तो वह खुश होते हैं और अगर ख़ुदा न ख़ास्ता औलाद सही न निकली तो उन्हें रंज व ग़म और शर्मिंदगी होती है।
रहमान व रहीम परवरदिगार ने जिन ज़वात-ए-मुक़द्दसा को अपनी मख़लूक़ात पर हुज्जत और अपना वली व ख़लीफ़ा बना कर लोगों का इमाम बनाया है, उनको अपने चाहने वालों और शियाओं से वालिदैन से कहीं ज़्यादा मोहब्बत और मां–बाप से कहीं ज़्यादा उनकी फ़िक्र होती है। और उनको भी अपने शियों से कुछ उम्मीदें और तवक्क़ुआत होती हैं।
जिस तरह वालिदैन की उम्मीदें खुद औलाद के लिए मुफ़ीद होती हैं, वैसे ही इमाम मासूम की उम्मत से जो उम्मीदें हैं, वह खुद उम्मत के लिए फ़ायदेमंद हैं। और जब कोई इन उम्मीदों पर खरा उतरता है तो मासूमीन अ.स. खुश होते हैं और अगर खरा नहीं उतरता तो ग़मगीन होते हैं।
ज़ैल में हज़रत इमाम हसन अस्करी अ.स. की कुछ अहादीस शरीफ़ पेश की जा रही हैं जिनमें आप ने शियों के सिफ़ात बयान फ़रमाए हैं, जिनके जानने और उन पर अमल करने का नतीजा दुनिया व आख़िरत में सआदत व कामयाबी है।
1. (अमीरुल मोमिनीन इमाम) अली (अलैहिस्सलाम) के शिया वही हैं जो अपने दीनी भाई को अपने ऊपर तरजीह देते हैं, चाहे खुद क्यों न मोहताज हों। अल्लाह ने जिन (कामों) से मना किया है उसे अंजाम नहीं देते और जिसका हुक्म दिया है उसे नहीं छोड़ते। और (अमीरुल मोमिनीन इमाम) अली (अलैहिस्सलाम) के शिया वही हैं जो अपने मोमिन भाई का इकराम व एहतराम करते हैं।
2. मोमिन की पाँच अलामतें हैं:
(1) 51 रकअत नमाज़,
(2) ज़ियारत-ए-अरबईन,
(3) दाएँ हाथ में अंगूठी पहनना,
(4) ख़ाक पर सज्दा करना,
(5) "बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम" ऊँची आवाज़ में पढ़ना।
3. तुम्हें चाहिए कि सोचो और फ़िक्र करो क्योंकि इसमें बा-बसीरत दिलों की हयात और हिकमत के दरवाजों की कुंजियाँ हैं।
4. इबादत रोज़ा व नमाज़ की कसरत का नाम नहीं बल्कि अल्लाह के अम्र (हुक्म) में ज़्यादा सोचने और फ़िक्र करने का नाम है।
क़ुरआन करीम में भी तफ़क्कुर व तदब्बुर की दावत दी गई है और मासूमीन अ.स. ने भी इसी पर जोर दिया है।
हज़रत अली अ.स. ने फ़रमाया: “अमल से पहले उसकी तदबीर तुम्हें शर्मिंदगी से महफ़ूज़ रखेग!"
आपने एक और जगह फ़रमाया: “फ़िक्र साफ़ व शफ़्फ़ाफ़ आईना है!"
हज़रत लुक़मान ने अपने बेटे को नसीहत की: “ए मेरे बेटे! जब पेट भर जाता है तो फ़िक्र सो जाती है, हिकमत की सरगर्मी रुक जाती है और बदन अल्लाह की इबादत में सुस्ती महसूस करते हैं।”
इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. ने फ़रमाया: “अल्लाह और उसकी क़ुदरत में फ़िक्र सबसे अफ़ज़ल इबादत है!"
आपने ही फ़रमाया: "एक घंटे की फ़िक्र हज़ार बरस की इबादत से अफ़ज़ल (बेहतर) है!"
आयतुल्लाहिल उज़मा ब्रोजर्दी र.ह. से पूछा गया कि यह फ़िक्र कैसी हो? आपने फ़रमाया:
“वैसी फ़िक्र जैसी शबे आशूर जनाब हुर अ.स. ने की थी।”
अगर फ़िक्र नेक हो तो एक गुनाहगार को लम्हों में नजात मिल जाती है और अगर फ़िक्र में बुराई हो तो हज़ारों बरस की इबादत भी किसी काम नहीं आती और इंसान शैतान की तरह मरदूद और मलऊन हो जाता है।
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