हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की दर्दनाक शहादत की याद में यह मजलिस-ए-अज़ा पूरी अकीदत, एहतेराम और मज़हबी जोश व जज़्बे के साथ आयोजित की गई। मजलिस से सदर हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन आगा सैयद हसन अल-मूसवी अस-सफ़वी ने विशेष ख़िताब किया।
उन्होने अपने ख़िताब में इमाम हादी अलैहिस्सलाम की हयात-ए-तैय्यबा को ज़ुल्म के सबसे तारीक दौर में हक़, सब्र, इल्म और इबादत का रौशन और ज़िंदा ऐलान क़रार दिया। उन्होंने कहा कि इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम ने अब्बासी इस्तिब्दाद, फिक्री गुमराही और अख़लाक़ी ज़वाल के माहौल में जिस इस्तिक़ामत, हिकमत और तक़वा के साथ दीन-ए-इस्लाम की हिफ़ाज़त फ़रमाई, वह आज के संकटग्रस्त दौर में न सिर्फ़ उम्मत-ए-मुस्लिमा बल्कि पूरी इंसानियत के लिए एक मज़बूत फिक्री मोर्चा और नाक़ाबिल-ए-तस्ख़ीर रहनुमाई है।
सदर अंजुमन ने वाज़ेह अल्फ़ाज़ में कहा कि इमाम हादी अलैहिस्सलाम की सीरत महज़ तारीख़ का एक बाब नहीं, बल्कि एक ज़िंदा और इंक़ेलाबी रस्ता है, जो हमें ज़ालिम के सामने ख़ामोशी के बजाय हक़गोई, बेदारी और शऊरी मुज़ाहमत का दर्स देता है।
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि अहले बैत (अ.स.) की तालीमात को सिर्फ़ मजलिसों और नारों तक महदूद करना सबसे बड़ी नाइंसाफ़ी है; असल ज़िम्मेदारी यह है कि इन तालीमात को घरेलू तरबियत, समाजी ढांचे और अमली ज़िंदगी का हिस्सा बनाया जाए।
मजलिस-ए-अज़ा के इख़्तिताम पर आलम-ए-इस्लाम की बेदारी, मज़लूमीन-ए-आलम की नुसरत, ज़ुहूर-ए-इमाम-ए-ज़माना (अ.) में ताज़ील और बातिल क़ुव्वतों के ज़वाल के लिए रक़्क़त-आमेज़ दुआएँ की गईं। यह मजलिस-ए-अज़ा न सिर्फ़ ग़म-ए-शहादत के इज़हार का मौक़ा थी, बल्कि अहले बैत (अ.स.) से वाबस्तगी, शऊर, मुज़ाहमत और वफ़ादारी के वाज़ेह पैग़ाम की हामिल भी थी।
आपकी टिप्पणी