हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,रजब महीने की चौबीस तारीख़ सन सात हिजरी मई 628 ईस्वी में रसूले ख़ुदा स.ल.व. की क़यादत में मुसलमानों और यहूदियों के बीच यह जंग हुई जिसको ख़ैबर की जंग कहते हैं जिसमें मुसलमान फ़तहयाब हुए।
ख़ैबर यहूदियों का मरकज़ था जो मदीना से डेढ़ सौ से दो सौ किलोमीटर अरब के शुमाल मग़रिब (उत्तर पश्चिम) में था जहां से वह दूसरे यहूदी क़बीलों के साथ मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार साज़िशें करते रहते थे चुनांचे मुसलमानों ने इस मसले को ख़त्म करने के लिए एक जंग शुरू की।
ख़ैबर का क़िला ख़ास कर उसके कई क़िले यहूदी फ़ौज की ताक़त के मरकज़ थे जो हमेशा मुसलमानों के लिए ख़तरा बने रहे और मुसलमानों के ख़िलाफ़ कई साज़िशों में शरीक रहे इन साज़िशों में खंदक की जंग और जंगे ओहद के दौरान यहूदियों की कार्रवाइयाँ शामिल है इसके अलावा ख़ैबर के यहूद ने क़बीला ए बनी नज़ीर को भी पनाह दी थी जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ होने वाली साज़िश और जंग में शामिल थे।
ख़ैबर के यहूदियों के तअल्लुक़ात बनी कुरैज़ा के साथ भी थे जिन्होंने जंगे ख़ंदक में मुसलमानों से वादा ख़िलाफ़ी करते हुए उन्हें सख़्त मुश्किल से दो चार कर दिया था और ख़ैबर वालों ने फ़दक के यहूदियों के अलावा नज्द के क़बीला बनी ग़तफ़ान के साथ भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ मोआहिदे (अग्रीमेंट) किए थे।
सन 7 हिजरी (मई 628 ईस्वी) में हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलेही व सल्लम ने 1600 की फ़ौज के साथ जिनमें से 100 से कुछ ज़ियादा घुड़सवार थे ख़ैबर की तरफ़ जंग की नियत से रवाना हुए और 5 छोटे क़िले फ़तह करने के बाद ख़ैबर क़िले का मुहासिरा कर लिया जो दुश्मन का सबसे बड़ा और मज़बूत क़िला था। एक ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ था और उसका सुरक्षा का इंतज़ाम बहुत मज़बूत था।
यहूदियों ने अपनी औरतों और बच्चों को एक क़िले में और खाने पीने के दीगर सारे सामान एक और क़िले में रख दिये और हर क़िले पर तीरंदाज़ खड़े कर दिए जो क़िले में घुसने की कोशिश करने वालों पर तीरों की बारिश कर देते थे।
मुसलमानों ने पहले 5 क़िलों को एक-एक करके फ़तह किया जिसमें 50 मुजाहिदीन जख़्मी और एक शहीद हुआ, यहूदी रात के तारीकी में एक से दूसरे के क़िले तक अपना माल, सामान और लोगों को मुन्तक़िल करते रहे बाक़ी 2 क़िलों में, क़िला ए कमूस सबसे बुनियादी और बड़ा था और यह एक पहाड़ी पर बना हुआ था।
हुज़ूरे अकरम स.ल.व. ने बारी-बारी हज़रत अबू बकर, उमर और सअद बिन उबादा की क़यादत में फ़ौज को इस क़िले को फ़तह करने के लिए भेजा मगर यह सभी जान के ख़ौफ़ से मैदान छोड़कर भाग आएं और कामयाब ना हो सके। यह सिलसिला तक़रीबन 39 दिन चला। सहाबा जाते फिर मरहब जंगजू के ख़ौफ़ से भाग आते।
आख़िर में रसूले ख़ुदा (स.ल.व.) ने इरशाद फ़रमाया कि कल मैं अलम (इस्लामी फ़ौज का झंडा) उसे दूंगा जो अल्लाह और उसके रसूल से मोहब्बत करता है और अल्लाह और उसका रसूल उससे मोहब्बत करते हैं, वह शिकस्त खाने वाला और भागने वाला नहीं है, ख़ुदा उसके दोनों हाथों से फ़तह अता करेगा।
यह सुनकर तमाम सहाबा ख़्वाहिश करने लगे कि इस्लाम के अलम की अलमबरदारी की यह सआदत उन्हें नसीब हो। अगले दिन हुज़ूरे अकरम (स) ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को तलब किया। सहाबा इकराम ने बताया कि उन्हें आशूबे चश्म (आंखों का दर्द) है लेकिन हज़रत अली अलैहिस्सलाम हुज़ूरे काएनात (स) के फ़रमान पर लब्बैक कहते हुए आये तो हुज़ूर (स) ने अपना लो आबे दहन (थूंक) उनकी आंखों में लगाया जिसके बाद पूरी ज़िंदगी उन्हें कभी आशूबे चश्म नहीं हुआ।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम क़िला ए ख़ैबर पर हमला करने के लिए पहुंचे तो यहूदियों के मशहूर पहलवान और जंगजू मरहब का भाई मुसलमानों पर हमलावर हुआ मगर हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उसे क़त्ल कर दिया और उसके साथी भाग गए उसके बाद मरहब रजज़ पढ़ता हुआ मैदान में उतरा उसने ज़िरह बख़्तर और खोद (फ़ौलादी हेलमेट) पहना हुआ था उसके साथ एक ज़बरदस्त लड़ाई के दौरान हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उसके सर पर तलवार का ऐसा वार किया कि उसका खोद और सर दरमियान में से दो टुकड़े हो गया।
उसके हलाकत पर ख़ौफ़ज़दा होकर उसके साथी भागकर क़िले में पनाह लेने पर मजबूर हो गए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने क़िले का मज़बूत बड़ा दरवाज़ा जिसे चंद आदमी मिलकर खोलते और बंद करते थे उसे उखाड़ लिया और उस ख़ंदक पर रख दिया जो यहूदियों ने क़िले के आस पास खोद रखी थी ताकि कोई क़िले के अंदर ना आ सके।
इस फ़तह में 93 यहूदी मौत के घाट उतरे और क़िला फ़तह हो गया। मुसलमानों को हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बदौलत शानदार फ़तह नसीब हुई। हुज़ूरे अकरम (स) ने यहूदियों को उनकी ख़्वाहिश पर पहले की तरह क़िला ए ख़ैबर में रहने की इजाज़त दे दी और उनके साथ मुआहेदा (अग्रिमेंट) किया कि वह अपनी आमदनी का आधा हिस्सा बतौर जीज़िया मुसलमानों को देंगे और मुसलमान जब मुनासिब समझेंगे उन्हें ख़ैबर से निकाल देंगे।
इस जंग में बनी नज़ीर के सरदार हई बिन अख़तब की बेटी सफ़िया भी क़ैद हुई जिनको आज़ाद करके हुज़ूरे करीम (स) ने उन की फ़रमाइश पर उनसे निकाह कर लिया।
इस जंग से मुसलमानों को एक हद तक यहूदियों की घिनौनी साज़िशों से निजात मिल गई और उन्हें मआशी फ़ायदा भी हासिल हुआ।
इस जंग के बाद बनी नज़ीर की एक यहूदी औरत ने रसूले ख़ुदा (स) को भेड़ का गोश्त पेश किया जिसमें एक सरी उल सर ज़हर मिला हुआ था। पैग़म्बरे अकरम (स) ने उसे महसूस होने पर थूक दिया कि उसमें ज़हर है मगर उनके एक सहाबी जो उनके साथ खाने में शरीक थे शहीद हो गए।
एक सहाबी की रिवायत के मुताबिक़ बिस्तरे वफ़ात पर हुज़ूर (स) ने फ़रमाया कि उनकी बीमारी उस ज़हर का असर है जो ख़ैबर में दिया गया था। मुसलमानों को इस जंग से भारी तादाद में जंगी सामान और हथियार मिले जिससे मुसलमानों की ताक़त बढ़ गई। उसके 18 महीने बाद मक्का फ़तह हुआ उस जंग के बाद हज़रत जाफ़र तैयार हबशा (अफ़्रीका) से वापस आए तो हुज़ूरे अकरम (स) ने फ़रमाया कि समझ में नहीं आता कि मैं किस बात के लिए ज़ियादा ख़ुशी मनाऊं! फ़तह ख़ैबर के लिए या जाफ़र की वापसी पर।
हवाला: मग़ाज़ी, जिल्द 2, पेज 637 / तारीख़ इब्ने कसीर, जिल्द 3 / इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम, अल मग़ाज़ी, वाक़दी, जिल्द 2, पेज 700 / तारीख़ इब्ने कसीर, जिल्द 3, पेज 375 / अल सीरत नबविया अज़ इब्ने हिशाम, पेज 144 ता 149 / सहीह बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 35