हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,इस्लामी क्रांति के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनेई ने,सन 1979 में ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब की शानदार कामयाबी के बाद अमरीका ने, जो ईरान और क्षेत्र में अपने ग़ैर क़ानूनी हितों को अपने हाथ ने निकलता हुआ देख रहा था।
इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ एक व्यापक जंग शुरू की थी सीधे फ़ौजी हस्तक्षेप (तबस की घटना) और बग़ावत की योजना और उसके सपोर्ट से लेकर नव स्थापित इस्लामी सिस्टम को गिराने के इरादे से ईरान पर हमले के लिए इराक़ की बासी हुकूमत को उकसाने के लिए और उसे सिर से पैर तक हथियारों से लैस करने तक अमरीका ईरानी क़ौम के महान इंक़ेलाब को चोट पहुंचाने के लिए किसी भी करतूत से पीछे नहीं हटा।
आख़िरकार सैन्य मोर्चे पर हार के बाद उसने ईरान की मुसलमान क़ौम के ख़िलाफ़ एक दूसरी यलग़ार शुरू की। इस बार उसने आर्थिक, सैन्य, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, औद्योगिक और व्यापारिक मैदानों में एकपक्षीय तौर पर बहुत ही कठोर पाबंदियां लगाकर अपने विचार में इस बात की कोशिश की कि अपनी मांगों के आगे ईरान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दे।
ईरान के ख़िलाफ़ अमरीका की अत्याचारपूर्ण पाबंदियों की एक लम्बी लिस्ट है। ख़ास तौर पर तीन दहाई पहले और ईरान की शांतिपूर्ण परमाणु सरगर्मी शुरू होने के बाद ईरान का आर्थिक, औद्योगिक और इससे संबंधित अंतर्राष्ट्रीय मैदान का शायद ही कोई ऐसा विभाग होगा जो विश्व साम्राज्यवाद और पश्चिम की पाबंदियों की ज़द से सुरक्षित रहा हो।
थोड़ी थोड़ी मुद्दत पर बेबुनियाद बहानों से ईरान के लोगों और विभागों को पाबंदियों की लम्बी लिस्ट में शामिल कर दिया जाता है और अमरीका इस बात की लगातार नाकाम कोशिश कर रहा है कि इस तरह से इस्लामी गणराज्य ईरान की सैद्धांतिक नीतियों को प्रभावित कर दे।
अलबत्ता ये बात शुरू से ही ज़ाहिर थी कि ईरानी क़ौम इन पाबंदियों से जिन्होंने सबसे पहले चरण में अवाम की आर्थिक स्थिति और उनके दैनिक जीवन को निशाना बनाया है, हरगिज़ धौंस में नहीं आएगी बल्कि वो इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के युक्तिपूर्ण मार्गदर्शन के साए में इन ख़तरों को मुख़्तलिफ़ मैदानों में मुल्क की तरक़्क़ी व कामयाबी के मौक़े में बदल देगी।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई पाबंदियों से निपटने और इन्हें बेअसर बनाने में मुल्क के अधिकारियों और योजनाकारों के रोल के साथ ही हमेशा ही इस बहुआयामी आर्थिक जंग में अवाम की भरपूर भागीदारी पर भी बल देते हैं और इस जंग में दूसरे तबक़ों से बढ़कर अग्रिम पंक्ति के मुजाहिदों की हैसियत से मज़दूरों और श्रम वर्ग के लोगों के रोल पर बल देते हैं।
वो विश्व श्रम दिवस के मौक़े पर मज़दूरों व श्रमिकों से होने वाली सालाना मुलाक़ात में काम, रोज़गार, मज़दूर के मक़ाम के बारे में इस्लाम के दृष्टिकोण को बयान करने के अलावा मौजूदा संवेदनशील दौर में पश्चिम की अत्याचारपूर्ण पाबंदियों से निपटने में मज़दूरों के मुख्य रोल पर रौशनी डालते हैं।
इस साल भी श्रमिकों से मुलाक़ात में इस्लामी इंक़ेलाब की स्पीच का एक हिस्सा इसी अहम बिंदु पर केन्द्रित था। उन्होंने इस बात की ओर इशारा करते हुए कि हम इससे पहले फ़ौजी जंग में व्यस्त थे और अब ये एक आर्थिक जंग है, कहाः "आज हम आर्थिक जंग की हालत में हैं, जंग आर्थिक है।
इंक़ेलाब के आग़ाज़ में आठ वर्षीय जंग की तरह ये भी थोपी गयी जंग है, वो सैन्य लेहाज़ से थोपी गयी जंग थी, ये थोपी गयी आर्थिक जंग है। अमरीका एक तरह से, अमरीका के साथी मुल्क अलग तरह से इस्लामी ईरान, इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ जंग कर रहे हैं, ये आर्थिक जंग है।
इस आर्थिक जंग में जो हम पर थोपी गयी है, अग्रिम पंक्ति और अग्रिम मोर्चा रोज़गार मुहैया करने वालों और मज़दूरों से संबंध रखता है। अग्रिम मोर्चे पर उनका रोल है लेकिन मेरे मद्देनज़र, ये हिस्सा नहीं था बल्कि मेरे मद्देनज़र ये बात है कि आप जो अमरीका के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं, अपने काम की क़द्र को समझें। यानी मज़दूर और रोज़गार देने वाले इस जंग के हरावल दस्ते में हैं।
आप जितना अच्छा काम करेंगे, आपके अच्छा काम करने में जितनी मदद की जाए उतना ही इस आर्थिक जंग में उतने ही अच्छे प्रभाव सामने आएंगे ... दुश्मन आतंकवाद और इसी तरह के दूसरे बहानों से हम पर पाबंदी लगाता है। इन पाबंदियों का असर धीरे-धीरे कम हो रहा है।
कुछ साल पाबंदी लगायी, देखा कि कोई फ़ायदा नहीं है। प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय सेंटरों का कहना है कि इस साल ईरान की सकल राष्ट्रीय पैदावार पिछले साल से ज़्यादा रही है। तो क्यों ज़्यादा रही है? इसलिए कि ज़्यादा काम कर रहे हैं, इसलिए कि बेहतर काम कर रहे हैं, इसलिए कि पाबंदियां उन्हें प्रभावित नहीं कर पा रही हैं, इसलिए कि उन्होंने विदेश से और सरहद पार उम्मीद लगा नहीं रखी है। इसे बढ़ावा मिलना चाहिए। मुल्क में इस जज़्बे को बढ़ावा मिलना चाहिए।(24/4/2024)
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता अपने बयानों में बारंबार इस बात पर बल देते हैं कि साइंस और टेक्नॉलोजी, सैन्य व रक्षा उद्योग सहित मुख़्तलिफ़ मैदानों में इस्लामी ईरान की तरक़्क़ी व कामयाबी किसी हद तक इन्हीं पाबंदियों की देन है।
वो मज़दूरों से अपने एक दूसरे ख़िताब में इस मूल्यवान मौक़े से फ़ायदा उठाने की ओर इशारा करते हुए कहते हैं: "मैं बल देकर कहता हूं कि बहुत से मामलों में पाबंदी, मुल्क के हक़ में है, ईरानी क़ौम के हक़ में है, इस बात को हमदर्द, चाहने वाले और जानकार लोग बयान करते हैं।
जी हाँ! पाबंदी, कुछ मुश्किलों को जन्म देती है, मुमकिन है कि बैंकिंग क्षेत्र के लेन-देन पर पाबंदी, तेल वग़ैरह पर पाबंदी कुछ मुश्किलों को जन्म दे लेकिन आख़िरकार वो मुल्क के फ़ायदे में है।
मुल्क के एक अधिकारी बता रहे थे कि किसी विदेशी बैठक में एक विदेशी राजनेता ने हमसे कहा कि जनाब! आप पाबंदियों के दौरान इतने आधुनिक हथियार बनाने में कामयाब हुए, अगर आप पर पाबंदी न होती तो आप क्या करते? उन साहब ने बताया कि मैंने उनसे कहा कि अगर पाबंदियां न होतीं तो इनमें से कोई भी काम न हो पाता। वो सही कह रहे थे।
पाबंदी इस बात का कारण बनी कि हम अपनी सलाहियतों पर ध्यान दें, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मुल्क के भीतर पैदावार की कोशिश करें, अपनी क्रिएटिविटी को तलाश करें, पहचानें। मैं आपसे अर्ज़ करता हूं कि आप मेहनती हैं, ऊंचे स्तर के मेहनती हैं, आप में से बहुत ऊंची शिक्षा हासिल किए हुए हैं, पैदावार की इस संभावना की क़द्र समझिए, क्रिएटिविटी की इस संभावना की क़द्र समझिए, मुल्क के आला अधिकारी भी इसकी क़द्र समझें।
आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई पाबंदियों को बेअसर बनाने और उनके अंत का एक रास्ता राष्ट्रीय पैदावार में विकास और इस सिलसिले में वास्तविक कोशिश की ओर ध्यान देने को क़रार देते हैं और कहते हैं कि ये अहम काम मज़दूरों और श्रम वर्ग के हौसले और कोशिश पर निर्भर हैः "इन दिनों पाबंदियों वग़ैरा की बातें बहुत ज़्यादा हो रही हैं, अलबत्ता एक समय से, कई साल से पाबंदियों के विषय पर बात हो रही है
आज कल फिर इस पर बात हो रही है, मेरे ख़्याल में पाबंदियों को बेअसर बनाने का सबसे अच्छा और सबसे कामयाब तरीक़ा राष्ट्रीय पैदावार को बढ़ावा देने के लिए सही कोशिश व मेहनत है, सिर्फ़ नारेबाज़ी नहीं बल्कि वास्तविक मेहनत। अगर हम राष्ट्रीय पैदावार को सचमुच मज़बूत बनाने में कामयाब हो गए, सही अर्थ में हमने मज़बूत किया, इस पर काम किया, योजना बनायी, लगन से इस पर काम किया तो यक़ीन रखिए कि पाबंदियां पहले बेअसर होंगी और उसके बाद हटा दी जाएंगी।
यानी सामने वाला पक्ष जब ये देखेगा कि पाबंदियों से मुल्क को नुक़सान नहीं पहुंचा बल्कि वो और भी मज़बूत हो गया, मुल्क की सरगर्मियां और ज़्यादा बढ़ गयीं हैं तो वो पाबंदियां हटाने पर मजबूर हो जाएगा।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की नज़र में श्रम वर्ग की कोशिश सिर्फ़ राष्ट्रीय पैदावार में बेहतरी, समाज के लिए सहूलतों, आत्म-निर्भरता और विदेशों से आवश्यकता मुक्त होने जैसे भौतिक पहलू तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी आध्यात्मिक गहराई इससे कहीं ज़्यादा व्यापक है, ये एक इबादत और भलाई है जिससे श्रम वर्ग भी और वो सभी लोग भी जो इस सिलसिले में किसी भी तरह से कोशिश करते रहते हैं और उसकी मदद करते हैं, फ़ायदा उठाते हैं।
वो इस सिलसिले में कहते हैं: "ये श्रम वर्ग जो कारख़ानों में काम करता है, या डीज़ाइनर या मैनेजर या कोई भी काम करने वाला, इसलिए काम करता है कि इस्लामी ईरान, जो आज आध्यात्मिक व पाकीज़ा जलवों का केन्द्र है, विकास व तरक़्क़ी करे, दूसरों से आवश्यकता मुक्त हो जाए, इस ताक़त और उस ताक़त की पाबंदियों की फ़िक्र उसे न रहे, आत्मनिर्भर हो जाए तो इस मेहनत के काम का हर लम्हा, एक भलाई और इबादत है। जो भी इस काम में मदद करे मानो वो इस इबादत में भी शरीक है। अल्लाह का सिस्टम ये है। कभी ऐसा होता है कि किसी काम में दस लोग शरीक होते हैं तो दस भलाई अंजाम पाती हैं। ये नहीं है कि एक भलाई को दस में बांट दें। बल्कि अल्लाह के निकट इनमें हर एक का पुन्य अलग अलग है।
बहरहाल मुल्क के आर्थिक ढांचे, विदेशों पर निर्भर न होना और पश्चिम की अत्याचारपूर्ण पाबंदियों के अंत के लिए काम, रोज़गार और श्रम वर्ग के मुख्य रोल पर इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की बारंबार ताकीद ऐसी ठोस हक़ीक़त है जिस पर मुल्क के अधिकारियों की तरफ़ से भी और श्रम वर्ग की ओर से भी ध्यान दिया जाना, ईरानी क़ौम के कट्टर दुश्मनों की साज़िशों और धमकियों को नाकाम बनाने की बेहतरीन राह है।