हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,भारत के मशहूर धर्मगुरु आयतुल्लाह सैयद हमीदुल हसन ने लखनऊ के जामिया नाज़िमिया में आयोजित चौथी मजलिस में दुआ, एकता और मतभेद" विषय पर खिताब किए।
अपने संबोधन में कहा,दुआ इंसान को उसके रब के करीब ले जाती है। जब इंसान गहराई से सोचता है, तो उसमें ज़ुल्म से नफरत पैदा होती है, यही दुआ का फायदा है खुद कुरान में हमारे रब का हुक्म है कि दुआ करो।
हज़रत पैगंबर-ए-इस्लाम स.अ.व. ने भी लोगों से कहा कि दुआ करो। दुआ का मकसद यह है कि अपने रब को पुकारो, जब कोई मुसीबत आए तो अपने रब को याद करो जो लोग मुश्किल के वक्त अपने रब को पुकारने से कतराते हैं, उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि यह घमंड और अहंकार की निशानी है।यह सोच खतरनाक है कि इंसान इस कदर बेपरवाह हो जाए कि अल्लाह को पुकारने में भी संकोच करे।
मौलाना ने अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए कहा,इमाम अली (अ.स.) ने सभी को यह मौका दिया कि वे इस्लामी शिक्षाओं में एक हो जाएं। खुद पैगंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व.) का भी यही तरीका था कि मतभेद न हो और सभी इस्लाम में एक हो जाएं। कुरान का भी यही संदेश है कि सभी इंसान धर्म के नाम पर एक हो जाएं।
इमाम अली (अ.स.) ने पैगंबर (स.अ.व.) के बाद 25 साल ऐसा जीवन गुज़ारा कि इस्लाम को मतभेद के नाम पर कोई नुकसान न पहुंचे। फिर जब वे कूफ़ा में सरकार के प्रमुख बने, तब भी उन्होंने यही चाहा कि उम्मत में एकता बनी रहे। लेकिन जो लोग पैगंबर (स.अ.व.) के ज़माने से ही इस्लाम को पूरी तरह नहीं अपना पाए थे, उन्होंने फिर से मतभेद के दरवाज़े खोल दिए, जिससे मुसलमानों को आपस में नुकसान पहुंचा।
उन्होंने आगे कहा,अगर देखा जाए, तो सदियां गुजर चुकी हैं, मगर हर दौर में इस्लाम को नुकसान पहुंचा है, खासकर उन उलेमा की वजह से जिन्होंने धार्मिक हुक्मों को अपने मतलब और मकसद के हिसाब से पेश किया। इन उलेमा के बारे में इमाम अली (अ.स.) ने नहजुल बलाग़ा में निंदा की है। और आज भी हम यह नज़ारा देख रहे हैं कि कर्बला जैसी अज़ीम घटना के बाद भी कुछ लोग यज़ीद की तरफ झुकाव रखते हैं।
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