सोमवार 21 जुलाई 2025 - 12:35
भारतीय धार्मिक विद्वानों का परिचय | अल्लामा मीर हामिद हुसैन मूसवी

हौज़ा /पेशकश: दनिश नामा ए इस्लाम, इन्टरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर दिल्ली

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, मुदाफ़ि-ए- वलायत, मुसन्निफ़े अबक़ातुल अनवार', माहिरे इल्मे कलाम, मुजद्दिदे मिल्लत अल्लामा  मीर हामिद  हुसैन मूसावी  5/मुहर्रम अल-हराम 1246 हिजरी में सरज़मीन मेरठ पर पैदा हुए। जिस रात आपकी विलादत हुई, आपके वालिद ने ख्वाब में अपने जद को देखा। जब बेदार हुए तो फ़रज़ंद की विलादत की ख़बर मिली तो आपके वालिद ने अपने जद के नाम पर अल्लामा  का नाम हामिद हुसैन रखा। जिस घर में अल्लामा  की विलादत हुई, उस घर के मालिक ने आपके एहतराम मेन उसे इमामबाड़े में तब्दील कर दिया। आपका शजरा-ए-नसब 27 पीढ़ियों में इमाम मूसा काज़िम (अ) से मिलता है। आपके वालिद मौलाना सैयद मुहम्मद कुली अल्लामा सैयद दिलदार अली गुफ़रानमआब के शागिर्द थे।

अल्लामा की कमसिनी में फ़हमो फ़रासत, ज़हानत और ज़कावत ऐसी थी कि जो देखता, हैरान हो जाता था। आपने 17 रबी' अल-अव्वल 1252 हिजरी में हुसूले इल्म का आग़ाज़ किया। इब्तिदाई तालीम अपने वालिद से हासिल की। आप 15 साल की उम्र में साया-ए-पिदरी से महरूम हो गए। वालिद की वफ़ात के बाद अपनी तालीम को जारी रखने के लिए दूसरे असातेज़ा-ए-किराम जैसे मौलाना बरकत अली हनफ़ी, मुफ़्ती मुहम्मद अब्बास, खूलासतुल औलमा सैयद मुर्तज़ा, सुलतानुल औलमा सैयद मुहम्मद, इल्लीयीन मकान सैयद हुसैन की तरफ़ रुजू किया और उनसे कस्बे फ़ैज़ किया। सैयद-उल-औलमा की तालीफ़ मनाहिजुत तदक़ीक पर आपके लगाए हुए हवाशी और मबाहिस ने देखने वालों को यह बताया कि अल्लामा मीर हामिद हुसैन तालिबे इल्मी ही में कमाले फ़न तक पहुँच गए थे।

अललमा ने अपनी तालीम को मुकम्मल करने के बाद अपने वालिद की तालीफ़ात की तर्तीब और इशाअत की तरफ़ तवज्जो दी। फ़ुतूहात-ए-हैदरीया, रिसाला-ए-तक़य्या, तशईदुल मताइनन वग़ैरा के बाद मुनतहल कलाम के जवाब में इस्तक़सा-उल-इफ़हाम की तालीफ़ छह महीने में मुकम्मल की। इसके बाद शवारिक़ुन-नुसूस की तालीफ़ में हाफ़िज़े और क़ुव्व्ते इस्तदलाल को उरूज पर पहुँचाया।

सन 1282 हिजरी में आज़िमे हज व ज़ियारत हुए, नौजवानी का आलम था और मुतालाआ व तहक़ीक़ का शबाब, इस पर बड़े भाई मौलाना एजाज़ हुसैन का साथ सोने पर सुहागा मक्का-ए-मुक़र्रमा तक इल्मी जुस्तजू, मक्का व मदीना के नवादिर मख़तूतात व किताबों की नक़लें और ख़ुलासे हासिल किए। औलमा-ए- आलाम से मुलाक़ात, किताबों की तलाश, तहक़ीक़े रिजाल और तदब्बुर-ए-हदीस का सिलसिला रहा। जहाँ गए वहाँ औलमा ने इस्तक़बाल किया, अफ़ादे और इस्तिफ़ादे का बाज़ार गर्म हुआ। अखज़े रिवायत व नक़ले हदीस की बात चली तो मालूम हुआ समंदर से समंदर मिल गए। किताबोंख़ानों में गए तो कई-कई दिन मुताले आ, नक़्ल और याददाश्त में मसरूफ़ रहे। आपके भाई भी किताब शनास और 'आशिक़े इल्म थे, ख़ुद भी मुसन्निफ़ और साहिबे नज़र थे। शिया सुन्नी मुहक़्क़ेक़ीन मिलते तो दम-बा-ख़ुद रह जाते थे कि ये हाफ़िज़ा और मुतालेआ, इल्मे हदीस में इतने माहिर (अल्लाह अकबर)। इसी तरह इल्मे रिजाल में इतनी माहिर थे कि रिवायतों के हालात को रोशन और वाज़ेह फरमा देते थे। अल्लामा समंदर के रास्ते से हज के लिए चले, दुखानी जहाज़ जिस बंदरगाह पर रुकता, आप उतरते, किताब फ़रोशों से किताबें ख़रीदते और जहाज़ पर वापस आ जाते। इस तरह मदीना और मक्का पहुँचते हुए बेशुमार किताबें साथ थीं। हज के बाद इराक और ईरान गए तो किताबों का ज़ख़ीरा और बढ़ गया। अल्लामा मीर हामिद हुसैन और अल्लामा  ऐजाज़ हुसैन का यह सफ़र अहदे क़दीम के उन हाफ़िज़ और मोहद्दिस हज़रात के सफ़र का नमूना था जो सहरा-बा-असहर फिर कर शुयूख़ और आइम्मा-ए-फ़न से मिलते थे और तलबे हदीस की ख़ातिर हजारों दुख उठाते थे। अल्लामा  सफ़र से जो कुछ लाए, उसे "अबक़ातुल अनवार" की सूरत में औलमा तक पहुँचाया।

इस सफ़र में आपके शागिर्द मौलाना तसद्दुक़ हुसैन और नवाब तहूरजंग साथ थे। नवाब तहूररजंग आपकी हमागीर शख्सियत और उलूमे इस्लामी की 'अज़मत से बहुत मुताअस्सिर हुए। यह हमसफ़री हैदराबाद-दकन के लिए इल्मी इरतेक़ा में बहुत मुआव्विन साबित हुई। यह सफ़र औलमा, औदाबा और शोअरा-ए-लखनऊ और कंतूर की दकन में पज़ीराई और किताबख़ाना-ए-आसिफ़िया की 'अज़मत में इज़ाफ़े का सबब बना। इस सफ़र के बाद आप इस्लामी दुनिया में 'अज़मत और इज़्ज़त के मालिक हो गए। आप ज़्यादातर अपना वक़्त तहक़ीक़ व तालीफ़ में गुज़ारते थे और किसी से कोई सरोकार नहीं रखते थे। मो'मिनीन इल्मे क़लाम, हदीस, फिक़्ह व दूसरों उलूम के मसाइल के हल के लिए आप से रजू करते थे।

अल्लामा की इल्मी शख्सियत को देख कर औलमा-ए-ईरान व इराक़ ने आयतुल्लाह फ़िल 'आलमीन, मुजद्दिदे मिल्लत, मुहयुद्दीन, हज्जतुल-हक़ अलल-ख़लक़ जैसे अलक़ाब से याद किया। आयतुल्लाह सैयद हुसैन तबातबाई यज़दी, सैयद उल-फ़ुक़हा सैयद हुसैन क़ुम्मी, मरजा ए अकबर जैनुल आबिदीन माज़ंदरानी, मुहद्दिसे आज़म शेख हुसैन नूरी जैसे अक़ारिब ने आपको मुहद्दिस, हाफ़िज़ और फकीह जैसे बलंदतरीन ऐज़ाज़ात का हामिल जाना।

अल्लामा पूरी ज़िंदगी शबो रोज़ मुतालेआ करते रहते थे, जिस की वजह से आप कमज़ोर और बैठने की वजह से मेदे के मर्ज़ में मुब्तला हो गए थे। क़सरते तहरीर से हाथ कमज़ोर हो गए थे, सीने पर किताब रखने से निशान पड़ गए, मगर आपने लिखने और पढ़ने में कोई कमी नहीं की।

आप ने बहुत ज़्यादा आसार तहरीर फ़र्माए, जिन में से:

  • इस्तक़्सा-उल-इफ़़हाम
  • अल-अशरतुल-कामिला
  • असफारुल-अनवार अ हक़ाइक़े अफ़ज़लील असफार
  • कश्फ़-उल-मुअज़लात फ़ी हल्ले मुश्किलात
  • ज़ ज़राए फ़ी शरहे शरा
  • शवारिक़ु नुसूस फी तकज़ीबे फ़ज़ाइलु नुसूस (पाँच जि़ल्द)
  • जैनुल मसाइल इला तक़ीक़िल मसाइल
  • दुर्रतुत तहक़ीक़
  • अल-ग़ज़बुल-बतार फ़ी मबहसे आयतुल- गा
    और अबक़ातुल अनवार वगैरा  के नाम लिए जा सकते हैं।

इनकी सबसे मशहूर किताब अबक़ातूल अनवार है, जो कई जि़ल्दों पर मुश्तमिल है। इस किताब की वजह से पूरी दुनिया में इन्हें इल्मी शोहरत हासिल हुई और औलमा ने उनकी इल्मी मंज़िलत और इस किताब के मोहकम होने का इक़रार किया।
अल्लामा अमीनी "अल-गदीर" की पहली जि़ल्द में लिखते हैं:
"सैयद बुज़ुर्गवार ख़ुदा की आयात और निशानियों में से एक हैं। आपकी किताब "अबक़ातुल अनवार" ने ज़िंदगी में ताजगी भर दी, इसका चर्चे पूरी दुनिया में फैल गए।"
आयतुल्लाह आगा एबुजुर्ग तहरानी कहते हैं: "मीर हामिद हुसैन एक तलाश करने वाले, ज़माना-शनास और दीन-शनास आलिम थे। वो अपनी तलाश और इल्मी मक़ाम में इस हद तक आगे बढ़ गए थे कि मुआसेरीन और मुताअख्खेरीन में कोई भी उनसे बराबरी नहीं कर सकता था।"
किताब "रेहाना-तुल-अदब" के मुअल्लीफ़ लिखते हैं:
"मीर हामिद हुसैन मूसवी, हिंदुस्तानी फ़क़ाहत के अलावा, दूसरे इल्मी मसाइल जैसे हदीस, अख़बार व आसर, मआरिफ़ व अहवाले रिजाल फ़रीन, इल्म-ए-क़लाम, ख़ुसूसी तौर पर इमामत की बहस में निहायत बुलंद इल्मी मक़ाम के मालिक थे। उनकी इल्मी क़ाबलियत पर मुस्लिम और गैर-मुस्लिम, अरब और अजम, आम और खास सभी क़ाइल थे।"

आपने एक क़िताबख़ाने की बुनियाद रखी, जिसमें दस हज़ार नायाब और क़मयाब क़लमी किताबों का ज़ख़ीरा इकट्ठा किया। यह क़िताबख़ाना लखनऊ की इज़्ज़त और उलूम-ए-इस्लामिया का बेश बहा  ख़ज़ाना बना। जो अल्लामा  के बाद अब तक उनकी औलाद की निगरानी में चला आ रहा है।

अल्लामा मीर हामिद हुसैन मूसवी को शहीदे सालिस काज़ी नूरुल्लाह शूश्तरी र.ह. से ख़ास मुहब्बत थी। सन 1271 हिजरी में जब आप आगरा तशरीफ़ लाए तो शहीदे सालिस के मज़ार पर हाज़िरी दी। यह मज़ार सन 1019 हिजरी से 1188 हिजरी तक आहिस्ता-आहिस्ता खंडर बन चुका था। सन 1188 हिजरी में ज़ुल्फ़िक़ार-उद-दौला नजफ ख़ान के ज़माने में सैयद मुहम्मद मन्सूर मूसवी  नीशापुरी ने फिर से इसकी तामीर कराई। अल्लामा  मीर हामिद हुसैन ने एक सौ पंद्रह साल बाद इस मजार की तामीर और आसपास की आबादी की तरफ़ तवज्जो दिलाई। दो सौ साल बाद सन 1290 हिजरी में डिप्टी सैयद अली नक़ी की सरबराही में यह इमारत फिर से मुकम्मल हुई और अब फिर से शानदार मज़ार की तामीर कराई  गई है।

अल्लाह ने आपको दो फ़र्ज़ंद अता किए। आपने उन्हें इल्म और अमल से आरास्ता किया। जिन्हें ज़माने  ने नासिरुल-मिल्लत मौलाना नासिर हुसैन और मौलाना ज़ाकिर हुसैन के नाम से पहचाना।

आखिरकार, यह मुदाफ़े-ए-विलायत, इल्म और अमल का चमकता हुआ आफ़ताब 18/सफ़र 1306 हिजरी को अपने क़िताबख़ाने लखनऊ में गुरूब हो गया। अल्लामा के जसद को घर लाया गया। आपके जनाज़े में मो'मिनीन, औलमा और तलबा-ए-किराम ने क़सीर तादाद में शिरकत की और नमाज़े जनाज़ा के बाद मजमा की हज़ार आह और बका के हमराह “हुसैनिया-ए-ग़फ़रानमाब़”. लखनऊ में सुपर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया। आपकी रहलत के बाद आपको "फ़िरदौस मआब" के नाम से याद किया गया।

माखूज़ अज़: मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-10 पेज-179 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2023ईस्वी।  

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