हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, शम्स-अल-ओलमा मौलाना इब्ने हसन सन 1291 हिजरी में सरज़मीने लखनऊ पर पैदा हुए। आपके वालिद हसन रज़ा शरीफ-उन्नफ्स इंसान थे और आपकी वालिदा का ताल्लुक ख़ानदान-ए-इज्तेहाद से था। मोसुफ़ "शम्स-उल-उलमा" के लक़ब से पहचाने जाते थे। शम्स-उल-उलमा ने इब्तिदाई और मुतावास्सित तालीम लखनऊ में मौलाना लुत्फ़ हुसैन नहवी, मौलाना सैयद अली नक़ी, मौलाना सैयद हुसैन, मलाज़-उल-उलमा मौलाना अबुल हसन और बहरुल उलूम मोहम्मद हुसैन से हासिल की। आपकी इल्मी सलाहियत को देखते हुए बहरुल उलूम मोहम्मद हुसैन ने इराक जाने से पहले आपको इजाज़ा मरहमत फरमाया।
आपने आला तालीम हासिल करने की ग़रज़ से इराक का रुख किया और हौज़ा-ए- इल्मिया करबला में असातिज़ा किराम से कस्ब-ए-फ़ैज़ किया, फिर उसके बाद नजफ़ अशरफ़ के जय्यद असातिज़ा ए किराम से भी इल्म हासिल किया। आपने नजफ़े अशरफ़ के असातेज़ा के अलावा हौज़ा ए इल्मिया सामर्रा के असातिज़ा किराम से भी इल्म हासिल किया। आपके असातिज़ा में आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद बाक़िर करबलाई, आयतुल्लाह सैयद काज़िम तबातबाई, आयतुल्लाह आखुंद मुल्ला मोहम्मद काज़िम खुरासानी और आयतुल्लाह इस्फ़हानी (आक़ा-ए-शरियत) जैसे जलील-उल-क़द्र औलमा के नाम लिए जा सकते हैं। मोसूफ़ के असातिज़ा ने आपकी इल्मी लियाक़त को देखते हुए इजाज़ात से नवाज़ा। असातिज़ा के अलावा आयतुल्लाह शेख़ हुसैन माज़ंदरानी, आयतुल्लाह सैयद अली आले काशिफ़ुल ग़िता और आयतुल्लाह सैयद मुस्तफ़ा काशिफ़ी ने भी इजाज़ात अता फ़रमाए।
शम्स-उल-उलमा तदरीस से बहुत लगाव रखते थे। आपने अपने घर से तदरीसी सिलसिला जारी रखा और बहुत से शागिर्दों की तर्बियत की, जिनमें मौलाना मुर्तज़ा हुसैन फाज़िल का नाम सरे-फेहरिस्त है।
मोसूफ़ की उम्दा आवाज़ लोगों को अपनी तरफ़ मुतावज्जाह करती थी। उनकी तक़रीर में एक ख़ास कशिश थी। जिस वक़्त "मिर्ज़ा रफ़ी बाज़िल" की तवील मसनवी "हमला-ए-हैदरी" के अशआर पढ़ते थे तो लोग वज्द करते और ऐसा महसूस होता गोया जंग खुद उनके सामने हो रही हो।
मौलाना इब्ने हसन जाइस़ी की इल्मी और फ़िक़्ही ख़िदमात का दायरा वसी है। यही वजह है कि आपने तसनीफ़ व तालीफ़ में भी नुमायां किरदार अदा किया। मौलाना की अहम तसानीफ़ में "रिसाला अर-रायुस-सदीद फी मसाईलिल,इज्तेहाद वत-तक़लीद", "रिसाला–ए-रातिब", "इर्स अल-ख़यार इस्तदलाली", "फ़ज़ाइल व मसाएबे अहल-ए-बैत" (दो जिल्द), "हाशिया मुफ़स्सल बर रसाएले शेख़", और "निहायतुल -उसूल हाशिया किफ़ायतुल-उसूल" शामिल हैं।
आप बहुत ख़ुश-अखलाक़, मुनकसिर-मिज़ाज और मेहमाननवाज़ थे। मौलाना मोहम्मद हुसैन उनकी मेहमाननवाज़ी के सिलसिले से अपनी किताब "तज़किरा-ए बे बहा" में तहरीर फरमाते हैं कि, "मैं सन 1331 हिजरी में अतबाते आलिया की ज़ियारत के लिए गया था। वापसी पर मौलाना इब्ने हसन भी सामर्रा से आ रहे थे। मैंने उन्हें पहचाना नहीं। वो मुझसे पहले मेहमानख़ाने पहुँच चुके थे। जब मैं वहाँ पहुँचा, तो शाम का वक़्त था और आहिस्ता-आहिस्ता अंधेरा छा रहा था। मैं अपने मुताअल्लिक़ीन को गाड़ी से उतारने में मसरूफ़ था कि अचानक उन्होंने मुझे मेरे नाम से पुकारा। मैं हैरान हो गया कि या अल्लाह, यहाँ मेरा जानने वाला कौन है? जब मैंने भी उन्हें पहचान लिया तो आप बेहद मसरूर हुए और बहुत अख़लाक़ से पेश आए और मुझे अपने घर ले जाकर बहुत मेहमान नवाज़ी की।"
मौलाना इब्ने हसन जाइस़ी जिस वक़्त सामर्रा में मुक़ीम थे तो आपकी इल्मी शोहरत इस क़दर बढ़ी कि बग़दाद से उनके पास एक ख़त आया, जिसमें उनसे आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद बाक़िर की जगह तक़सीम के मंसब को क़बूल करने की गुज़ारिश की गई थी। शम्स-उल-उलमा पहले हिंदुस्तानी आलिम थे जो इस मंसब पर फाइज़ हुए।
जब अंग्रेज़ों और सुल्ताने रूम की जंग हुई तो तमाम हक़ूक़ बंद हो गए।आपने बहुत तकलीफ़ें बर्दाश्त करने के बाद जंग से तंग आकर करबला-ए-मोअल्ला से दरिया के रास्ते बसरा तशरीफ़ लाए और वहाँ से सन 1335 हिजरी में लखनऊ वापस आ गए। जिस वक़्त आप लखनऊ तशरीफ़ लाए तो औलमा, फ़ोज़ला, अकाबिर और रोअसा का मजमा आपके इस्तक़बाल के लिए खड़ा था। बहुत ही शान व शौकत से इस्तक़बाल हुआ।
अल्लाह ने आपको एक फ़रज़ंद अता किया, जिसको मौलाना क़ायम मेहदी के नाम से पहचाना गया।
आख़िरकार, यह इल्म व अमल का दरख़्शां आफ़ताब 26 शाबान सन 1368 हिजरी को सरज़मीने लखनऊ पर गुरूब हो गया और मज़मे की हज़ार आह व बुका के हमराह... लखनऊ में सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया।
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