हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली ने अपने दर्स-ए-अख़लाक़ में नहजुल बलागा के कलामात-ए-क़िसार की व्याख्या करते हुए फरमाया कि इमाम (अ.स.) ने नहजुल बलागा की हिकमत नंबर 182 में फरमाया,जहाँ हिक्मत भरी बात कहना ज़रूरी हो, वहाँ खामोशी में कोई भलाई नहीं जैसे किसी जाहिल से बात करने में भी कोई भलाई नहीं यानी जहाँ हक़ कहने की ज़रूरत हो वहाँ चुप रहना जायज़ नहीं।
उन्होंने कहा कि कुरआन कभी खामोश होता है और कभी बोलता है, लेकिन दोनों हालत में हक़ पर है। अहल-ए-बैत (अ.स.) भी ऐसे ही हैं उनका कलाम भी हक़ है और उनकी खामोशी भी हक़ है।
पैगंबर-ए-अकरम (स.अ.) के बारे में फरमाया गया है कि उनका कलाम बयान है और उनकी खामोशी ज़बान है यानी जब वे बोलते हैं तो हिदायत करते हैं और जब खामोश होते हैं तो उस खामोशी में भी एक पैगाम होता है।
आयतुल्लाह जवादी आमोली ने कहा कि अहल-ए-बैत (अ.स.) कुरआन की मूजस्म रूप हैं उनकी ज़िंदगी सरापा वही और हक़ है और हमें भी चाहिए कि अपने गुफ्तार (वचन), किरदार और यहाँ तक कि खामोशी को भी कुरआनी बनाएँ।
उन्होंने हज़रत ज़ैनब कुबरा स.अ.के कथन ""فَوَاللّٰهِ لَا تَمْحُوا ذِکْرَنَا وَ لَا تُمیْتُ وَحْیَنَا"
अल्लाह की क़सम! तुम हमारे ज़िक्र को मिटा नहीं सकते और न ही हमारी वही को मार सकते हो) का ज़िक्र करते हुए फरमाया कि उस ज़माने में न अर्बेन था न मातम की महफिलें, मगर सैय्यदा ज़ैनब (स.अ.) ने जो हक़ कहा वह ज़िंदा-ओ-जावेद है, क्योंकि हक़ कभी मिटता नहीं है।
आयतुल्लाह जवादी आमोली ने कहा,राह-ए-वही अब भी खुली है। हमसे यह उम्मीद नहीं कि हम आहल-ए-बैत (अ.स.) जैसे बन जाएँ, मगर हम उनके मकतब के शागिर्द बन सकते हैं। सबसे बेहतर रास्ता यह है कि इंसान खुद को परखे, अगर बुलंदी पाए तो शुक्र करे और अगर कमी देखे तो इस्लाह की कोशिश करे।
आख़िर में उन्होंने दुआ की कि खुदावंद ए मुतआल इस्लाम व मुस्लिमीन को इज़्ज़त अता करे, मज़लूमान ए ग़ाज़ा की मदद फरमाए।
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