बुधवार 29 अक्तूबर 2025 - 16:07
दिल की बसीरत ही हक़ीक़ी मारफ़त का स्रोत हैः आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी

हौज़ा / आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली ने कहा कि अल्लाह तआला ने इंसान को सिर्फ़ सुनने और समझने का नहीं बल्कि “देखने” का भी उत्तरदायी बनाया है। उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा कि असली मारफ़त ज्ञान या पहचान सिर्फ़ पढ़ाई और बहस से नहीं बल्कि दिल की आँख से हासिल होने वाली बस़ीरत (आंतरिक दृष्टि) से पैदा होती है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली ने कहा कि क़ुरआन मजीद एक ऐसी किताब है जो इंसान की तकरीम और सम्मान का प्रतीक है। अल्लाह तआला ने कहा: “وَاتَّبِعُوا مِلَّةَ أَبِیکُمْ إِبْرَاهِیمَ” यानी “तुम अपने बाप इब्राहीम ख़लील के अनुयायी हो, इसलिए अपनी इज़्ज़त और हिम्मत को पहचानो।”

क़ुम अल मुक़द्दस की मस्जिद-ए-अज़म में दिए गए अपने दर्स-ए-अख़लाक़ में आयतुल्लाह जवादी आमोली ने अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम के इस कलाम “ما شككت في الحق مذ أريتُهُ” की तफ़सीर करते हुए कहा: “हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं—जब मुझे हक दिखा दिया गया, तो उसके बाद मुझे कभी शक नहीं हुआ।” यह बयान इस बात की दलील है कि सच्ची मारफ़त सिर्फ़ पढ़ने और बहस से नहीं, बल्कि “देखने” और “शोहूद” (आंतरिक अनुभव) से होती है, और यह देखना आंखों से नहीं बल्कि दिल की आंख से होता है।

उन्होंने कहा कि इंसान के पास इल्म हासिल करने के दो मदरसे हैं—एक ज़ाहिर का (बाहरी), जिसके ज़रिए वह तालीम और तहक़ीक़ से इल्म-ए-ज़ाहिर (बाह्य ज्ञान) प्राप्त करता है; और दूसरा बातिन का (आंतरिक), जो तज़किया-ए-नफ़्स, पवित्रता और तक़्वा के माध्यम से मारफ़त-ए-हक़ीकी तक पहुंचाता है। जब इल्म-ए-ज़ाहिर और इल्म-ए-बातिन एक हो जाएं, तो वही क़ामिल इल्म बनता है।

आयतुल्लाह जवादी आमोली ने स्पष्ट किया कि इल्म और तजर्बा इंसान को फक़ीह या विद्वान बना सकता है, लेकिन मारफ़त-ए-बातिन ही इंसान को ‘आरिफ़’ और ‘बीना’ बनाती है। हालांकि हर व्यक्ति को मल्क़ूत के दर्शन का मौक़ा नहीं मिलता, मगर ख़ुदा ने यह दरवाज़ा सबके लिए खुला रखा है।

उन्होंने आयत-ए-करीमा “وَكَذَٰلِكَ نُرِي إِبْرَاهِيمَ مَلَكُوتَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ” के हवाले से कहा कि जिस तरह ख़ुदा ने हज़रत इब्राहीम (अ) को आसमानों और ज़मीन के मल्क़ूत दिखाए, उसी तरह हम सबको भी यह दावत दी गई है कि हम आसमान और ज़मीन के आंतरिक पहलुओं पर नज़र डालें। यह इलाही दावत दरअसल इंसान के लिए सबसे बड़ी इज़्ज़त और तक़रीम है।

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