۱۱ تیر ۱۴۰۳ |۲۴ ذیحجهٔ ۱۴۴۵ | Jul 1, 2024
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12 सितंबर 2023 - 16:52
امامت

हौज़ा/इमाम का हर तरह की बुराई छोटे बड़े गुनाह से मासूम होना ज़रूरी है क्योंकि जो मासूम नहीं होगा वह गुनाह करेगा वह लोगों का भरोसेमंद नहीं बन सकता और जब लोगों का उसपर भरोसा नहीं होगा तो ज़ाहिर है उसकी बात भी कोई नहीं सुनेगा उसके किसी हुक्म को नहीं मानेगा,

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,शिया अक़ीदे के अनुसार जिस तरह अल्लाह ने इंसानों की हिदायत के लिए नबियों को भेजा उसी तरह नबियों के बाद इमामों को भेजा, क्योंकि उसकी हिकमत इस ज़रूरत को महसूस करती है कि नबियों के बाद हर दौर में इंसानों की हिदायत के लिए उसी की तरफ़ से किसी इमाम और हिदायत करने वाले का होना ज़रूरी है ताकि पिछले नबियों की शरीयत और अल्लाह के दीन को बर्बाद होने और मिटने से बचाए और हर दौर की ज़रूरत को लोगों के सामने बयान करे,

इसी तरह लोगों को अल्लाह से क़रीब करे और नबियों के बताए रास्ते पर अमल की दावत दे, क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो इंसान का सआदत तक पहुंचने और एक आइडियल इंसान बनने का सपना अधूरा रह जाएगा और वह सही हिदायत भी नहीं हासिल सकेगा और नबियों की मेहनत बर्बाद होने के साथ साथ लोग भी गुमराह हो जाएंगे।

यही कारण हैं जिसको ध्यान में रखते हुए शियों का अक़ीदा है कि पैग़म्बर स.अ. की वफ़ात के बाद हर दौर में इमाम का होना ज़रूरी है, अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ ईमान लाने वालों मुत्तक़ी बनो और सच्चों के साथ हो जाओ, यह आयत किसी ख़ास ज़माने के लिए नहीं है और बिना किसी शर्त के सच्चों के साथ रहने का हुक्म दिया गया है जिससे पता चलता है कि हर दौर में एक मासूम इमाम अ.स. मौजूद होता है जिसकी इताअत करना सबकी ज़िम्मेदारी है, जैसाकि बहुत सारे शिया और सुन्नी मुफ़स्सिरों ने भी इस बात की ओर इशारा किया है।

इमामत केवल ज़ाहिरी हुकूमत करना नहीं है बल्कि एक मानवी और रूहानी पद है, इमाम हुकूमत के अलावा दीनी और दुनियावी दोनों मामलों में लोगों की हिदायत करता है, लोगों के विचार और उनकी सोंच को सही दिशा देता है, पैग़म्बर स.अ. की शरीयत को किसी भी तरह के बदलाव से बचाता है और पैग़म्बर स.अ. के मिशन को आगे बढ़ाता है।

इमामत वह महान पद है जिसे अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम अ.स. को नबुव्वत रेसालत और कई सख़्त इम्तेहानों से गुज़रने के बाद यह पद दिया गया, आपने इस पद की अहमियत को देखते हुए अपनी नस्ल के लिए भी अल्लाह से मांगा लेकिन अल्लाह ने साफ़ शब्दों में यह कह कर मना कर दिया कि यह पद ज़ालिमों के लिए नहीं है।

ज़ाहिर सी बात है जिस विषय पर उलमा ने कई कई जिल्द में किताबें लिखी हों उसका सारांश (ख़ुलासा) भी एक आर्टिकल में बयान करना मुमकिन नहीं है, लेकिन हम यहां पर इमामत से जुड़े शियों के बुनियादी अक़ीदों को बयान कर रहे हैं।

जैसाकि इमामत के बारे में ऊपर बताया गया कि इमामत अल्लाह की ओर से दिया जाने वाला एक महान पद है जिसे अल्लाह कुछ अहम शर्तों (तक़वा, इल्म वग़ैरह) के साथ अपने विशेष बंदों को देता है।

इमाम का हर तरह की बुराई छोटे बड़े गुनाह से मासूम होना ज़रूरी है, क्योंकि जो मासूम नहीं होगा और गुनाह करेगा वह लोगों का भरोसेमंद नहीं बन सकता और जब लोगों का उस भरोसा नहीं होगा तो ज़ाहिर है उसकी बात भी कोई नहीं सुनेगा उसके किसी हुक्म को नहीं मानेगा।

इमाम को इस्लाम के उसूल और फ़ुरूअ, क़ायदे क़ानून और क़ुर्आन की तफ़सीर का मुकम्मल इल्म होना ज़रूरी है, उसके इल्म में अल्लाह के इल्म की झलक का होना ज़रूरी है यानी उसे हर दीनी ज़रूरत की मालूमात का होना ज़रूरी है,

इल्म उसको पैग़म्बर स.अ. की मीरास में मिला हुआ होता है और ऐसे ही इल्म वाले पर लोग भरोसा करेंगे वरना अगर इमाम से ज़्यादा किसी आम इंसान के पास इल्म हो गया तो वह अल्लाह की बारगाह में शिकायत कर सकता है कि ऐ अल्लाह जब मेरे पास इससे ज़्यादा इल्म था तो मैं इसकी बात क्यों मानता।

इमाम केवल अल्लाह बना सकता है, यानी अल्लाह के हुक्म से पैग़म्बर स.अ. अपने बाद आने वाले इमाम का नाम और उनके बारे में लोगों को बताएंगे और फिर इमाम अपने बाद आने वाले हर इमाम को पहचनवाएगा, जिस तरह नबी केवल अल्लाह ही चुन सकता है वैसे ही इमाम भी केवल अल्लाह ही बना सकता है जैसाकि उसने ख़ुद क़ुर्आन में हज़रत इब्राहीम अ.स. के लिए फ़रमाया कि मैं तुमको लोगों का इमाम बनाता हूं।

शियों का अक़ीदा है कि पैग़म्बर स.अ. ने अपने बाद आने वाले सभी इमामों का हदीसे सक़लैन में ज़िक्र किया और इमाम अली अ.स. को कई बार अलग अलग मौक़ों पर अपने बाद अपना उत्तराधिकारी ऐलान किया।

सहीह मुस्लिम में मिलता है कि पैग़म्बर स.अ. मक्का और मदीना के बीच ख़ुम नामी जगह पर रुके फिर ख़ुत्बा दिया उसके बाद फ़रमाया मैं तुम लोगों के बीच से जाने वाला हूं और तुम्हारे बीच दो अहम चीज़ें छोड़ रहा हूं पहली अल्लाह की किताब जिसमें हिदायत के रास्ते हैं और मेरे अहलेबैत अ.स., मैं वसीयत कर रहा हूं कि ख़ुदा के लिए मेरे अहलेबैत अ.स. को मत भुलाना (इस जुमले को आपने तीन बार कहा) (सहीह मुस्लिम जिल्द 4, पेज 1873)
सहीह तिरमिज़ी में भी लगभग इसी तरह की हदीस मौजूद है और उसमें तो साफ़ शब्दों में हदीस का यह भी टुकड़ा मौजूद है कि जब तक इन दोनों से जुड़े रहोगे कभी गुराह नहीं हो सकते। (सहीह तिरमिज़ी, जिल्द 5, पेज 662)
इस हदीस को सुनन-ए- दारमी जिल्द 2 पेज 432 में ख़साएसे नेसाई पेज 20 में मुसनदे अहमद में जिल्द 5 पेज 182 में और भी अहले सुन्नत की दूसरी मशहूर और मोतबर किताबों में देखा जा सकता है, हक़ीक़त में यह हदीस इतने ज़्यादा रावियों से नक़्ल हुई है कि कोई भी मुसलमान इसका इंकार नहीं कर सकता, और हदीसों से यह बात भी सामने आती है कि पैग़म्बर स.अ. ने केवल एक बार नहीं बल्कि अनेक बार इस विषय पर ज़ोर देते हुए इसे बयान किया है।

यह बात भी साफ़ है कि हदीस में अहलेबैत अ.स. के शब्द से मुराद उनके घर का हर इंसान नहीं है बल्कि हदीस से मुराद केवल वह मासूम इमाम हैं जिनके इमाम होने को पैग़म्बर स.अ. ने बयान किया है।

हालांकि कुछ हदीस में अहलेबैत अ.स. की जगह सुन्नत नक़्ल हुआ है जिनके बारे में उलमा ने बयान किया है कि वह हदीस भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं।

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