हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट अनुसार, मौलाना सय्यद अली तक़वी सनह 1353 हिजरी में बास्टा, ज़िला बिजनौर, उत्तर प्रदेश में पैदा हुए। आपके वालिद मौलाना सय्यद सग़ीर हसन तक़वी एक बावक़ार और कुदसी सिफात वाले आलिमे दीन थे।
आप ने इब्तिदाई तालीम अपने वालिद से हासिल की। इसके बाद नोगावाँ सादात की मशहूर दीनी दरसगाह "बाब उल-इल्म" में दाख़िला लिया, जहाँ आपने मौलाना आगा हैदर, मौलाना जवाद असगर नातिक और अपने बड़े भाई मौलाना सैयद मुहम्मद से क़सब-ए-फ़ैज़ किया।
बाब उल-इल्म से फराघगत के बाद मौसूफ़ ने लखनऊ का सफ़र किया और वहाँ सुलतान-उल-मदारिस में दाख़िल होकरमुमताज़ उस्ताद जैसे आयतुल्लाह सैयद अली रज़वी लखनवी, मौलाना अब्दुल हुसैन, मौलाना अल्ताफ़ हैदर, मौलाना मोहम्मद मेहदी, नादिरत-उज़-ज़मान मौलाना इबने हसन नोनहरवी, फकीह-ए-आज़म मौलाना सैयद हुसैन और फख्र-उल-फ़ोक़हा मौलाना सैयद मुहम्मद से इल्मी फ़ैज़ हासिल किया। सनह 1956 ईस्वी में दरजा "सनद उल-अफ़ाज़िल" तक तालीम हासिल करने के बाद आप दिल्ली वापस तशरीफ़ लाए।
मौलाना का इल्मी सफ़र यहीं खत्म नहीं हुआ, बल्क़ि आपने अला तालीम के हासिल करने की खातिर नजफ़े अशरफ़ का रुख किया और वहाँ मौलाना सैयद हैदर अब्बास समेत दिगर उस्तादे किराम के सामने ज़ानुए-ए-अदब तह किये।
इल्मी कमालात और दीनी ख़िदमत के एराफ़ में हिन्दुस्तान, ईरान और इराक़ के बुज़ुर्ग मराजे किराम: आयतुल्लाह अली, आयतुल्लाह मुहम्मद अली इराकी, आयतुल्लाह उल-उज़्मा रूहुल्लाह खुमैनी, आयतुल्लाह कलबे हुसैन नक़वी, आयतुल्लाह उल-उज़्मा सैयद अबुल-क़ासिम खुई, आयतुल्लाह मुहम्मद हुसैन रज़वी और आयतुल्लाह उल-उज़्मा सैयद अली खामनेई ने आपको इजाज़ात से नवाज़ा।
कुछ अरसे बाद आप नजफ़े अशरफ़ से वतन वापस आए। हिन्दुस्तान वापसी के बाद आपने मख़तलिफ़ शहरों का तबलीगी दौरा किया। आपका पहला गैर-मुल्की तबलीगी सफ़र नेपाल का था, जहाँ के अवाम की इल्मी और मज़हबी पस्मांदगी को देख कर आपने अपने शरई फ़र्ज़ को अंज़ाम दिया। आपने हरियाणा के मख़तलिफ़ इलाक़ों, खास तौर पर रसूलपुर जैसी बस्तियों का सफ़र किया और लोगों में दीनी शऊर पैदा किया।
आप की दीनी ख़िदमत का दायरा शिमला (हिमाचल प्रदेश) तक फैला हुआ था। शिमला में एक क़दीम इमामबाड़ा और मस्जिद थी, जिस पर एक रिटायर्ड कर्नल ने क़ब्ज़ा कर के मज़दूरों का मस्क़न बना रखा था। मौलाना अपनी क़ानूनी और दीनी ज़िम्मेदारी को महसूस करते हुए दिल्ली वापस आए और हुक्काम से बाक़ायदा सरकारी इज़ाज़त नामा हासिल कर के वापस शिमला पहुँचे। मस्जिद और इमामबाडे को आज़ाद कर के क़ौम के सुपुर्द कर दिया। इसी साल आपने वहीं अशरा-ए-मुहर्रम भी पढ़ा, जिसमें अम्न, मुहब्बत और इत्तिहाद का पैग़ाम दिया। आशूरा के दिन वहाँ के एस पी के तआवुन से बाक़ायदा जुलूस भी बरामद कराया, जिसमें नज़्म-ओ-ज़ब्त के साथ अज़ादारी की गई।
सन 1956 में मौलाना सैयद अली के वालिद मौलाना सग़ीर हसन ने अपनी ज़िंदगी में आयतुल्लाह अल-उज़्मा मोह्सिन अल-हकीम से तहरीरी इजाज़त हासिल कर के आपको दिल्ली की मरकज़ी जामा मस्जिद, कश्मीरी गेट में इमाम जुमा के मंसब पर फ़ाइज़ किया। मौलाना सैयद अली तक़वी ने पचास बरस तक इस दीनी ज़िम्मेदारी को निहायत हुस्न-ए-तदबीर के साथ निभाया। मौसूफ़ के इंतेक़ाल के बाद यह मंसब उनके फ़रज़ंद मौलाना मोहम्मद अली (अर्फ़ मोहसिन) की तरफ़ मुनतक़िल हुआ, जिसे आज भी बख़ूबी निभा रहे हैं।
आप इल्म दोस्त और इल्म परवर शख़्सियत के हामिल थे। सन 2001 में "जामिअतु-शशहीद" की सरपरस्ती क़ुबूल करना आपके इल्मी ज़ौक़ की रोशन मिसाल है। आज भी यह इदारा आपके बड़े फ़रज़ंद मौलाना मुहम्मद अली मोहसिन की ज़ेर-ए-क़यादत क़ौम-ओ-मिल्लत को फ़ैज़ पहुँचा रहा है।
मौलाना सैयद अली तक़वी ना सिर्फ़ एक जय्यद आलिम-ए-दीन थे बल्कि एक साहिबे क़लम शख़्सियत भी थे। आपने कई बरसों तक हिन्दुस्तान के मख़तलिफ़ अख़बारों और रिसालों में मज़हबी, फ़िकरी और सामाजिक मौज़ूआत पर मज़ामीन क़लमबंद किए। आप हमेशा हिन्दुस्तानी मुसलमानों के बीच इत्तिहाद क़ायम रखने के लिए कोशाँ रहे। इसी मक़सद के तहत आपने मख़तलिफ़ इल्मी और दीनी कॉन्फ़रेंसों में शिरकत की। इनमें तेहरान की अंतरराष्ट्रीय वहदत-ए-इस्लामी कॉन्फ़रेंस और दिल्ली की अंतरराष्ट्रीय हज कॉन्फ़रेंस बतोरे ख़ास क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
आप हमेशा मरजेईयत और रूहानियत के अज़ीम मंसब को उजागर करने में मस्रूफ़-ए-अमल रहे। आपकी शख़्सियत हर दिल अज़ीज़, मुतावाज़े, मुनकसेरूल मिज़ाज, खुश-अखलाक़ और मिलनसार थी। हर एक से खंदा पेशानी से मिलना, खैरियत दर्याफ़्त करना और नरमी व शफ़क़त से पेश आना आपका ख़ास्सा था। आपकी शख़्सियत में ऐसी क़शिश थी कि जो एक बार आप से मुलाक़ात करता वह दुबारा मुलाक़ात का ख़ाहिशमंद ज़रूर होता।
दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और कश्मीर के मोमिनीन आप से बेपनाह अक़ीदत रखते थे। अहल-ए-कश्मीर तो आप से इतनी मोहब्बत करते थे कि अक्सर औक़ात आप को कश्मीर ले जाते और कई-कई माह मेहमान बनाए रखते। आपके मौज़ूआत, ख़ास तौर पर आख़िरत की मंज़र-कशी, हिसाब-ओ-किताब और अज़ाब-ए-इलाही के तज़किरे इस क़दर दिल-सूज़ और असर-अंगेज़ होते कि सामेईन पर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा तारी हो जाता था। आपके ख़ुतबात-ए-जुमा और ईदैन अख़लाक़ी तरबियत, इस्लाह-ए-मुआशरा और दीनी बेदारी पर मुत्तशमिल होते थे। दिल्ली के मोमिनीन में जो मज़हबी बेदारी नजर आती है, वह आपकी मेहनतों और तबलीगी जिद्दो जहद का समरा है।
अल्लाह ने आपको तीन साहबज़ादीयों और दो साहिबज़ादों से नवाज़ा, जिनमें मौलाना सैयद मुहम्मद अली उर्फ़ मोहसिन और सैयद नय्यर रज़ा के अस्मा-ए-ग़रामी ख़ास तौर से म़शहूर हैं। आपके इल्मी, दीनी और अख़लाक़ी नुक़ूश आज भी आपकी औलाद के ज़रिए बाक़ी हैं।
आख़िरकार यह इल्म व अमल का दरख़्शां चराग़ 22 / रबीउल-अव्वल 1439 हिजरी को दिल्ली में ख़ामोश हो गया। आपका जनाज़ा दिल्ली से आगरा ले लाया गया, जहाँ आपको शहीद-ए-सालिस क़ाज़ी नूरुल्लाह शूश्तरी के मज़ार के अहाते में अकीदत-मंदों की आहों, सिसकियों और गिरया-ओ-ज़ारी के साथ सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया।
माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-10 पेज-123 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2024 ईस्वी।
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