हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, बर्रेसगीर की इल्मी तारीख़ में कुछ ऐसे चराग़ भी रौशन हुए जिनकी रोशनी सिर्फ़ उन के दौर तक महदूद न रही, बल्कि आने वाली नस्लों के लिए भी रास्ता बन गई। ऐसी ही एक रौशन मिसाल थे अल्लामा सय्यद नियाज़ हसन हैदराबादी।
आप सन 1822 ईस्वी में बरस्त, ज़िला करनाल, सूबा हरियाणा के एक इल्मी और दींदार ख़ानदान में पैदा हुए। आप के वालिद मौलाना ग़ुलाम हुसैन का शुमार अपने वक़्त के मुमताज़ औलमा में होता था। इन्हीं से इल्म व तक़वे की जो विरासत मिली, वह आप की पूरी ज़िंदगी में नुमायाँ नज़र आती रही।
मौसूफ़ ने इब्तिदाई तालीम के बाद लखनऊ का रुख़ किया और बुज़ुर्ग असातेज़ा से कस्ब-ए-फैज़ किया। जिन में आगा हुसैन "मीरन" सय्यद-उल-औलमा सय्यद हुसैन, मुफ़्ती सय्यद मोहम्मद अब्बास वग़ैरा के असमाए गिरामी सर-ए-फ़ेहरिस्त हैं।
आप ने लखनऊ में तहसील-ए-इल्म के बाद इराक़ का सफ़र किया और वहां अकाबिर औलमा से कस्ब-ए-फैज़ किया। आप ने नजफ़ ए अशरफ़ में हज़रत अमीर-उल-मोमिनीन अली (अ.स.) की बारगाह में हाज़िरी के बाद कर्बला, सामर्रा और काज़िमैन के रूहानी सफ़र तय किए। इन मुक़द्दस मक़ामात की ज़ियारतें आप के लिए सिर्फ़ रूहानी तस्कीन का ज़रिया न थीं बल्कि इल्मी तरक़्क़ी की एक सीढ़ी थीं। मौसूफ़ ने वहां रह कर आयतुल्लाह शेख़ माज़न्दरानी कर्बलाई, हाज मिर्ज़ा तक़ी तबातबाई जैसे जय्यद असातेज़ा के सामने ज़ानू-ए-अदब तय किए। इन दोनों बुज़ुर्ग असातेज़ा ने आप की इल्मी सलाहियत को देखते हुए इजाज़ात से नवाज़ा।
अल्लामा नियाज़ हसन ने इराक़ से वापसी पर हैदराबाद दकन का रुख़ किया। यही वह मरहला था जब आप की इल्मी और इस्लाही ज़िंदगी का दूसरा दौर शुरू हुआ। यहां आप ने दीन की ख़िदमात का आग़ाज़ किया, अवाम को इबादात, अख़लाक़ और दीनी शऊर की रौशनी दी। हैदराबाद के लोगों ने आप को क़दर-व-मंज़िलत की निगाह से देखा और आप की रहनुमाई में एक नई दीनदार बेदारी ने जन्म लिया। ग़रज़ यह कि मौसूफ़ ख़िताबत, तदरीस और लोगों की रहनुमाई तीनों महाज़ों पर सरगर्म रहे।
अल्लामा नियाज़ हसन (रह.) दकन में बहुत जल्द मर्जअ-ए-ख़लाइक़ बन गए। निज़ाम-ए-दकन की जानिब से आप को सरकारी ओहदा भी अता हुआ और आप अपने वज़ाइफ़ की अंजाम-देही में मशग़ूल हो गए। मौसूफ़ ने मर्दों और औरतों के लिए दो अलग-अलग मसाजिद तामीर करवाईं और इन मसाजिद से शिया मसलक की अज़ानों की आवाज़ सुनाई देने लगी।
आप की ख़िदमात और शोहरत नवाब मुख़्तार-उल-मुल्क सालार जंग तक पहुंची तो आप की जानिब ख़ास तवज्जो फ़रमाई। मुख़्तार-उल-मुल्क ने न सिर्फ़ आप की सरपरस्ती की बल्कि आप के इल्म-ओ-अमल की भरपूर हिमायत की।
अल्लामा नियाज़ हसन (रह.) ने सिर्फ़ अवामी इस्लाह पर तवज्जो न दी बल्कि इल्मी तरबियत का भी एहतेमाम किया। उन के शागिर्दों की एक तवील फ़ेहरिस्त है जिन में अहल-ए-सुन्नत हज़रात भी शामिल हैं। आप के शिया-सुन्नी शागिर्दों का होना इस बात का सुबूत है कि आप की शख़्सियत और इल्म किसी एक मक़तब-ए-फ़िक्र तक महदूद ना था बल्कि सब के लिए बराबर था। आप के मुम्ताज़ शागिर्दों में: मौलाना अहमद ख़ान हैदराबादी, मौलाना सय्यद फ़ैज़ हुसैन, मौलाना सादिक़ अली, मौलाना सय्यद अकाबिर हुसैन ज़ैदपुरी और मौलाना काज़िम अली (इमामे जुमा हैदराबाद) के नाम क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
आप ने तमाम तर मसरूफ़ियात के बावजूद तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ के मैदान में भी क़लमी जौहर दिखाए। आप की मसनवी "हदीक़त-उल-ईमान" एक फ़िक्री और रूहानी शाहकार है। इसी तरह "हिल्यत-उल-इबाद" (तरजुमा-ए-“ज़ीनत-उल-इबाद”) इल्म-व-इरफ़ान के ज़ौक़ रखने वालों के लिए एक ग़िराँ-क़द्र तौहफ़ा है। इस के अलावा आप के तहरीर करदा कई इजाज़ात भी इल्मी दुनिया में महफ़ूज़ हैं।
ख़ुदावंद-ए-आलम ने आप को औलाद जैसी नेमत से नवाज़ा जिन में मौलाना बंदे हसन, मौलाना अबुल हसन (जो मीरन के लक़ब से म'रूफ़ हुए), मौलाना अहमद रज़ा और मौलाना मुनै आगा शामिल हैं जो ख़ुद भी दीनी ख़िदमात में मसरूफ़ रहे।
आप ने 18 मर्तबा हज-ए-बैतुल्लाह, 29 बार ज़ियारत-ए-एअत्बात-ए-आलिया और 7 बार ज़ियारत-ए-इमाम रज़ा (अ.स.) के लिए मशहद मुक़द्दस का सफ़र किया।
मौसूफ़ जब आख़िरी बार सन 1892 ईस्वी में मशहद मुक़द्दस की तरफ़ रेल गाड़ी से रवाना हुए, दौराने सफ़र अचानक बीमार हो गए और इस फानी दुनिया को ख़ैरबाद कहा। इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजेऊन।
शहर "सकर" में आप के जनाज़े को ट्रेन से उतार कर, जसद-ए-ख़ाक़ी को शहर सकर के क़ब्रिस्तान में अमानतन रखा गया। दो साल बाद, कर्बला-ए-मुअल्ला में सुपुर्द-ए-ख़ाक़ कर दिया गया।
माखूज़ अज़: मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-10 पेज-234 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2024ईस्वी।
आपकी टिप्पणी