शनिवार 13 दिसंबर 2025 - 20:27
मुकामात मुकद्देसा की ज़ियारत के बाद हमारे अंदर तब्दीली न आना ग़ैर मक़बूल और ग़ैर माक़ूल है

हौज़ा / मरज ए आली क़द्र ह़ज़रत आयतुल्लाह अल उज़मा अलह़ाज ह़ाफ़िज़ बशीर हुसैन नजफ़ी (दाम ज़िललो हुल्-वारिफ़) के फरज़ंद और केंद्रीय कार्यालय के निदेशक हुज्जतुल-इस्लाम शैख़ अली नजफ़ी (दाम ईज़्ज़हू) ने केंद्रीय कार्यालय नजफ़-ए-अशरफ़ में पाकिस्तान से आए हुए ज़ायरीन का स्वागत किया।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,मरज ए आली क़द्र ह़ज़रत आयतुल्लाह अल उज़मा अलह़ाज ह़ाफ़िज़ बशीर हुसैन नजफ़ी (दाम ज़िललो हुल्-वारिफ़) के फरज़ंद और केंद्रीय कार्यालय के निदेशक हुज्जतुल-इस्लाम शैख़ अली नजफ़ी (दाम ईज़्ज़हू) ने केंद्रीय कार्यालय नजफ़-ए-अशरफ़ में पाकिस्तान से आए हुए ज़ायरीन का स्वागत किया।

उन्होंने ज़ायरीन-ए-इकराम का इस्तेक़बाल (स्वागत) करते हुए फ़रमाया कि आप इस मुतवाज़ेआ (विनम्र)दफ़्तर में हाज़िर हुए कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ज़ायर की हैसियत से तशरीफ़ लाए हैं, यह मेरे लिए शरफ़ की बात है।

उन्होंने ज़ायरीन-ए-इकराम से ख़िताब करते हुए फ़रमाया की जगह के हिसाब से अदा की जाने वाली नमाज़ों का हमें अज्र मिलता है। मिसाल के तौर पर, अगर हमने बा-जमाअत नमाज़ अदा की तो उस का सवाब फ़ोरादा नमाज़ से ज़्यादा है। इसी तरह अगर मस्जिद में अदा की तो उस का सवाब और ज़्यादा है।

लेकिन अगर मस्जिदे नबवी और मस्जिदे कूफ़ा में हमें नमाज़ अदा करने की तौफ़ीक़ नसीब हुई तो उस का सवाब और ज़्यादा है। लेकिन रिवायत से मालूम हुआ है की सब से ज़्यादा उस नमाज़ का अज्र है जो हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली इब्ने अबी तालिब अलैहिमास्सलाम के जवार (पड़ोस) में अदा की गई हो।

अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की ज़ियारत की यह एक फ़ज़ीलत है। इस मुक़द्दस जवार में सोना भी इबादत है, जैसा कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने अमल से बताया है।

जब हम किसी इमाम अलैहिस्सलाम की ज़ियारत को जाते हैं तो हमें जाते वक़्त हर क़दम पर सवाब मिलता है, और ज़ियारत का भी सवाब मिलता है। लेकिन जब हम अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम की ज़ियारत को आते हैं, तो इन दो सवाबों के अलावा, जब हम ज़ियारत के बाद अपने घर वापस जाते हैं तब भी हमें हर क़दम पर दो हज और दो उमरे का सवाब मिलता है।

हुज्जतुल-इस्लाम शैख़ अली नजफ़ी (दाम ईज़्ज़हू) ने फ़रमाया कि अगर कोई शख़्स अतर की दुकान से वापस आता है, तो चाहे उसने अतर न लगाया हो, फिर भी उसके बदन से ख़ुशबू आ ही जाती है। इसलिए मुक़द्दस मुक़ामात की ज़ियारतों के बाद हमारे अंदर मुसबत तब्दीली आनी चाहिए। इस तब्दीली का न आना ग़ैर-मक़बूल और ग़ैर-माक़ूल है।

ख़ास तौर पर जब हम हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़ियारत को जाएं, तो हमारी नज़रें सोने-चांदी और जवाहरात पर न रहें, बल्कि दिल की आंखों से उस मुक़द्दस ज़रीह, उसके अंदर मौजूद संदूक, और उसमें चटाई में लिपटी पामाल-शुदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की लाश और उस पर छह महीने के हज़रत अली असग़र अलैहिस्सलाम की बे-सर लाश पर टिकी रहें। ख़ूब रोएं, गिरिया करें, बुलंद आवाज़ से नोहा और मातम करें।

वापसी से पहले इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को गवाह बनाकर ख़ुदा से अपने गुनाहों का एतिराफ़ करें, उनका वास्ता देकर मग़फ़िरत तलब करें और हक़ीक़ी तौबा करें। ख़ुदा ब-हक़े इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हमारी तौबा क़बूल करेगा।

आख़िर में उन्होंने ज़ायरीन की ज़ियारत के क़बूल होने की दुआ फ़रमाई। दूसरी तरफ़, आए हुए ज़ायरीन ने कीमती समय देने और स्वागत के लिए उनका शुक्रिया अदा किया।

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