मंगलवार 16 दिसंबर 2025 - 09:15
सामाजिक और राजनीतिक जिंदगी में इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम का सुझाव

हौज़ा / यदि आज उम्मत शिखर पर पहुँचना और आर्थिक प्रगति के पथ पर अग्रसर होना चाहती है, तो यह आवश्यक है कि इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम की राजनीतिक और सामाजिक सेवाओं से पूर्ण लाभ उठाए।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , हिंदुस्तान के मशहूर खतीब ज़ाकिर ए अहलेबैत अ.स.हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैयद गुलज़ार हुसैन जाफ़री से एक खुसूसी इंटरव्यू हुआ जिसमें उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जिंदगी में इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम के सुझाव वह बयान फरमाया,

विस्तृत इंटरव्यू इस तरह है:

हौज़ा न्यूज़ : सलाम अलैकुम व रहमतुल्लाह।आप से सवाल हज़रत इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम के दौर में राजनीतिक हालात कैसे थे और आपने उन हालात में इस्लामी तालीमात को कैसे ज़िंदा रखा?

मौलाना गुलज़ार जाफ़री : वालेकुम सलाम आपका बहुत-बहुत शुक्रिया،हज़रत इमाम अलैहिस्सलाम की ज़िंदगी मुआविया, यज़ीद, अब्दुल मलिक बिन मरवान और हिशाम बिन अब्दुल मलिक जैसे ज़ालिम हुक्मरानों के दौर में गुज़री। इन हालात में आपने हिक्मत, तदबीर और सब्र के साथ इल्मी, सामाजिक और राजनीति खिदमात जारी रखीं। आपने हमेशा इस्लाम के कानूनों की बुलंदी के लिए काम किया, यहाँ तक कि दुश्मन हुकूमतें भी आपके इल्म व तदबीर के मुहताज रहीं।

हौज़ा न्यूज़ : इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम की सीरत से हम मौजूदा दौर में आर्थिक व राजनीति तरक़्क़ी के लिए क्या सबक़ ले सकते हैं?

मौलाना गुलज़ार जाफ़री : इमाम अलैहिस्सलाम की सीरत हमें सिखाती है कि:

1. मअशीयत को इस्लामी उसूल पर कायम करना ज़रूरी है।
2. आत्मनिर्भरता और मेहनत को इबादत समझकर अख्तियार करना चाहिए।
3. ज़ालिम हुक्मरानों के दौर में भी हिक्मत और सब्र के साथ इस्लाम की खिदमत जारी रखनी चाहिए।
4. इल्म व तदबीर से दुश्मन के मंसूबों को नाकाम किया जा सकता है।
5. आज भी अगर उम्मत-ए-मुस्लिमा आर्थिक तरक़्क़ी चाहती है, तो इमाम बाकिर अलैहिस्सलाम के मशवरे पर अमल करते हुए इस्लामी करेंसी और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना होगा।

हौज़ा न्यूज़ : आप इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम के अनुसार "कस्ब-ए-मआश" और "कस्ब-ए-दुनिया" में क्या मूलभूत अंतर है?

मौलाना गुलज़ार जाफ़री :हज़रत इमाम अलैहिस्सलाम के अनुसार, कस्ब-ए-मआश का उद्देश्य केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं है, बल्कि यह अनाथों की देखभाल, गरीबों की सहायता और बेसहारा लोगों की कफ़ालत जैसे सामाजिक कर्तव्य हैं। इसका आध्यात्मिक पहलू यह है कि यह काम अल्लाह की इबादत और आज्ञापालन की श्रेणी में आता है। जबकि कस्ब-ए-दुनिया का लक्ष्य ऐश-ओ-आराम, पद और पैसा जमा करना होता है, जो इंसान को भौतिकवाद में डाल देता है।

हौज़ा न्यूज़ : इमाम अलैहिस्सलाम ने कस्ब-ए-मआश को "इताअत-ए-इलाही" क्यों कहा है?

मौलाना गुलज़ार जाफ़री : इमाम अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि हलाल रोज़ी कमाना वास्तव में अल्लाह के हुक्म का पालना है। यह काम इंसान को विनम्रता और सादगी सिखाता है और उसे आर्थिक रूप से मज़बूत बनाता है। यहाँ तक कि इस हालत में मौत भी शहादत के दर्जे में होती है, क्योंकि यह अमल अल्लाह की रज़ा के लिए होता है।

हौज़ा न्यूज़ :  इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने आखिरी दौर-ए-हयात में भी कस्ब-ए-मआश को न छोड़ने की क्या वजह बताई?

मौलाना गुलज़ार जाफ़री : इमाम अलैहिस्सलाम ने उम्मत-ए-मुस्लिमा में फैली आलस्य, सुस्ती और काम से दूर भागने की पुरानी रिवायत को खत्म करने के लिए अमली मिसाल कायम की। आपने साबित किया कि मेहनत-मज़दूरी सिर्फ ज़रूरत पूरी करने का ज़रिया नहीं, बल्कि यह एक इबादत और सुन्नत है, जिसे हर हाल में जारी रखना चाहिए।

हौज़ा न्यूज़ : मौजूदा दौर में उम्मत-ए-मुस्लिमा आर्थिक तौर पर मग़रिबी करेंसी पर क्यों निर्भर है?

मौलाना गुलज़ार जाफ़री : इमाम अलैहिस्सलाम के मशवरे के उलट, आज की ज़्यादातर इस्लामी हुकूमतों ने अपनी मअशीयत को ग़ैर-इस्लामी करेंसी के ताबे कर दिया है। वे आर्थिक आत्मनिर्भरता के बजाय मग़रिबी ताक़तों के मुहताज हैं, जिसकी वजह से न सिर्फ उम्मत का शीराजा बिखरा है, बल्कि इस्लाम और मुसलमान बदनाम भी हो रहे हैं।

अंत में,इमाम मोहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम की ज़िंदगी और तालीमात आर्थिक, राजनीति और सामाजिक हर पहलू से उम्मत के लिए रौशन रहनुमाई हैं इन पर अमल करके ही उम्मत-ए-मुस्लिमा अपनी अज़्मत-ए-रफ़्ता को दोबारा हासिल कर सकती है।

हौज़ा न्यूज़ : धन्यवाद मौलाना साहब, आपके विचारों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला।

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