गुरुवार 4 नवंबर 2021 - 15:01
अमरीकी जासूसी के अड्डे पर ईरानी छात्रों का क़ब्ज़ा, इसी बिंदु से शुरू हो गया था अमरीका का पतन

हौज़ा/बीसवीं सदी अमेरिकी ख्वाबों की दुनिया है अमेरिकियों का दावा था कि दुनिया उनकी उंगली पर नाचती है, इसी दावे के साथ ही 1991 में पूर्व सोवियत संघ के विघटन और दुनिया की एक ध्रीवीय भी हो जाने के बाद भूत पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश सीनियर ने दुनिया में पुराना वर्ल्ड ऑर्डर खत्म होने की बात कही और बुद्धिजीवियों और राजनैतिक टीकाकरो ने भी अमेरिकी चौधराहट और अमेरिकी सदी के आगाज़ की भविष्यवाणी कर दी सब ने कहा कि अब दुनिया पर अमेरिकी जीवन शैली और अमेरिकी मूल्य छा जाएंगे

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,बीसवीं सदी अमेरिकी ख्वाबों की दुनिया है अमेरिकियों का दावा था कि दुनिया उनकी उंगली पर नाचती है, इसी दावे के साथ ही 1991 में पूर्व सोवियत संघ के विघटन और दुनिया की एक ध्रीवीय भी हो जाने के बाद भूत पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश सीनियर ने दुनिया में पुराना वर्ल्ड ऑर्डर खत्म होने की बात कही और बुद्धिजीवियों और राजनैतिक टीकाकरो ने भी अमेरिकी चौधराहट और अमेरिकी सदी के आगाज़ की भविष्यवाणी कर दी सब ने कहा कि अब दुनिया पर अमेरिकी जीवन शैली और अमेरिकी मूल्य छा जाएंगे
प्लान यह था कि अमरीका पूंजिवाद, प्रजातंत्र और अमरीकी मानवाधिकार जैसे अपने कथित मूल्यों को बाक़ी दुनिया के सामने पेश करेगा और स्वाधीन, डेमोक्रेटिक तथा आज़ादी के लिए प्रतिबद्ध राष्ट्रों क गठन करेगा। लेकिन 21वीं सदी में दुनिया की घटनाओं के रुख़ से ज़ाहिर हो गया कि यह दावा किस हद तक बेबुनियाद है। इन घटनाओं की वजह से बहुत से लोग अमरीकी दावे पर शक करने लगे।(1)  हालांकि बुश सीनियर ने फ़ोकोयामा के “द एन्ड ऑफ़ हिस्ट्री ऐन्ड द लास्ट मैन” और हैंटिंग्टन के “द क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशन्ज़” नज़रिये को मानते हुए, दुनिया में अमरीका की चैंपियंस जैसी छवि सुरक्षित रखने की कोशिश की लेकिन बहुत से दूसरे लोग थे जिन्होंने इसी बीच अमरीका के पतन की निशानी महसूस की। नोआम चॉम्सकी उन पहले लोगों में थे जिन्होंने इस निशानी का ज़िक्र किया और अमरीका के वर्चस्व के ख़्याल को ख़ुशफ़हमी बताया। यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर व कैटो इंस्टीट्यूट के मेंबर टेड गैलेन कार्पेन्टर ने पहली बार अमरीका की ताक़त के दीमक की तरह पतन शब्दावली का इस्तेमाल किया और इसका कारण उसकी तरफ़ से छेड़ी गयी जंगें और अपने प्रतिस्पर्धियों से पिछड़ना बताया। यहाँ तक कि ख़ुद ट्रम्प ने भी इस पतन की बात को आधिकारिक रूप से माना और अमरीका को दोबारा ग्रेट बनाने को अपना चुनावी नारा एलान किया। हालांकि बहुत से लोगों ने ख़ुद ट्रम्प की मौजूदगी को अमरीका के पतन की साफ़ निशानी माना।

इस पतन की प्रक्रिया के साथ ही अमरीका ने, कल्पनाओं का महल बनाने वाले हॉलीवुड को दुनिया में अपनी शक्तिशाली छवि को बचाने के लिए इस्तेमाल किया। वे अपनी काल्पनिक छवि को फ़िल्म के रूप में पेश करते थे और दुनिया से उसकी वाहवाही बटोरते थे। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और थी। पश्चिमी एशिया में रक्तरंजित जंगों के नतीजे, राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक संकट, ट्रम्प जैसे राष्ट्रपति का सत्ता में आना (2) और अंत में कोरोना के दौर में अमरीका में सामाजिक ढांचागत संकट के ज़ाहिर होने से इस काल्पनिक छवि पर बुनियादी रूप से सवाल उठने लगे।

जासूसी के अड्डे पर ईरानी छात्रों के क़ब्ज़े के बाद धूमिल पड़ने लगी अमरीका की छवि

हालांकि आज दुनिया अमरीका के पतन को आधिकारिक रूप से मान रही है और देख रही है कि उसकी धाक ख़त्म हो रही है, लेकिन इन घटनाओं से बरसों पहले यहां तक कि सोवियत संघ के विघटन से पहले, दुनिया के इस भाग में इस्लामी क्रांति की सफलता से अमरीका की मनमानी के सामने नई चुनौती पैदा हुयी जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ ईरान का रोल था। हालांकि अमरीका ने ज़ाहिर में यह दिखाने की कोशिश की थी कि वह क्रांतिकारियों और पहलवी शासन के बीच जारी विवाद में नहीं पड़ना चाहता था और ईरान के शासक को पनाह जैसे हस्तक्षेप को मानवाधिकार के नारे में छिपाता था, लेकिन जासूसी के अड्डे पर कंट्रोल और इस्लामी क्रांति के ख़िलाफ़ अमरीका की दुश्मनी भरी करतूतों का पर्दाफ़ाश होने से सबके सामने ज़ाहिर हो गया कि ईरान का बड़ा दुश्मन कौन था और किस तरह ईरानी राष्ट्र के अधिकारों का हनन करता था। यही चीज़ 19 अगस्त 1953 के विद्रोद में पहले भी देखी गयी थी। यही वजह थी कि इस्लामी क्रांति के संस्थापक व क्रांति के सुप्रीम लीडर स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह (1900-1989) इस घटना को दूसरी क्रांति कहते थे जो पहली क्रांति से बड़ी है चूंकि बड़े दुश्मन के मुक़ाबले में आयी थी।

अमरीकी दूतावास पर कंट्रोल की घटना में राजनैतिक व सुरक्षा आयाम के साथ साथ आर्थिक आयाम भी थे और यह अनेक आयाम से समीक्षा योग्य है जबकि इस घटना का सबसे अहम आयाम दुनिया में अमरीकी सभ्यता की छवि पर सवाल उठना है। आप सोचिए कि ऐसा देश जो विश्व समुदाय के संचालन और पूरी दुनिया के उसकी मुट्ठी में होने का दावा करता है, इमाम ख़ुमैनी की गाइडलाइन पर अमल करने वाले जवान व आज़ाद स्टूडेंट्स के हाथों चुनौती का सामना करता है। ऐसे स्टूडेंट्स जो किसी बड़ी ताक़त से जुड़े हुए नहीं थे। वह भी ऐसे देश में जहाँ नई नई क्रांति आयी और दिखने में भी अस्थिर लगता हो और इसी तरह पश्चिम एशिया क्षेत्र में जो अमरीकी नरेशन के मुताबिक़ हमेशा कमज़ोर और पश्चिम की तरफ़ से संचालन की मदद का मोहताज होता है। साफ़ है कि ऐसी घटना अमरीका की काल्पनिक शान के लिए कितना बड़ा ख़तरा समझी जाएगी। एक ओर बंधक बनाए गए लोगों की आज़ादी के लिए लगातार कोशिश (2) तो दूसरी ओर दूतावास में स्टूडेंट्स के दाख़िल होने की घटना की तस्वीरों को दुनिया के देशों में सेंसर करना, ऐसा क़दम था जिसे अमरीका ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बेइज़्ज़ती पर पर्दा डालने के लिए उठाया था। उन्होंने शुरू ही से “जासूसी के घोंसले पर कंट्रोल” के क्रांतिकारियों के नैरेटिव के मुक़ाबले में, इस मामले को “ईरान में किडनैप संकट” के नाम से प्रचारित करने की कोशिश की।

उनका मक़सद दूतावास के कर्मचारियों की गिरफ़्तारी को, जिनमें ज़्यादातर अस्ल में ईरान में सीआईए के जासूस थे, बढ़ा चढ़ा कर पेश करना, जासूसी और एक राष्ट्र के अधिकारों पर हमले को मानवाधिकार के नारों की आड़ में छिपा देना था। अमरीकियों ने कभी यह नहीं बताया कि बंधक बनाए गए लोगों का अग़वा करने का ऑप्रेशन किस तरह तबस में अपमानजनक तरीक़े से नाकाम हुआ (3) बल्कि हॉलिवुड की तरह धोखा देने वाले नरेशन के ज़रिए दुनिया में अपनी छवि को बचाने की कोशिश की। इन सबके बावजूद, इतिहास गवाह है कि दुनिया में आम लोगों के अमरीका की अस्लियत को समझने से बरसों पहले, ईरान की क्रांति ने दुनिया में अमरीका की झूठी छवि को धूमिल करने की पृष्ठिभूमि मुहैया कर दी थी।

अमरीकी छवि का धूमिल पड़ना क्यों अहम है?

अमरीका ने अपनी छवि को दुनिया पर वर्चस्व से जोड़ रखा है। इसी वजह से हमेशा दूसरों से कन्सेशन लेने की कोशिश करता है बिना उन्हें कुछ दिए हुए।(4) इस काम के नतीजे में दुनिया पर चौधराहट क़ायम करना चाहता है।(5) पवित्र क़ुरआन में इस आदत को घमंड कहा गया है। (6) साम्राज्य की आदत यह है कि ख़ुद को सूपीरियर समझता है और इस छवि को बचाने के लिए दूसरों को छोटा समझता है।  इसी वजह से वह दूसरे राष्ट्रों के मज़बूत पहलुओं को ख़त्म करना चाहता है। (7)

साम्राज्यवाद अपनी प्रचारिक मशीनरी के बड़े नेटवर्क के ज़रिए ऐसा काम करता है कि राष्ट्र उसको श्रेष्ठ मानें और उसके सामने ख़ुद को लाचार समझें जिसके नतीजे में अपने सारे संसाधन उसे समर्पित कर दें। साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष का पहला क़दम उसकी वर्चस्व जमाने की इस आदत को निशाना बनाना है। सबसे पहले ऐसी घटना घटे कि उसकी खोखली शान की क़लई खुल जाए और फिर उसके पतन के चिन्ह ज़ाहिर होने लगें। इसी वजह से इस्लामी क्रांति ने आग़ाज़ से ही यह समझ लिया कि उसका मुक़ाबला पहलवी शासन से नहीं बल्कि विश्व साम्राज्यवाद से है।  इस क्रांति ने शुरू से अमरीकी साम्राज्यवाद का मुक़ाबला किया और दुनिया को वर्चस्ववादी और वर्चस्व के शिकार देशों में बांटने के ग़लत उसूल को मानने से इंकार कर दिया।

हालांकि फ़रवरी 1978 में इस्लामी क्रांति की सफलता इस संघर्ष का पहला क़दम थी, लेकिन इस्लाम और साम्राज्य के बीच मोर्चाबंदी अमरीका के जासूसी के अड्डे पर कंट्रोल से पहले से ज़्यादा ज़ाहिर हो गयी और इस बार वह लोग जिन्हें छोटा समझा गया था, अमरीकियों के ख़िलाफ़ जिन्होंने हमेशा ख़ुद को सुपीरियर ज़ाहिर किया था, डट गए और खेल के रुख़ को बदल दिया। (10) इस क़दम का पहला असर यह है कि दुनिया के पीड़ित राष्ट्र, साम्राज्यवादियों के मुक़ाबले में ख़ुद को छोटा न समझें और जान लें कि अपने संसाधन पर भरोसा करते हुए अपनी स्वाधीनता को बचा सकते हैं। अपनी क्षमता पर यही यक़ीन साम्राज्य के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के मोर्चे को ताक़तवर बनाकर, उसे दुनिया में अपने हक़ को हासिल करने के लिए आत्म विश्वास देता है।

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