मंगलवार 11 मार्च 2025 - 05:50

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार:

लेखक : सय्यद नजीब जैदी

वह एक मलीका जो शहरे मक्का में रह रही थी
वह एक ख़ातून
जो जाद्द ए हक़ की ज़िंदगी थी
वह शहज़ादी
जो ख़िदमते ख़ल्क़ कर रही थी.
वह जिसके घर से हज़ारों लोग पल रहे थे
न जाने कितने बरहना इंसान लिबास पाकर बहल रहे थे
न जाने कितने ही ऊंट ग़रीब व नादार बस्तियों तक ग़िज़ाएं पहुंचा कॆ  शाद आते
शिकम की आतिश बुझाने वाले उस एक घर पर निगाह रखते
वह जिसके घर पर हर एक दिन का नज़ारा अकसर ही मुख़्तलिफ़ था
हर एक साएल जो दर पर आता
मुराद अपनी वह पाकर जाता
वह सबकी बातों को जान व दिल से बग़ौर सुनती.
हर एक मुश्किल को दूर करती
दिलासा देती सहारा बनती
मुस्कुरा के कहती
"कोई ज़रूरत पड़े जो तुमको"
किसी भी मुश्किल में तुम फंसो गर
तो सीधे उठकर इधर ही आना
यह घर तुम्हारा अपना ही घर है
........
वह एक मलीका जो शहरे मक्का में रह रही थी
वह अब कहां है?
फिर आज कितने ग़रीब व नादार
क़तार अंदर क़तार
यह किसकी राहों को तक रहे हैं
ग़ुरुर परवर अमीर ज़ादे उन्हीं ग़रीबों की आज इज़्ज़त से खेलते हैं
ग़रीब कोई जो दर पर पहुंचे
उसे हेक़ारत से देखते हैं
ग़रीब व नादार अपने अश्कों को ख़ुद ही पीकर यह सोचते हैं
गुनाह क्या है हमारा आख़िर?
ज़माना हम पर सितम यह ढाए
हंसे हमीं पर हमें रुलाए
जहां का अंदाज़ ऐसा क्यों है?
ग़रीब मरते हैं मरते जाएं
किसी को रग़बत नहीं है हम से
यह कैसा मंज़र है इस जहां का
तमाम रिश्ते फ़क़त अमीरों से निभ रहे हैं.
महल नुमां उन घरों के दर पर न जाने कितने
बरहना पा रोज़ाना मर रहे हैं
कहीं पर ऐसा भी हो रहा है
कि एक छोटी सी झोपड़ी में ब-वक़्ते इफ़्तार
छोटे बच्चे
उठा के हाथों को कह रहे हैं
वह एक मलीका जो शहरे मक्का में रह रही थी
वह अब कहां है?.......

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