۱ آذر ۱۴۰۳ |۱۹ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 21, 2024
समाचार कोड: 384391
12 नवंबर 2022 - 23:05
एकता

हौज़ा / हमारी हालत उस मेंढक की तरह हो गई है जिसे उरूज पसंद ही नहीं वह तालाब और नाली के सड़े व बदबूदार पानी को ही अपना मुक़द्दर समझता है। हम एक ही मज़हब में अलग-अलग मसलक के लोग एक दूसरे से तअस्सुब के शिकार हैं एक दूसरे को देखना पसंद नहीं करते जिसका पूरा फा़यदा दूसरे लोग उठा रहे हैं।

लेखकः अली अब्बास जै़नबी

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी !

हिन्दुस्तान जहां हर मसलक व मिल्लत व मज़हब सियाह , सफेद भूरे ,छोटे बड़े कद के लोग रहते हैं इस जम्हूरी देश में कानूनन हर किसी को अपने मज़हब वह मसलक पर अमल करने का पूरा हक है ना मुस्लिम ना हिंदू न सिख ना इसाई कानून सबके लिए बराबर है लेकिन कई सालों से मुसलसल खुलेआम क़ानून संविधान की धज्जियां उड़ती हुई नज़र आती हैं कोई किसी को पाकिस्तान भेज रहा है तो कोई इस देश को अपना जा़ती मिल्कियत समझ रहा है जबकि यहां सबका बराबर हक़ है जितना इसकी आजा़दी के लिए मुस्लिमों का खून बहा उतना ही हिंदुओं का अगर सिखों ने अपने लाल अपने सपूत इस देश पर  कुर्बान किए तो ईसाइयों ने भी अपनी औलाद अपने भाई अपने शौहर कुर्बान किए इस धरती पर सबके खू़न बहाए गए इसके एक एक  टुकड़े को आजा़द कराने के लिए सभी मज़हब के फरज़नदों के जिस्मों के हजा़रों टुकड़े हो गए।

जब इस मिट्टी में सभी के खू़न शामिल हैं तो फिर यह तअस्सुब क्यों ?यह दुश्मनी क्यों ? ये जुल्म क्यों?ये न इंसाफियां क्यों? कभी एक मज़हब के लोगों को किसी जानवर के नाम पर क़त्ल कर दिया जाता है तो कभी लव जिहाद के नाम पर, यह हैवानियत व बरबरियत क्यों ? यह सितमगरी क्यों ?आज एक ही मज़हब की अक्सरियत आबादी के इलाक़ों में जाने से दूसरे मज़हब के लोग घबराते क्यों है आज जु़ल्म के खि़लाफ बोलना जुर्म क्यों ?

किसी जा़लिम पार्टी के जु़ल्म को गिनवाना ख़ता क्यों शुमार किया जाता है आज  इंसानों से ज़्यादा जानवर कैसे की़मती हो गया ना कोई मज़लूमों की फरियाद  सुनता है न बेबसों का सहारा ना आज मर्द महफू़ज  है ना ही ख़्वातीन ,कब कहां  किसके साथ क्या हो जाए कोई भरोसा नहीं आज मुंसिफ ही का़तिल हो गया और मुहाफि़ज़ ही लुटेरा ,जेलों में मज़लूमों को ठूंसा जा रहा है और जा़लेमीन सदरे अर्ज़ पर दनदनाते फिर रहे हैं कोई जगह महफू़ज नहीं ट्रेन हो या बस ,गांव हो या शहर हर जगह तअस्सुब ही तअस्सुब है जु़ल्म ही जु़ल्म है बस एक जगह थी जहां तअस्सुब का गुजर नहीं होना चाहिए था लेकिन अब वह भी महफू़ज न रही यूनिवर्सिटी हो या स्कूल या कॉलेज यहां भी तअस्सुब ने जगह  ले ली अब आप यहां कुर्ता पजामा या बुर्का पहन कर नहीं जा सकते ये अभी इब्तेदा है अभी चंद ही जगहों  पर यह बात देखी गई जैसे कर्नाटक के  कॉलेज में भगवा के जे़रे असर फिर एक बार बुर्का़ को निशाना बनाया गया आखि़र ये एक मख़सूस गिरोह व मज़हब के साथ क्यों हो रहा है शायद उसकी वजह यह भी है कि हम एक ही मज़हब में अलग-अलग मसलक के लोग एक दूसरे से तअस्सुब के शिकार हैं एक दूसरे को देखना पसंद नहीं करते जिसका पूरा फा़यदा दूसरे लोग उठा रहे हैं।

आज हमारी हालत उस मेंढक की तरह हो गई है जिसे उरूज पसंद ही नहीं वह तालाब और नाली के सड़े व बदबूदार पानी को ही अपना मुक़द्दर समझता है बचपन में वह कहानी पढ़ी थी कि अलग-अलग लकड़ियों को तोड़ देना कितना आसान है लेकिन अगर सबको यकजा कर दिया जाए तो बहुत ही मुश्किल आज सब को एक होने की ज़रूरत है और एहसास दिलाने की ज़रूरत है कि हमारे बिना किसी की कोई हैसियत नहीं है हम भी जिस्म के वह अहम  आजा़  हैं जिन को जुदा करने के बाद जिस्म मायूब और  बेकार हो सकता है जिस दिन ऐसा हो गया फिर हमारी जानें और हमारा वजूद की़मती हो जाएगा वरना लड़ते रहो और मरते रहो।

नोटः लेखक के अपने जाती विचार है हौज़ा न्यूज़ एजेंसी का लेखक के विचारो से सहमत होना ज़रूरी नही है।

टैग्स

कमेंट

You are replying to: .