रविवार 20 अप्रैल 2025 - 10:34
इमाम की विशेषता: इस्मत"

हौज़ा / अगर मासूम इमाम ग़लती से मुक्त नहीं होगा तो लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी और इमाम की तलाश करनी चाहिए, और अगर वह भी ग़लती से मुक्त नहीं होगा, तो एक और इमाम की आवश्यकता होगी, और यह सिलसिला अनंत तक चलता रहेगा। और यह बात अक़ल के अनुसार गलत है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, इमाम की एक महत्वपूर्ण विशेषता और इमामत की बुनियादी शर्तों में से एक "इस्मत" (पवित्रता/त्रुटि रहित होना) है।

"इसमत" एक ऐसी क्षमता है जो सच्चाइयों के ज्ञान और मजबूत इच्छा शक्ति से उत्पन्न होती है, और इमाम इन दोनों के कारण हर प्रकार के पाप और गलती से बचता है।

इमाम न केवल धार्मिक ज्ञान को समझने और स्पष्ट करने में, बल्कि उनका पालन करने और इस्लामी समाज के हित और हानि को पहचानने में भी हर तरह की गलती और चूक से मुक्त होता है।

इमाम की इसमत के लिए अक़ल और कुरान तथा हदीसों से प्रमाण मौजूद हैं। सबसे महत्वपूर्ण तार्किक कारण इस प्रकार हैं:

अ) धर्म की सुरक्षा और धार्मिक आचरण की रक्षा इमाम की इस्मत पर निर्भर है;
क्योंकि इमाम का दायित्व धर्म को बदलाव से बचाना और लोगों का धार्मिक मार्गदर्शन करना होता है। न केवल उसके शब्द, बल्कि उसके व्यवहार और दूसरों के कार्यों के प्रति उसकी स्वीकृति या अस्वीकृति भी समाज के व्यवहार को प्रभावित करती है। इसलिए, उसे धर्म को समझने और उस पर अमल करने में हर प्रकार की गलती से मुक्त होना चाहिए ताकि वह अपने अनुयायियों को सही तरीके से मार्गदर्शन कर सके।

ब) समाज को इमाम की आवश्यकता का एक कारण यह है कि लोग धर्म को समझने और उसका पालन करने में ख़ता से मुक्त नहीं हैं।
यदि लोगों का नेता भी इसी प्रकार त्रुटिपूर्ण हो, तो वह उनका पूर्ण विश्वास कैसे जीत सकता है? दूसरे शब्दों में, यदि इमाम मासून न हो, तो लोग उसके अनुसरण और उसके सभी आदेशों को निभाने में संदेह करेंगे।

इसके अलावा, यदि इमाम ग़लती व ख़ता से मुक्त न हो, तो लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक और इमाम की तलाश करनी पड़ेगी। यदि वह भी ग़लती व ख़ता से मुक्त न हो, तो फिर एक और इमाम की आवश्यकता होगी, और यह सिलसिला अनंत तक चलता रहेगा। अक़्ल की दृष्टि से यह असंभव और गलत है।

क़ुरआन की कुछ आयतें भी इमाम की इस्मत की आवश्यकता को दर्शाती हैं, जिनमें से एक सूर ए बक़रा की आयत 124 है। इस आयत में कहा गया है कि नबूवत के बाद, अल्लाह तआला ने हज़रत इब्राहीम (अ) को इमामत का उच्च पद भी प्रदान किया। इसके बाद हज़रत इब्राहीम (अ) ने अल्लाह से दुआ की कि इमामत का यह पद उनकी संतान में भी रहे।

अल्लाह तआला ने फ़रमाया: "मेरा अहद (इमामत) ज़ालिमों तक नहीं पहुंचेगा।" यानी, इमामत का पद हज़रत इब्राहीम (अ) की उन्हीं संतान के लिए है जो ज़ालिम न हों26
इसका अर्थ यह है कि इमामत का ओहदा सिर्फ़ उन्हीं लोगों को मिल सकता है जो हर प्रकार की ज़ुल्म (पाप या गुनाह) से पाक और मासूम हों, क्योंकि ज़ालिम (गुनाहगार) को यह पद नहीं मिल सकता26

अब जब कि क़ुरआन मजीद ने अल्लाह की शिर्क (साझेदारी) को सबसे बड़ा ज़ुल्म (अन्याय) बताया है और हर प्रकार की इलाही हुक्मात (आज्ञाओं) की अवहेलना (पाप) को भी आत्मा के प्रति ज़ुल्म माना है, तो जो कोई भी अपने जीवन के किसी भी दौर में पापी रहा है, वह ज़ालिम का उदाहरण होगा और इमामत के पद के योग्य नहीं होगा।

दूसरे शब्दों में, निस्संदेह हज़रत इब्राहीम (अ) ने "इमामत" उस वर्ग के लिए नहीं मांगी जो अपने पूरे जीवन में पापी रहे या जो शुरू में नेक थे और बाद में बुरे हो गए। इसलिए, दो श्रेणियाँ बचती हैं:

1- वे जो शुरू में पापी थे लेकिन बाद में तौबा करके नेक बन गए।

2- वे जो कभी भी पाप नहीं किए।

अल्लाह ने अपने कलाम में पहली श्रेणी को छोड़ दिया है। इसका नतीजा यह है कि "इमामत" का पद केवल दूसरी श्रेणी के लिए ही है।

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