शुक्रवार 13 जून 2025 - 05:54
शरई अहकाम । क़सम तोड़ना का हुक्म और कफ़्फ़ारा

हौज़ा / इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह खामनेई के फतवे के अनुसार, केवल वही कसम जो अल्लाह के नाम पर ली गई हो और "इंशाई" प्रकार की हो — यानी जो भविष्य में किसी काम को करने या न करने के लिए ली गई हो — वह हराम है और उसे तोड़ने पर कफ़्फ़ारा देना पड़ता है। अख़बारी कसमें, जो बीती हुई घटनाओं के बारे में होती हैं, अगर वे झूठी हों तो हराम हैं, लेकिन उनका कोई कफ़्फ़ारा नहीं होता। और अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर ली गई कसमों का भी कफ़्फ़ारा नहीं होता, भले ही उन्हें तोड़ा जाए।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी, "कसम तोड़ने" के विषय में इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह खामनेई के फतवे की हुज्जतुल इस्लाम वल मुसलेमीन फल्लाह ज़ादे की व्याख्या के अनुसार, इस शरई हुक्म का पाठ आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है।

*  कसम तोड़ने का शरई हुक्म

सवाल:
क्या हम शरीअत के हिसाब से अपनी कसम तोड़ सकते हैं? और अगर तोड़ते हैं तो क्या हमें कफ़्फ़ारा (मुआवजा) देना होगा या नहीं?

जवाब:
आयतुल्लाह खामनेई के फतवे के अनुसार, अगर कोई झूठी कसम खाता है तो वह हराम है। मतलब, अगर कोई ऐसा मामला हो जो सच नहीं है, उस पर कसम खाई जाए — चाहे किसी बात को साबित करने के लिए हो या उसे नकारने के लिए — और वह कसम अल्लाह के नाम पर हो, या क़ुरआन के नाम पर, या यहां तक कि अपने बच्चे की जान के नाम पर भी हो, लेकिन कसम का विषय गलत हो, तो यह करना जायज नहीं है और हराम होगा।

अगर कसम झूठी नहीं है, तो केवल कुछ खास किस्म की कसमें तोड़ना हराम होता है और उनका कफ़्फ़ारा देना जरूरी होता है। यह तभी होता है जब कसम अल्लाह के नाम पर ली गई हो (कसम अल्लाह की) और वह "इंशाई" कसम हो।

इंशाई कसम का मतलब है कि व्यक्ति भविष्य में किसी काम को करने या न करने के लिए कसम खाता है, जैसे: "मैं अल्लाह की कसम यह काम करूँगा" या "अल्लाह की कसम मैं यह काम नहीं करूँगा"। अगर कसम के बाद वह व्यक्ति उस काम को करने से मना कर देता है (जब कि उसने करने की कसम खाई थी) या उल्टा करता है, तो यह कसम तोड़ना हराम है और इसका कफ़्फ़ारा देना जरूरी है।

लेकिन अगर कसम "अख़बारी" हो, यानी किसी बीती हुई घटना के बारे में हो, जैसे: "मैं कसम खाता हूँ कि कल बारिश हुई थी" या "फलानी यात्रा पर गया था" या "मैं कल उस जगह नहीं था", तो यह केवल एक सूचना देने जैसा है। अगर यह झूठी हो तो हराम है, लेकिन अगर सच हो तो यह सिर्फ मक़रूह है। क्योंकि यह बीती हुई बात है, इसलिए इसे तोड़ने का सवाल ही नहीं उठता और इसका कोई कफ़्फ़ारा नहीं होता।

साथ ही, जो कसमें अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर ली जाती हैं, जैसे बच्चे की जान की कसम, उनका शरीअत में अल्लाह की कसम जैसा हुक्म नहीं होता और उन्हें तोड़ने पर कफ़्फ़ारा नहीं देना पड़ता।

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