हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव में एक ऐसा दिन आता है जब माता-पिता की आँखों की रौशनी कम पड़ जाती है, हाथ काँपने लगते हैं और कदम लड़खड़ा जाते हैं। वही माता-पिता जिन्होंने बचपन में हमें चलना सिखाया, खिलाया, सँवारा और बार-बार कहानियाँ सुनाकर खुश किया, अब चाहते हैं कि हम उन्हें सहन करें, समय दें और उनकी कमज़ोरियों को हँसी या गुस्से का कारण न बनाएं। यह वास्तव में हमारी शुक्रगुज़ारी की परीक्षा है कि हम बचपन में उनके एहसानों का बदला कैसे चुकाते हैं।
माता-पिता का बुड़ापा और बच्चों की जिम्मेदारी
जब पिता या माँ बार-बार बात करें या कुछ भूल जाएँ, तो यह उनकी कमजोरी नहीं बल्कि उम्र की सच्चाई है। ऐसे में बच्चों का फ़र्ज़ है कि वे उनके आँख और दिमाग बनें, उनकी भूलों पर पर्दा डालें और उनके साथ एहसान और सब्र से पेश आएँ। ये वही लोग हैं जिन्होंने हमारी ज़िंदगी, हमारी खुशी और हमारी कामयाबी के लिए अपनी जवानी कुर्बान की। अब उनके कमजोर शरीर को सहारा देना, उनका हाथ थामना और उनके दिल को तस्ली देना हमारी असली सेवा है।
आख़िरी तमन्ना और असली विरासत
पिता बेटे से यही चाहता है कि जिस तरह उसने जन्म के पल में अपने बच्चे को थामा था, वह भी मौत के वक्त उसके साथ खड़ा हो। यह वसीयत हमें याद दिलाती है कि माता-पिता की सेवा सिर्फ एक नैतिक फ़र्ज़ नहीं बल्कि इबादत है। क़ुरआन कहता है:
﴿وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا﴾
(बनी-इस्राइल: 23) माता-पिता के साथ भलाई करो।
बच्चों के लिए सबसे बड़ी विरासत धन नहीं बल्कि ये दुआएँ हैं:बेटा! मेरी गलतियों को माफ़ कर देना, मेरा साथ देना, और मुझे अकेला न छोड़ना। यही माता-पिता की आख़िरी ख्वाहिश और उनका सबसे कीमती तोहफ़ा है।
दुआ:
हे खुदा! हमें अपने माता-पिता के बुड़ापे में सब्र, सेवा और सम्मान की ताक़त दे, उनकी भूलों को हमारे लिए आसान कर दे, और हमारे व्यवहार से उनके दिल को सुकून मिले। जैसे उन्होंने बचपन में हमें संभाला, वैसे ही हम बुड़ापे में उनका सहारा बन सकें। आमीन या रब्ब अल-आलमीन।
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