लेखक: मुहम्मद बशीर दौलती
आलिमा ग़ैर मोअल्लिमा, अकीला-ए-बनू-हाशिम, मजहर-ए-हया व इफ़्फ़त, पैकर-ए-सबर व शुजाअत हज़रत ज़ैनब कुब्रा़ सलामुल्लाह अलैहा की विलादत 5 जमादिउल अव्वल हिजरत के लगभग छठे साल हुई।
रसालत की निगहबानी, दामन-ए-इस्मत और आँगन-ए-इमामत में पंचतन पाक के साये में आपकी तर्बियत हुई।
आपका नाम मौला अली और हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की ख्वाहिश पर रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम ने हुक्म-ए-ख़ुदा से “ज़ैनब” रखा। “ज़ैनब” दो लफ़्ज़ों का मजमूआ है — “ज़ैन” और “अब” यानी “बाप की ज़ीनत”।
आपके मशहूर क़ाबों में आरिफ़ा, आलिमा, फ़ाज़िला, आबिदा, आमिना, नाइब-ए-ज़हरा, नाइब-ए-हुसैन, शरीक़त-उश-शुहदा, शरीक़त-उल-हुसैन, बलीग़ा और फ़सीहा शामिल हैं।
इबादत, ज़हद व तक़्वा, सब्र व शकीबाई, बलाग़त व फ़साहत और शुजाअत के मैदान में आप बहुत उच्च दर्जे पर फ़ाइज़ थीं।
आप उस बाप की ज़ीनत बनीं जिसकी एक ज़रबत तमाम आबिदों और ज़ाहिदों की इबादतों से अफ़ज़ल थी, यानी तमाम इबादतों की ज़ीनत बनीं।
बचपन का ज़माना नाना रसूल-ए-ख़ुदा की शफ़क़तों में गुज़रा। बचपन ही से आप ज़हीन और फ़तीन थीं। सब्र, शुजाअत और इस्तेक़ामत आपने बचपन से ऐसे सीखे कि दुनिया आज भी आपके इन ओसाफ़-ए-कमाल पर हैरान है।
आपकी वालिदा माजिदा हज़रत फ़ातिमत-उज़-ज़हरा किरदार और अमल में तमाम औरतों के लिए मिसाली नमूना थीं। औरत बतौर बेटी, बतौर बीवी और बतौर माँ—तीनों हैसियतों में बेहतरीन नमूना-ए-अमल क़रार पायीं, इसलिए आपको “सैय्यदत-उन-निसा-इल-आलमीन” का लक़ब मिला।
लेकिन उनकी ज़िन्दगी में औरत बतौर बहन का कोई किरदार सामने नहीं था—यह भूमिका हज़रत ज़ैनब ने अपने अमल से क़ामिल दर्जे पर पेश की।
बतौर बेटी आपने इतनी पाकीज़ा ज़िन्दगी गुज़ारी कि अली जैसी शख़्सियत के लिए “ज़ीनत” बनीं।
बतौर बीवी आपने हज़रत अब्दुल्लाह बिन जाफ़र के साथ मिसाली ज़िन्दगी बिताई।
बतौर माँ आपने हज़रत औन और मुहम्मद समेत चार बेटों और एक बेटी की तर्बियत की।
आपकी शादी जनाब अब्दुल्लाह से सत्रह हिजरी में हुई, उसी साल ख़लीफ़ा-दोम के हुक्म पर शहर-ए-कूफ़ा की बुनियाद रखी गयी। आपका मेहर चार सौ सत्तर दरहम रखा गया।
इतिहासकारों के मुताबिक हज़रत अब्दुल्लाह से आपके चार बेटे और एक बेटी हुई।
कुछ इतिहासकार शादी के वक़्त दो ख़ास शरायत का ज़िक्र करते हैं—पहली यह कि हर रोज़ इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत की इजाज़त हो, और दूसरी यह कि अगर इमाम हुसैन सफ़र पर जाएँ तो साथ जाने की रज़ामन्दी हो।
आप इमाम अली के दौर-ए-हुकूमत में कूफ़ा की ख़वातीन को तफ़्सीर-ए-कुरआन और हदीस का दरस दिया करती थीं।
आपके इल्म के बारे में इमाम सज्जाद अ.स. का मशहूर क़ौल है: “अंति आलिमा ग़ैर मोअल्लिमा, फ़हिमा ग़ैर मुफ़ह्हमा” — यानी “तुम ऐसी आलिमा हो जिसे किसी ने नहीं सिखाया, और ऐसी फ़हिमा हो जिसे किसी ने नहीं समझाया।”
इबादत की तरफ़ देखें तो इमाम हुसैन जैसी शख़्सियत आपको वसीयत करते हैं: “या उख्ती ला तंसीनी फ़ी नाफ़िलत-इल-लैल” — “ऐ बहन! मुझे नमाज़-ए-शब में भूल मत जाना।”
कर्बला के दर्दनाक वाक़े के बाद भी शब-ए-ग़रीबां से लेकर शाम के कैदख़ाने तक आप नमाज़-ए-शब अदा करती नज़र आती हैं।
शुजाअत के मैदान में देखें तो इमाम हुसैन, अब्बास, अली अकबर, क़ासिम, औन, मुहम्मद—इन सबकी कुर्बानियाँ देने के बाद भी आप इब्न-ए-ज़ियाद और यज़ीद की आँखों में आँखें डालकर कहती हैं, “तुम हमारी याद को मिटा नहीं सकते, तुम वही-ए-इलाही को मसरूश नहीं कर सकते।”
सबर और इस्तेक़ामत में, सब कुछ लुटने और छिन जाने के बाद भी आप मज़बूत और दिलेराना अंदाज़ में “मा रायतु इल्ला जमीलन” (“मैंने कुछ नहीं देखा, सिवाय ख़ूबसूरती के”) कहती नज़र आती हैं।
भाई हुसैन से आपकी मोहब्बत का आलम यह था कि शादी के तीसरे दिन, अरब रस्म के मुताबिक जब हज़रत उम्मुल बनीन मिलने के लिए आईं तो आपने सज्जादे पर बैठी रोती हुई पाई गईं। वजह पूछने पर आपने कहा—“तीन दिन हो गए मैंने अपने भाई हुसैन को नहीं देखा।”
जब वही भाई मदीने को छोड़कर रवाना हुए, तो आपने अपने शौहर को अपनी शादी की शर्त याद दिलाई और साथ चलने की इजाज़त ली।
असर-ए-आशूर के बाद आपने हुसैनियत का परचम थामा और कूफ़ा व शाम के बाज़ारों और दरबारों में ऐसे ख़ुतबे दिए कि आज तक “जिहाद-ए-तबीइन” और “फसाहत-ए-बालाग़त” का मिसाल बने हुए हैं। आपने कर्बला के मिशन, इमाम की मज़लूमियत और ज़ालिमों के ज़ुल्म को क़यामत तक आने वाले इंसानियत के राहिबरनों तक पहुंचाया।
भाई हुसैन से गहरी मोहब्बत के सबब आप भी सत्तावन साल से ज़्यादा ज़िन्दा न रहीं और पंद्रह रजब सन 62 हिजरी को इस दुनिया से रुख़्सत हो गईं।
आपकी मजार के बारे में तीन मशहूर क़ौल हैं:
पहला — आप आख़िर-ए-उमर में बीमारी के कारण श्याम में अब्दुल्लाह की जायदाद पर गईं और वहीं इंतिक़ाल हुआ। दमिश्क में “ज़ैनबिया” के मुक़ाम पर आपसे मंसूब रौज़ा मौजूद है।
दूसरा — आप आख़िरी दिनों में मिस्र के क़ाहिरा चली गईं, वहीं इन्क़िलाब हुआ और वहीं दफ़्न की गईं। क़ाहिरा में भी आपका मज़ार मौजूद है।
तीसरा — आप मदीना में रहीं और वहीं वफ़ात पाई, हालाँकि यहाँ श्याम या मिस्र की तरह मुक़ाम मंसूब नहीं।
एक रिवायत में इराक के “अनबार” शहर का भी ज़िक्र है लेकिन उलमा ने उसे रद्द किया है।
पहले तीनों क़ौल और उनके मक़ामात पर बड़े-बड़े उलमा व मुहक्क़िकीन क़ायल हैं, इसलिए ये तीनों ही हमारे लिए क़ाबिले एहतराम हैं।
इन मशहूर रिवायतों पर “मकतल-ए-जामेअ-उश-शोहदा” में तफ़्सीली गुफ़्तगू मौजूद है।
हवाला जात:
नूरुद्दीन जज़ाइरी — ख़साइसुज़-ज़ैनबिया
शेख़ रज़ी अल-यासीन — सुल्ह इमाम हसन
मुहम्मद जवाद मुग़निया — अल-हुसैन व बतलत-उल-कर्बला
मकतल जामेअ-उश-शोहदा
ज़ैनब बिन्त अली इब्न अबी तालिब, दानिशनामा-ए-जहान-ए-इस्लाम
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