बुधवार 29 अक्तूबर 2025 - 07:30
पारिवारिक चेतना | मेरा दो साल का बच्चा मोबाइल का आदी बन गया है, क्या करूँ?

हौज़ा / दो साल और तीन महीने के बच्चे का मोबाइल से हद से ज़्यादा लगाव दरअसल माता-पिता और माहौल के व्यवहार की कॉपी करने का नतीजा है। इल्मी हल यह हैं: मोबाइल के इस्तेमाल के लिए निश्चित समय और मनाही वाली जगहें निर्धारित की जाएँ और मोबाइल को बच्चे की पहुँच और नज़रों से दूर रखा जाए तथा बच्चे के साथ आमने-सामने बैठकर ताल्लुक को तरजीह दी जाए और माता-पिता अपने व्यवहार से सही नमूना पेश करें।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, पारिवारिक मामलों के विशेषज्ञ और काउंसलर हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन सय्यद अलीरज़ा तराशियन ने “बच्चों में मोबाइल फ़ोन के इस्तेमाल पर क़ाबू पाने” के विषय पर माता-पिता के एक सवाल का विस्तृत जवाब दिया है।

सवाल: मेरा बच्चा दो साल और तीन महीने का है और उसे मोबाइल फ़ोन से ग़ैर-मामूली लगाव हो गया है। इस रवैये की वजह क्या है और इसे किन प्रायोगिक और साइन्टीफ़िक तरीकों से कंट्रोल किया जा सकता है?

जवाब: बच्चे फ़ितरी तौर पर अनुसरण करने वाले होते हैं। यानी वे अपने आस-पास जो कुछ देखते हैं, उसे बिना सोचे-समझे और उसकी समीक्षा किए बिना वैसा ही करने लगते हैं।

जब बच्चा देखता है कि माँ हमेशा मोबाइल में व्यस्त रहती है, बाप का ध्यान भी मोबाइल में होता है, बड़ा भाई भी फ़ोन इस्तेमाल कर रहा होता है, और यहाँ तक कि मेहमानों के हाथों में भी फ़ोन हैं — तो ज़ाहिर है कि वह भी उसी अमल की नक़ाल करेगा।

इसलिए इस मसले का पहला हल खुद माता-पिता के तर्ज़-ए-अमल में तब्दीली है।

माता-पिता को दो बुनियादी उसूलों पर अमल करना चाहिए:

  1. मोबाइल इस्तेमाल के लिए “ममनूअ मक़ामात” निर्धारित करें
    यह तय किया जाए कि किन जगहों या मौक़ों पर फ़ोन का इस्तेमाल मना है।
    मसलन, खाने के वक़्त मेज़ पर मोबाइल न लाया जाए।
    सोचिए, अगर घर का कोई फ़र्द एक हाथ में चमच और दूसरे में फ़ोन लेकर खाना खा रहा हो, तो बच्चा यह समझेगा कि यह नार्मल रवैया है — और वह भी यही करेगा।
    इसी तरह बैडरूम में या उस वक़्त जब सब घर वाले आपस में बैठे हों, मोबाइल इस्तेमाल पर पाबंदी होनी चाहिए।

  2. मोबाइल इस्तेमाल के लिए “निश्चित समय” निर्धारित करें
    अगर माता-पिता को फ़ोन इस्तेमाल करना ही हो, तो बेहतर है उसके लिए वक़्त तय कर लिया जाए।
    मसलन, वे आधा घंटा फ़ोन इस्तेमाल करें लेकिन उस वक़्त जब बच्चा सो रहा हो या खेल में मसरूफ़ हो —
    ना कि उस वक़्त जब बच्चा सीधा उन्हें देख रहा हो।
    वरना वह उसी रवैये की नक़ाल करेगा।

इसी तरह बेहतर है कि फ़ोन हमेशा बच्चे की नज़र के सामने न रखा जाए। कुछ घरानों ने इसके लिए तख़लीक़ी (रचनात्मक) तरीका अपनाया है:
मसलन, दरवाज़े के पास एक डब्बा रखा है जहाँ घर में दाख़िल होते वक़्त सब अपने फ़ोन रख देते हैं। इससे घर का माहौल पुरसुकून रहता है और बच्चा ग़लत रवैये की नक़ाल से बच जाता है।

  1. घरेलू ताल्लुक़ात में फ़ोन से ज़्यादा इंसान अहम हो
    यह भी ज़ेहन में रहे कि घर में तरजीह हमेशा इंसानों को होनी चाहिए, ना कि फ़ोन को।

अफ़सोस कि आजकल ज़्यादातर लोग फ़ोन की घंटी बजते ही सामने बैठे शख़्स से गुफ़्तगू छोड़कर फ़ौरन कॉल उठा लेते हैं। यह रवैया दरअसल उस शख़्स के लिए बेअदबी के मआनिये रखता है जो सामने बैठा है।

अगर कॉल अहम होगी तो दोबारा आ जाएगी, वरना आप बाद में भी बात कर सकते हैं।

अब ज़रा सोचिए, अगर बच्चा अपने वालिद या वालिदा से बात कर रहा हो और फ़ोन बज जाए, और वालदैन फ़ौरन फ़ोन उठा लें, तो बच्चा यह पैग़ाम लेता है: “फ़ोन मुझसे ज़्यादा अहम है।”

नतीजा यह कि वह एहसास-ए-कमतरी (हीनभावना) में मुब्तला हो जाता है, और बड़ा होकर वह भी फ़ोन को वालदैन से ज़्यादा अहम समझने लगता है।

इसलिए वालदैन को अपने अमल से यह दिखाना चाहिए कि घर में सबसे बड़ी तरजीह अहले-ख़ाना (परिवार के लोग) हैं, ख़ास तौर पर छोटे बच्चे। क्योंकि वे अभी सोचने-समझने और तज़िया करने की सलाहियत नहीं रखते — वे सिर्फ़ वही दोहराते हैं जो देखते हैं। अगर वे सही नमूना देखेंगे तो सही अमल सीखेंगे, और अगर ग़लत नमूना देखेंगे तो वही ग़लती आगे बढ़ाएँगे।

आख़िरकार, बच्चों में मोबाइल इस्तेमाल का नज़्म (अनुशासन) दरअसल वालदैन की ज़िम्मेदारी, शऊर और खुद-एहतसाबी (आत्म-समीक्षा) से वाबस्ता है।

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