हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट अनुसार, तफ़्सीर-ए-अलमीज़ान के लेखक, मरहूम अल्लामा तबातबाई (र) सूरा बक़रा की आयात 228 से 242 के ज़ेरे बयान में “इस्लाम और दीगर अक़वाम व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख़्सियत और समाजी मुक़ाम” पर तफ़सीली चर्चा की है। सिलसिले का तीसरा भाग नीचे दिया गया है:
मुतमद्दिन अक़वाम में औरत का मुक़ाम: चीन, ईरान, मिस्र और हिंदुस्तान
अल्लामा (र) लिखते हैं कि “मुतमद्दिन अक़वाम” से मुराद वो क़ौमें हैं जो मुनज़्ज़म रसूम व रवाज और मूरूसी आदतों के तहत ज़िंदगी गुज़ारती थीं, अगरचे इनके ये क़वानीन किसी आसमानी किताब या क़ानूनसाज़ इदारे पर मबनी नहीं थे। ऐसी क़ौमों में चीन, ईरान, मिस्र और हिंदुस्तान शामिल थे।
इन तमाम अक़वाम में औरत के बारे में एक बात मुस्तरक थी:
औरत को किसी क़िस्म की आज़ादी या ख़ुदमुख़्तियारी हासिल नहीं थी — न अपनी मर्ज़ी में, न अपने आमाल में।
ज़िंदगी के तमाम मआमलात में वह मर्द के ज़ेरे फ़रमान थी। वह किसी काम का ख़ुद फ़ैसला नहीं कर सकती थी और न ही उसे मुआशरती उमूर (जैसे हुकूमत, क़ज़ावत या किसी और समाजी मैदान) में कोई हक़ हासिल था।
औरत पर ज़िम्मेदारियाँ, मगर हक़ नहीं
अगरचे औरत को कोई हक़ नहीं दिया गया था, मगर उस पर मर्दों जैसी सारी ज़िम्मेदारियाँ डाल दी गई थीं।
वह खेती-बाड़ी, मेहनत-मज़दूरी, लकड़ियाँ काटने और दीगर कामों की पाबंद थी। इसके साथ घर के तमाम उमूर और बच्चों की देखभाल भी उसी के ज़िम्मे थी।
उसे शोहर की हर बात और हर ख़्वाहिश के सामने इताअत करनी लाज़िम थी।
हाँ, इतना ज़रूर था कि मुतमद्दिन अक़वाम में औरत को कुछ हद तक बेहतर ज़िंदगी हासिल थी, क्योंकि वो ग़ैर मुतमद्दिन क़ौमों की तरह औरत को क़त्ल नहीं करते थे, न उसे खाने की चीज़ समझते थे, और न पूरी तरह मलकियत से महरूम रखते थे।
औरत कुछ हद तक मलकियत रख सकती थी, मिसाल के तौर पर विरासत या इज़्दिवाजी इख़्तियार, मगर उसकी ये आज़ादी भी हक़ीक़ी नहीं थी; तमाम फ़ैसले आख़िरकार मर्द के ताबे होते थे।
तअद्दुद-ए-इज़दवाज और समाजी इम्तियाज़
इन मुआशरों में मर्दों को ला-महदूद तादाद में बीवियाँ रखने की आज़ादी थी। मर्द जब चाहे किसी औरत को तलाक़ दे सकता था, मगर औरत को ये हक़ नहीं था।
शोहर के मरने के फ़ौरन बाद मर्द नई शादी कर लेता था, लेकिन औरत शोहर की वफ़ात के बाद न निकाह कर सकती थी और न आज़ादाना मुआशरत रख सकती थी।
अकसर औरतों को घर से बाहर मर्दों से मेलजोल की भी इजाज़त नहीं थी।
क़ौमी रसूम और औरत के लिए विशेष नियम
हर क़ौम ने अपने जगहगीर और समाजी हालात के मुताबक औरत से मुतअल्लिक ख़ास रस्में बना रखी थीं।
ईरान में:
ईरान में तबक़ाती फर्क़ बहुत नुमायां था। आला तबक़े की औरतों को कभी-कभार हुकूमत या सल्तनत में हिस्सा लेने का हक़ मिलता था।
उनमें ये रस्म भी थी कि वो अपने क़रीबी महरम, मसलन भाई या बेटे से भी शादी कर सकती थीं, लेकिन निचले तबक़े की औरतों को ऐसा कोई हक़ हासिल न था।
चीन में:
चीन में निकाह को ख़ुदफ़रोशी की एक सूरत समझा जाता था। औरत जब शादी करती तो गोया अपनी पूरी आज़ादी बेच देती थी।
वहाँ की औरतें ईरानी औरतों की निस्बत ज़्यादा बे-इख़्तियार थीं।
वो विरासत से महरूम थीं, और यहाँ तक कि अपने शोहर या बेटों के साथ एक ही दस्तरख़्वान पर बैठने की भी इजाज़त नहीं थी।
कुछ मौक़ों पर दो या ज़्यादा मर्द एक ही औरत से शादी कर लेते थे, और वह औरत उन सब की ख़िदमत व ज़रूरतें पूरी करती थी।
अगर उससे बच्चा पैदा होता तो आम तौर पर उसे उसी मर्द का बेटा समझा जाता जिससे उसकी शक्ल मिलती-जुलती होती।
हिंदुस्तान में औरत की हैसियत:
हिंदुस्तान में औरत की हालत और भी अफ़सोसनाक थी। वहाँ यह अक़ीदा था कि औरत, शोहर के जिस्म का एक हिस्सा है।
इसीलिए शोहर के मरने के बाद औरत के लिए दुबारा शादी हराम समझी जाती थी, बल्कि रवाज यह था कि औरत को भी शोहर की लाश के साथ ज़िंदा जला दिया जाता था।
अगर कोई औरत ज़िंदा रह भी जाती तो सारी ज़िंदगी ज़िल्लत और तन्हाई में गुज़ारती।
हिंदुस्तान में हाइज़ (मासिक धर्म) की हालत में औरत को नापाक और पलीद समझा जाता था।
उसके कपड़े, बर्तन और वो चीज़ें जिन्हें वह छू ले, सब नापाक मानी जाती थीं।
नतीजा: औरत — न इंसान, न हैवान
अल्लामा तबातबाई (र) के क़ौल में, इन अक़वाम में औरत की हैसियत कुछ इस तरह थी कि वह न पूरी इंसान समझी जाती थी न पूरी हयवान।
बल्कि वो एक दरमियानी मख़लूक़ थी — ऐसी हस्ती जो ख़ुद कोई हक़ नहीं रखती थी, बल्कि दूसरों की ख़िदमत के लिए पैदा हुई थी।
औरत का मुक़ाम एक नाबालिग़ बच्चे की तरह था, जो इंसानों की ख़िदमत तो कर सकता है मगर ख़ुद आज़ाद नहीं होता।
फर्क़ सिर्फ़ इतना था कि बच्चा जवां होने पर आज़ादी पा लेता था, मगर औरत सारी उम्र किसी न किसी की ज़ेरे विलायत रहती थी — कभी बाप की, कभी शोहर की और कभी बेटे की।
(जारी है...)
स्रोत: तरजुमा तफ़्सीर अल–मीज़ान, भाग 2, पेज 395
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